(8)
शुंग तथा कण्व वंश
(The Shungas and Kanvas)
अथवा
दीर्घ एवं लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न
1. शुंग कौन थे ? पुष्यमित्र का शासन प्रबन्ध लिखिये।
अथवा
पुष्यमित्र शुंग के राज्यकाल की प्रमुख घटनाओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
शुंग शासकों की राजनैतिक उपलब्धियों का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
अथवा
"पुष्यमित्र शुंग एक योग्य शासक था।'' समझाइये।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. शुंग कौन थे ? वर्णन कीजिए।
2. शुंगों के उत्कर्ष का वर्णन कीजिए।
3. पुष्यमित्र शुंग की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
4. पुष्यमित्र शुंग एवं ब्राह्मण धर्म का उत्कर्ष बताइए।
5. शुंग और बौद्ध धर्म पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ लिखिए।
6. अग्निमित्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
7. पुष्यमित्र शुंग के चरित्र तथा उपलब्धियो का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर -
शुंग वंश
अशोक की मृत्यु के पश्चात् मौर्य साम्राज्य में अनेक शासक हुए किन्तु कोई भी
शासक योग्य नहीं था। परिणामस्वरूप मौर्य साम्राज्य पतनोन्मुख हो गया।
हर्षचरित के अनुसार बृहद्रथ की हत्या पुष्यमित्र शुंग द्वारा हुई थी, जिस समय
राजा सेना का निरीक्षण कर रहा था, संभवतः बृहद्रथ अत्यन्त दुर्बल राजा था और
पुष्यमित्र को सारी सेना की पूरी सहायता उपलब्ध थी, नहीं तो सेना के सामने ही
खुले मैदान में वह अपने राजा को नहीं मार सका होता।
शुंग वर्ण से ब्राह्मण जान पड़ते हैं। विख्यात व्याकरणवेत्ता qपाणिनि ने इनका
संबंध भारद्वाज गोत्र से स्थापित किया है और आश्वालायन श्रौतसूत्र में शृंगों
को आचार्य कहा गया है। तारानाथ ने भी पुष्यमित्र को ब्राह्मण और किसी राजा का
पुरोहित बताया है। एक स्थान पर तो तारानाथ ने उसे 'ब्राह्मण राजा' तक कहा है।
वास्तव में शान्त और चिन्तक ब्राह्मण के इस शस्त्र धारण कर्म में किसी प्रकार
का अनौचित्य नहीं, क्योंकि आवश्यकता वश उनके शस्त्र ग्रहण का विधान मनु ने
किया है। फिर महाभारत के अश्वत्थामा के उदाहरण के अतिरिक्त हमें ग्रीक लेखकों
के प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं जिनसे सिद्ध है कि सिन्धु की निचली घाटी में
ब्राह्मणों ने सशस्त्र होकर सिकन्दर की राह रोकी थी। द्वितीय शताब्दी ई.
पूर्व के प्रथम चरण में इसी प्रकार यह भाग बाह्य आक्रमणों से आशंकित हो उठा
था और इस विपत्ति से उसकी रक्षा के लिए पुष्यमित्र ने तलवार उठायी। पतंजलि ने
'ब्राह्मण राज्य' को सर्वोत्तम कहा है।
पुष्यमित्र शुंग - पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र शुंग ने 184 ई.पू. के लगभग
मौर्य वंश का अन्त कर मगध का सिंहासन स्वायत्त कर लिया। शुंग वंश पर प्रकाश
डालने वाली ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम मात्रा में उपलब्ध होती है।
कालिदास का मालविकाग्निमित्रम, वापा का हर्षचरित और बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान
इस काल के इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। इस युग के प्रारम्भिक भाग पर प्रकाश
डालने वाले अभिलेख और मुद्रायें नहीं मिलती हैं। किन्तु इस वंश के पिछले
राजाओं के इतिहास के संबंध में अयोध्या, कोशाम्बी, अहिच्छत्र और मथुरा से
काफी संख्या में मुद्रायें उपलब्ध हुई हैं।
पुष्यमित्र शुंग का तिथिक्रम - पुराणों के अनुसार मौर्य वंश ने 137 वर्ष तक
राज्य किया। चंद्रगुप्त के राज्यारोहण की तिथि 322 ई. पू. मानी जाती है। अतः
पुष्यमित्र द्वारा की गयी सैनिक क्रान्ति से मौर्य वंश का अन्त 184 ई. पूर्व
के लगभग होगा। इसी समय पुष्यमित्र शुंग मगध की राजगद्दी पर बैठा था।
पुष्यमित्र का शासनकाल पुराणों में सामान्य रूप से 36 वर्ष का माना गया है।
अतः पुष्यमित्र के पाटलिपुत्र पर शासन करने की तिथि 184 ई. पूर्व मानी जाती
है। पुराणों में पुष्यमित्र को शुंगवंशी बताया गया है। प्राचीन परम्परा के
अनुसार शुंग वंश ब्राह्मण वर्ग से सम्बद्ध था। वैदिक साहित्य में अनेक
शुंगवंशी ब्राह्मण आचार्यों का उल्लेख है। बृहदारण्यक उनिषद (6-1-31) में
शौंगीपुत्र नामक आचार्य का उल्लेख मिलता है। अइवालायन श्रोतसूत्र शुंग
भारद्वाज गोत्र के ब्राह्मण थे। अतः पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र शुंगवंशी
ब्राह्मण प्रतीत होता है।
राज्यकाल की प्रमुख घटनायें - पुष्यमित्र के राजा होने के समय साम्राज्य की
स्थिति अत्यन्त दयनीय थी, चारों ओर विद्रोह तथा अधीनस्थ राज्य स्वतंत्र हो
रहे थे। उस परिस्थिति में उन पर नियंत्रण पाना नितान्त आवश्यक था। अतः
पुष्यमित्र ने सबसे पहले कोशल, वत्स, अवन्ति तथा मगध साम्राज्य के अधीनस्थ
राज्यों को संगठित किया और अवन्ति में शान्ति स्थापित करने के लिए विदिशा को
अपनी द्वितीय राजधानी बनाया और अपने पुत्र अग्निमित्र को वहां का राज्यपाल
नियुक्त किया। इस प्रकार उसने साम्राज्य को सुदृढ़ किया।
विजयें - पृष्यमित्र के राज्यपाल में पहली घटना विदर्भ से यद्ध की थी।
मालविकाग्निमित्रम के अनुसार विदर्भ का राजा अभी निकट पूर्व में ही स्थापित
हुआ था और नाटकों में वहां का राजा यज्ञसेन, जो मौर्य साम्राज्य का संबंधी
था, शुंगों का 'स्वाभाविक शत्रु' कहा गया है। जान पड़ता है कि बृहद्रथ के वध
के बाद जो अराजकता हुई उसमें यज्ञसेन को आत्मसमर्पण करने को कहा गया। इस
संघर्ष का क्रम सर्वथा स्पष्ट नहीं है, परन्तु इतना जान पड़ता है कि
पुष्यमित्र के पुत्र और विदिशा के शासक अग्निमित्र ने सफल शक्ति और नीति के
साथ विदर्भ के विरुद्ध लड़ाई की। यज्ञसेन के चचेरे भाई माधवसेन को उसने अपनी
ओर मिला लिया और फिर संघर्ष के अन्त में विदर्भ का राज्य उसने अपने आधिपत्य
में दोनों भाइयों के बीच बांट दिये।
कुछ विद्वानों के मत से यज्ञसेन की अपेक्षा पुष्यमित्र का अधिक भीषण शत्रु
कलिंग का राजा था। डॉ. स्मिथ ने यह माना है कि कलिंगराज खारवेल ने पुष्यमित्र
को हराया था और इस घटना का उल्लेख हाथीगुम्फा के शिलालेख में मिलता है। इसमें
वर्णित यह सतिमित नामक राजा वस्तुतः पुष्यमित्र ही है। क्योंकि बृहस्पति का
संबंध पुष्यमित्र और तिष्प नक्षत्रों से है। एक इतिहासकार ने खारवेल को
पुष्यमित्र का मित्र माना है। किन्तु डॉ. मजूमदार ने यह सिद्ध किया है कि
हाथीगुम्फा अभिलेख में जिन 6 अक्षरों को यह सतिमित पढ़ा गया है, वह ठीक नहीं
है। इन्हें दूसरे ढंग से भी पढ़ा जा सकता है।
यवन आक्रमण - पुष्यमित्र के राज्यकाल में ही एक दूसरी महत्वूपर्ण घटना हुई जो
यूनानियों का - आक्रमण था। इसकी जानकारी हमें कई प्रमाणों से प्राप्त होती
है। पहला प्रमाण पतंजलि का महाभाष्य है।
पतंजलि पुष्यमित्र के राजपुरोहित थे। यह बात उसके उस वचन से सूचित होती है
जिसमें उन्होंने पुष्यमित्र के यज्ञ का उल्लेख किया है। पतंजलि ने पाणिनि के
लङ्लकार के दो उदाहरण दिये हैं -
(क) अरुणद् यवनः साकेतम् अर्थात् यूनानियों ने अयोध्या पर घेरा डाला था।
(ख) अरुणद् यवनो माध्यमिकाम् अर्थात् यवनों ने माध्यमिका (चित्तौड़ के निकट
नगरी नामक स्थान) पर घेरा डाला। यह लकार भूतकाल की ऐसी प्रसिद्ध घटना के लिए
प्रयुक्त किया जाता है जोकि आंखों के सामने नहीं हुई थी, किन्तु यदि कोई उसे
देखना चाहता है तो वह उसे देख सकता था। इससे यही सूचित होता है कि यह यवन
आक्रमण पतंजलि के जीवन काल में हुआ था, उन्होंने इस आक्रमण को स्वयंमेव नहीं
देखा था किन्तु यदि वे इसे देखना चाहते तो साकेत और माध्यमिका में जाकर स्वयं
देख सकते थे।
दूसरा प्रमाण गर्गसंहिता का है इस संहिता का एक भाग युग प्रमाण है। इस ग्रन्थ
का समय पहली शताब्दी ई. पू. समझा जाता है। इसमें यूनानी (यवन) साकेत, पंचाल
और मथुरा पर आक्रमण करते हुए कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) तक पहुंच गये और वहां
पाटलिपुत्र के चारों ओर बने मिट्टी के परकोटे तक पहुंचने पर सब लोग घबरा गये।
तीसरा प्रमाण मालविका अग्निमित्र का है। इसमें पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेघ
यज्ञ का वर्णन है। इसका अश्व घूमते-घूमते सिन्धु नदी के दक्षिण तट पर पहुंचा।
यहाँ इसे यवनों ने पकड़ लिया, जिसके परिणामस्वरूप युद्ध छिड़ गया। इसमें
पुष्यमित्र शुंग के पौत्र बसुमित्र ने यवनों को पराजित किया और यज्ञीय अश्व
को छोड़ दिया इस प्रकार इन प्रमाणों के आधार पर पाटलिपुत्र शुंग के समय में
भारत पर आक्रमण होने के संबंध में कोई संदेह नहीं है। किन्तु यह आक्रमण कब
हुआ और इस यवन आक्रान्ता का क्या नाम था ? इस विषय में विद्वानों में प्रबल
मतभेद है क्योंकि उपर्युक्त सभी ग्रन्थों में कहीं भी यूनानी आक्रमणकारी का
कोई नाम नहीं दिया गया है।
सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक टार्न के मतानुसार यह यूनानी आक्रमण पुष्यमित्र के गद्दी
पर बैठने के बाद 180 ई. पूर्व में हुआ और 12 वर्ष बाद 168 ई. पू. में जब
यूनानियों के मूल देश बैक्ट्रिया में राजगद्दी के लिए गृहयुद्ध छिड़ा तब वे
वहाँ स्वदेश लौटे।
168 ई. पूर्व यूनानियों के वापस लौटने के हमारे पास निश्चित प्रमाण नहीं है।
पुष्यमित्र के समय किस यूनानी राजा ने आक्रमण किया इस विषय में पर्याप्त
मतभेद हैं। रैप्सन, स्मिथ और गोल्ड स्टकर यह मानते हैं कि इस यवन आक्रमण का
नेता मिनाण्डर था क्योंकि इस यूनानी राजा की मुद्राएँ भारतवर्ष के विभिन्न
स्थानों में पाई गई है।
दूसरा मत श्री रामकृष्ण गोपाल भंडारकर, श्री रायचौधरी तथा श्री के. पी.
जायसवाल का है। इनके मतानुसार यवन आक्रान्ता यूनानी राजा डिमेट्रियस था।
इसमें कोई सन्देह नहीं है कि किसी यूनानी राजा ने भारत पर आक्रमण किया था।
कुछ विद्वान डिमेट्रियस तथा मिनाण्डर को अन्य मानते हैं। स्ट्रेवो के अनुसार
दोनों ही महान विजेता थे और दोनों ने ही ग्रीक पताका दूर दूशों में फहराई थी।
अश्वमेध यज्ञ - अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान पुष्यमित्र के राज्यकाल की
महत्वपूर्ण घटना थी। मालविकाग्निमित्र और पतंजलि दोनों ने इसका उल्लेख किया
है। पतंजलि तो इस यज्ञ में स्वयं आचार्य बने। थे, जैसाकि उनके वक्तव्य "इह
पुष्यमित्रं यात्रयानः” (यहाँ हम पुष्यमित्र का यज्ञ कराते हैं) से प्रमाणित
है। पुष्यमित्र विदर्भ विजय के पश्चात् और यवनों के लौट जाने के पश्चात्
उत्तरी भारत का एकछत्र सम्राट बन गया। उसने अपनी प्रभुसत्ता की घोषणा करने के
लिए वैदिक युग से राजकीय गरिमा और दिग्विजय का प्रतीक समझे जाने वाले अश्वमेध
यज्ञ को संपन्न किया। अयोध्या में पाये गये धनदेव के अभिलेख में सेनापति
पुष्यमित्र को दो बार अश्वमेध यज्ञ करने वाला बताया गया है।
अपना दूसरा अश्वमेध यज्ञ पुष्यमित्र ने संभतः वृद्धावस्था में किया था।
मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि इस समय उसका पोता वसुमित्र तरुण हो
चुका था और वह 100 राजकुमारों के साथ अश्वमेध की रचना कर रहा था। उसके घोड़े
को कुछ यवन सैनिकों ने पकड़ लिया। संभवतः ये मिनाण्डर के सैनिक थे। वसुमित्र
ने यूनानियों को युद्ध में हराया और अश्वमेध यज्ञ सफलतापूर्वक संपन्न किया।
इस यज्ञ का किया जाना कई विद्वानों की दृष्टि से हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान
का सूचक है। अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को संरक्षण तथा प्रबल प्रोत्साहन देने से
इस मत का बड़ा उत्कर्ष और प्रसार हुआ था। कुछ समय तक इसके सम्मुख हिन्दू धर्म
दबा रहा, किन्तु पिछले मौर्य राजाओं की निर्बल, दब्बू और विदेशी आक्रमणों से
देश की रक्षा करने में असमर्थ नीति के द्वारा हिन्दू धर्म बहुत बदनाम हो गया।
इसलिए पुष्यमित्र ने इस वंश को समाप्त करने के लिए वृहद्रथ का वध करवाया और
हिन्दू धर्म को प्रबल प्रोत्साहन दिया। उसे वैदिककाल की यज्ञीय परम्परा को
पुनः आरम्भ करने वाला बताया गया है। हिन्दू धर्म का पुनरुत्थान करने के कारण
बौद्ध पुष्यमित्र से बहुत रुष्ट थे। अतः बौद्ध साहित्य में ऐसे अनेक वर्णन
मिलते हैं जिनके आधार पर यह कहा जाता है कि पुष्यमित्र ने बौद्धों का भीषण
दमन किया था।
राज्य विस्तार - यदि हम दिव्यावदान और तिब्बती इतिहासकार तारानाथ का प्रमाण
मानें तो यह स्पष्ट है कि पुष्यमित्र का अधिकार पंजाब में जालन्धर और शाकल
(श्यालकोट) पर भी स्थापित था। दिव्यावदान से विदित होता है कि पाटलिपुत्र
राजधानी बनी रही । अयोध्या के ऊपर पुष्यमित्र का अधिकार वहां पाये गये एक
अभिलेख से प्रमाणित होता है और मालविकाग्निमित्र के अनुसार पुष्यमित्र के
साम्राज्य में विदिशा और नर्मदा नदी तक के दक्षिणी प्रान्त भी शामिल थे। ऐसा
माना जाता है कि पुष्यमित्र ने अपने साम्राज्य का विभाजन कर दिया था जो वायु
पुराण के निम्नलिखित उल्लेख से स्पष्ट है -
पुष्यमित्र सुताश्चाष्टौ भविष्यन्ति समा नृपाः
अर्थात् पुष्यमित्र के आठों पुत्र सम्मिलित रूप से राज्य करेंगे।
शुंग और बौद्ध धर्म - दिव्यावदान के मतानुसार पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म का
कट्टर विरोधी था। उसने बौद्धों पर अत्यधिक अत्याचार किये। अपने ब्राह्मण
पुरोहित के परामर्श पर उसने बौद्ध मत के समर्थकों को समूल नष्ट करना अपना
कर्त्तव्य बना लिया था। सर्वप्रथम पुष्यमित्र ने पाटलिपुत्र के सुप्रसिद्ध
महान बौद्ध कुकुक्टराम का विध्वंस करने का निश्चय किया, उसने तीन बार इसे
नष्ट करने का प्रयास किया परन्तु तीनों बार उसे यहाँ दिल दहलाने वाला सिंहनाद
सुनाई दिया और वह भयभीत होकर वापस लौट आया। इसके बाद उसने अपनी सेना को बौद्ध
स्तूपों को नष्ट करने का, मठों को जलाने का और बौद्ध भिक्षुओं को मारने का
आदेश दिया। मध्य प्रदेश में इन्हें नष्ट-भ्रष्ट करता हुआ वह शाकल (श्यालकोट)
तक पहुंचा। यहाँ उसने घोषणा की कि जो व्यक्ति मुझे एक बौद्ध भिक्षु का सिर
काटकर देगा, मैं उसे पारितोषिक के रूप में 100 दीनार दूंगा। इस प्रकार उत्तरी
पश्चिमी भारत में बौद्ध धर्म पर भीषण अत्याचार करता हुआ वह दक्षिणी भारत की
ओर चला गया।
अतः यह स्पष्ट है कि बौद्ध लेखकों ने पुष्यमित्र के अत्याचारों के संबंध में
अत्यधिक अतिरंजित वर्णन लिखे हैं - यह संभव है कि पुष्यमित्र की हिन्दू धर्म
की समर्थन की नीति के कारण कुछ बौद्ध भिक्षुओं को कष्ट उठाना पड़ा हो, किन्तु
व्यापक रूप से बौद्धों पर अत्याचार करने की बात कल्पनामात्र प्रतीत होती है।
यह सम्भवतः ऐसे मस्तिष्क की उपज थी जो मौर्य वंश की समाप्ति के बाद बौद्ध
धर्म के राज्याश्रय से वंचित होने से तथा हिन्दू धर्म का राज्याश्रय प्राप्त
होने से अत्यन्त असन्तुष्ट और रुष्ट थे तथा हिंसा-प्रधान वैदिक यज्ञों के
कारण नवीन पद्धति को बुरा समझने लगे थे। फिर भी यह संभव है कि बौद्धों का इस
समय कुछ दमन किया गया हो। इसका एक कारण राजनीतिक था। भारतीय बौद्धों को
स्वाभाविक रूप से यह बात बुरी लगने लगी थी कि पुष्यमित्र ने उसके धर्म को
प्रबल संरक्षण देने वाले मौर्य वंश को समाप्त कर दिया था। अतः नवीन वंश के
प्रति उनकी भक्ति और आस्था संदिग्ध थी। संभवतः ये पंजाब में रहने वाले तथा
बौद्ध धर्म को स्वीकार करने वाले विदेश के यूनानी आक्रान्ताओं का साथ दे रहे
थे और पंचमांगी दल (Fifth Columnist) का कार्य कर रहे थे। इतिहासकार तारानाथ
का भी कहना है कि पुष्यमित्र बौद्ध विरोधियों का मित्र था, उसने विहार जला
दिये और भिक्षुओं का वध किया। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि पुष्यमित्र
ब्राह्मण धर्म का संरक्षक और उत्साही हितैषी था, परन्तु भरहुत (नागोद रियसत)
के बौद्ध स्तूप और वेदिका (वेण्टनी-रेलिंग) जिसका निर्माण शुंगों के शासनकाल
में हुआ था "निःसन्देह दिव्यावदान की कहानी के विरुद्ध पड़ते हैं और
पुष्यमित्र की असहिष्णुता को निर्मूल कर देते हैं। यदि यह माना जाये कि ऊपर
का उल्लेख पुष्यमित्र के संबंध में नहीं है तभी इस निष्कर्ष को बदला जा सकता
है।
ब्राह्मण धर्म का उत्कर्ष - ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा को बढ़ाना, जो कि
मौर्यकाल में समाप्त होने लगी थी पुष्यमित्र ने अपना मुख्य लक्ष्य बनाया था।
क्षत्रिय राजा अपनी दुर्बलता के कारण असंगठित थे। फलतः उसने मौर्य सम्राट
वृहद्रथ की हत्या कर ब्राह्मण धर्म को स्थापित किया। मनुस्मृति में
अप्रत्यछन्न रूप से शुंगों के इस कार्य का समर्थन करते हुए कहा गया है कि
"धर्म से विचलित राजा अपने बन्धु-बान्धवों सहित वध करने के योग्य होता है।''
अन्यत्र यह भी उल्लिखित है कि "ब्राह्मण सेनापति राजा तक हो सकता है। सम्भवतः
यह संकेत पुष्यमित्र शुंग का समर्थन करता है, और यह भी लिखा है कि 10 वर्ष के
ब्राह्मण के सामने 100 वर्षीय क्षत्रिय को झुकना चाहिए। इस तरह से इस युग में
ब्राह्मणों की स्थिति सुदृढ़ हो गयी थी।"
पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी - 36 वर्ष राज्य करने के बाद लगभग 148 ई. पू.
पुष्यमित्र का निधन हुआ। उसका पुत्र अग्निमित्र, जो विदिशा के शासक की हैसियत
से राजतंत्र में दक्ष हो चुका था, पिता की राजगद्दी पर बैठा। उसने केवल 8
वर्ष राज्य किया और तब शासन भार सम्भवतः उसके ज्येष्ठ भाई अथवा सिक्कों वाले
ज्येष्ठ मित्र के ऊपर पड़ा। उसके बाद अग्निमित्र का पुत्र वसुमित्र राजा हुआ।
वसुमित्र ने अपने पितामह के राजसूय यज्ञ के अवसर पर उसके अश्व की रक्षा की थी
और उसके भ्रमण के समय उसने यवनों को पराजित किया था। इस शुंगकाल के 10 राजा
हुए परन्तु शेष के संबंध में इतिहास प्रायः मूक है। इनमें से एक पंचवां ओद्रक
अंथवा जैसाकि कुछ विद्वानों का मत है, नवां भागवत संभवतः बेसनगर स्तम्भ लेख
का काशी पत्र भागभद ही है। इसी राजा की सभा में तक्षशिला के राजा ऐन्टी आल्की
डस (अन्त लिखित) ने दियन (दिय) के पुत्र हेलियोडोस्स (हेलिवोदोर) को अपना
राजदूत बनाकर भेजा था। हेलिवोडोर उस अभिलेख में अपने को 'भागवत' कहता है।
अग्निमित्र - यह पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था। इसने 8 वर्ष तक राज्य किया।
इसके विदिशा का शासक होने का उल्लेख कालिदास द्वारा रचित मालविकाग्निमित्र से
ज्ञात होता है। इसकी ताम्र मुद्रायें रुहेलखण्ड से मिली हैं। यह एक अनुभवी
तथा योग्य शासक था।
वसुश्रेष्ठ - इसकी मुद्राओं पर उसका नाम मिला है जो ज्येष्ठमित्र का
उत्तराधिकारी था। इसने सात वर्ष तक राज्य किया।
वसुमित्र - यह अग्निमित्र का पुत्र था तथा इसने 10 वर्ष तक शासन किया।
आद्रक - भागवत पुराण में इसे आद्रक और वायु पुराण में अन्ध्रक तथा मत्स्य
पुराण में अन्तक कहा गया है। इसकी शासन अवधि 2 वर्ष थी। पुलिन्दक, घोष,
वज्रमित्र ने क्रमशः 1, 3, 9 वर्ष तक राज्य किया था।
भागवत - यह 114 ई. पूर्व में गद्दी पर बैठा, जिसने 33 वर्ष तक राज्य किया।
देवभूति - यह 82 ई. पू. शुंग वंश की गद्दी पर बैठा। बाण के अनुसार एक शुंग
राजा सुन्दर स्त्रियों की संगति बहुत पसन्द करता था और अपनी एक दासी की
पुत्री के साथ मारा गया था। क्योंकि दासी ने रानी का वेष बनाकर देवभूति के
मंत्री वासुदेव के इशारे पर हत्या कर दी। इस प्रकार 73 ई. पू. वासुदेव गद्दी
पर बैठा और कण्व वंश की स्थापना की।
शुंगकाल का महत्व (Importance of Shunga Period) - शुंगकालीन इतिहास का
भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस काल में धर्म, साहित्य और कला के
क्षेत्र में व्यापक उन्नति हुई। इस बात से मुकरा नहीं जा सकता है कि शुंग
राजाओं ने यवन आक्रमण से राज्य को बचाया। यह कार्य केवल शुंगों के सुदृढ़
राज्य होने का परिणाम था, अन्यथा संपूर्ण उत्तरी भारत पर यवन छा जाते। डॉ.
स्मिथ के अनुसार अश्वमेघ यज्ञ का पुनरुद्धार पुष्यमित्र द्वारा 500 वर्षों
बाद पुनः गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त और उनके वंशजों के समय द्वारा उभरा, डॉ.
राय चौधरी के कथनानुसार "पुष्यमित्र शुंग के वंश का राज्य मध्य भारत के
इतिहास में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। इस राज्य को भयभीत करने वाले यवनों
के आक्रमण रुक गये और सीमा प्रान्त के यूनानियों ने अपने सेल्यूकसी पूर्वजों
की भांति सुलह की नीति अपना ली। कला, साहित्य और धर्म के क्षेत्र में अपार
उन्नति कर गुप्तकालीन संस्कृति के समान ही अपना स्थान सुरक्षित कर लिया।
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