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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


प्रश्न 3 - पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुष्यमित्र की धार्मिक नीति के विषय में आप क्या जानते हैं ?

उत्तर -

पुष्यमित्र शुंग की धार्मिक नीति

ब्राह्मण धर्म की पुनर्स्थापना - पुष्यमित्र के काल में ब्राह्मण धर्म को राजकीय संरक्षण प्रदान किया गया तथा वैदिक कर्मकाण्डों के अनुष्ठान पर बल दिया गया। अनेक विद्वानों ने पुष्यमित्र को ब्राह्मण धर्म का पुनरोद्धारक बताया है। परन्तु यह असत्य प्रतीत होता है, क्योंकि ब्राह्मण धर्म कभी कुण्ठित नहीं हुआ था और मौर्य शासकों ने भी अधिकतर ब्राह्मणेतर धर्म को ही अपनाया था। पुष्यमित्र ने भी ब्राह्मण धर्म ही अपनाया और कर्मकाण्डों को मान्यता दी। इसी समय समाज में भागवत धर्म का उदय हुआ तथा वासुदेव विष्णु की उपासना प्रारम्भ हुई। इसका सबसे प्रामाणिक उदाहरण हेल्योडोरस का बेसनगर गरुड़ध्वज स्तम्भ लेख है जिसकी तिथि 2 शती ई. पू. मानी गई है।

अश्वमेध यज्ञ - ऐसा माना जा सकता है कि पुष्यमित्र एक ब्राह्मण था, इसलिये उसके राजत्वकाल में ब्राह्मण धर्म की गति पुनः तीव्रतर हो गई। अपनी उपलब्धियों के फलस्वरूप वह उत्तर भारत का एकच्छत्र सम्राट बन गया। अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने के लिये उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया। पंतजलि ने महाभाष्य में बताया है कि 'इह पुष्यमित्रं याजयामः' (महाभाष्य 3/2, प्र. 123) अर्थात् यहाँ हम पुष्यमित्र के लिये यज्ञ करते हैं। अयोध्या अभिलेख में भी पुष्यमित्र को दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला (द्विरश्वमेधयाजिनः) कहा गया है।

क्या पुष्यमित्र बौद्ध-विरोधी था ? - ब्राह्मण धर्म के अनुयायी पुष्यमित्र शुंग को कुछ इतिहासकारों ने बौद्ध-विरोधी बताया है। बौद्ध-ग्रन्थ दिव्यावदान तथा तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के लेखों में पुष्यमित्र शुंग को बौद्ध धर्म का घोर विरोधी तथा स्तूपों और विहारों का विनाशक कहा गया है। दिव्यावदान से ज्ञात होता है कि उसने लोगों से अशोक की प्रसिद्धि का कारण पूछा। इस पर उसे ज्ञात हुआ कि अशोक 84,000 स्तूपों का निर्माता होने के कारण ही प्रसिद्ध है। अतः उसने हिन्दू धर्म में अशोक द्वारा सधर्म के प्रति किये गये कार्यों से अपने को आगे रखने के लिये उसकी बौद्ध कृतियों और विहारों को नष्ट करने का निश्चय किया। अपने ब्राह्मण पुरोहित की राय पर पुष्यमित्र ने महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को समाप्त करने की प्रतिज्ञा की।

वह पाटलिपुत्र स्थित कुक्कुटाराम के महाविहार को नष्ट करने के लिये गया परन्तु वहाँ एक जोर की गर्जन सुनकर भयभीत हो गया और वापस लौट आया। इसके बाद वह एक चतुरंगिणी सेना के साथ मार्ग में बौद्ध-स्तूपों को नष्ट करता हुआ, विहारों को जलाता हुआ तथा भिक्षुओं की हत्या करता हुआ शाकल पहुँचा। बौद्ध ग्रन्थों के अनुसार, शाकल में उसने यह घोषणा की कि "जो मुझे एक श्रमण (भिक्षु) का सिर देगा उसे मैं 100 दीनारें दूँगा।' परन्तु यह अतिरंजनापूर्ण वर्णन लगता है। शुगों के काल की सांची तथा भरहुत से प्राप्त कलाकृतियों के आधार पर पुष्यमित्र के बौद्ध-द्रोही होने का मत स्पष्ट रूप से खण्डित हो जाता है। भरहुत की एक वेष्टिनी (Railing) पर 'सुगनंरजे.......' (शुंगों के राज्यकाल में) उत्कीर्ण है। इससे शुंगों की धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है। इस समय भरहुत तथा सांची के स्तूप न केवल सुरक्षित रहे अपितु राजकीय तथा व्यक्तिगत सहायता भी प्राप्त करते रहे।

कुछ विद्वानों का कहना है कि भरहुत तथा सांची की कलाकृतियों का निर्माण पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी शासकों ने करवाया था तथा इनसे उसकी धार्मिक सहिष्णता सिद्ध होती है। प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जी.आर. शर्मा के अनुसार कौशाम्बी स्थित घोषितराम विहार में विनाश तथा जलाये जाने के चिह्न प्राप्त होते हैं जो पुष्यमित्र की असहिष्णुता के ही परिचायक हैं। इसके विपरीत कलाविद् हेवेल का कहना है कि भरहुत तथा सांची के तोरणों का निर्माण दीर्घकालीन प्रयासों का परिणाम था जिसमें कम से कम 100 वर्षों से भी अधिक समय लगा होगा। अतः हम पुष्यमित्र को अलग करके मात्र उसके उत्तराधिकारी के काल में उनके निर्माण की कल्पना नहीं कर सकते। यद्यपि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध सम्राट की हत्या तथा ब्राह्मण धर्म को राज्याश्रय प्रदान करने के कार्यों से बौद्ध धर्म को गहरी चोट पहुँची। सम्भवतः कुछ बौद्ध भिक्षु शाकल में यवनों से जा मिले हों तथा उन्हीं देशद्रोहियों का वध करने वालों को पुरस्कार देने की घोषणा पुष्यमित्र शुंग द्वारा की गई हो। अतः साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से बौद्ध भिक्षुओं को दण्ड देना तत्कालीन समय की प्रमुख आवश्यकता थी। इस प्रकार, बौद्ध धर्म के साथ कठोर व्यवहार उसके यवनों के साथ सम्बन्धित होने के कारण ही हुआ।

अतः उपरोक्त विवरण के आधार पर यह नहीं कहा जा सकता है कि पुष्यमित्र शुंग बौद्ध-द्रोही था। स्वयं दिव्यावदान में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्त कर रखा था।

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