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ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र

ईजी नोट्स

प्रकाशक : एपसाइलन बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2011
आईएसबीएन :0

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बी. ए. प्रथम वर्ष प्राचीन इतिहास प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।


चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध

चन्द्रगुप्त मौर्य ने एक विस्तृत राज्य की स्थापना की थी। उसने उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मैसूर तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर उत्तर-पश्चिम में अरब सागर तक अपने साम्राज्य का विस्तार किया जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

सैन्य संगठन - चन्द्रगुप्त ने अपने पूर्ववर्ती सम्राट से एक विशाल सेना विरासत में पायी थी। इसके अलावा इसने भी सेना में और वृद्धि की थी। अब इसकी सेना में 600,000 पदाति, 30,000 घुड़सवार तथा 9,000 हाथी और प्रायः 8,000 रथ थे। यह विशाल सेना एक युद्ध परिषद द्वारा शासित होती थी। इस परिषद के 30 सदस्य पाँच-पाँच की छ: समितियों में विभक्त थे। उनके विभिन्न विभाग निम्नलिखित थे -

समिति संख्या 1. नौ सेना
समिति संख्या 2. सेना, यातायात और आवश्यक युद्ध में सम्बन्धित वस्तुओं का विभाग
समिति संख्या 3. पदाति सेना
समिति संख्या 4. अश्व सेना
समिति संख्या 5. रथ सेना
समिति संख्या 6. गज सेना।

इनमें से अन्तिम चार विभाग भारतीय सेना के चार परम्परागत पदाति, अश्व; रथ और हाथी के अनुकूल हैं। कौटिल्य के अनुसार ये अपने-अपने आध्यक्षों के अधीन थे।

केन्द्रीय शासन

1. सम्राट - शासन प्रणाली राजतन्त्रात्मक थी। राजा समस्त शक्तियों का केन्द्र था, यद्यपि उसकी शक्तियाँ एवं अधिकार असीमित थे किन्तु फिर भी वह पूर्णरूपेण निरंकुश तथा स्वेच्छाचारी नहीं बन सकता था। मन्त्रिपरिषद का उस पर अंकुश रहता था। वह प्रधान सेनापति, प्रधान न्यायाधीश तथा प्रधान दण्डाधिकरी होता था। राजा विदेशों में राजदूतों की स्वयं नियुक्ति करता था। अर्थशास्त्र के अनुसार राजा के दरवाजे हमेशा प्रजा के लिए खुले रहते थे। राजा देश की सेना का प्रधान सेनापति अर्थात् सर्वोच्च अधिकारी होता था। विदेशी राजाओं के साथ सन्धि करने तथा उसे तोड़ने का अधिकार केवल राजा को था। कौटिल्य के अनुसार राजा प्रजा का ऋणी होता था जो अपने अच्छे शासन के द्वारा उस ऋण को उतारता था। राजा को रात्रि में मात्र 3 घण्टे सोना चाहिए। विलासिता तथा आराम राजा के लिए वर्जित था, तभी एक कुशल शासन व्यवस्था दे सकेगा। राजा का व्यवहार प्रजा के साथ पिता और पुत्र की भाँति होना चाहिए। प्रजा की प्रसन्नता पर राजा की प्रसन्नता पर निर्भर होनी चाहिए। कौटिल्य ने प्रजा का कर्तव्य राजा के प्रति क्या होना चाहिए उसे इस प्रकार बताया है - प्रजा को हमेशा राजा के गुण और दोषों पर ध्यान रखना चाहिए यदि राजा अन्याय करता है तो राज्य के ब्राह्मणों, साधुओं और जनता को उसके विरुद्ध होना चाहिए। जनता का क्रोध सर्वोपरि है। अतः जनता का राजा पर पूर्ण अधिकार होता है।

2. मन्त्रिपरिषद - राजा की सहायता अथवा सलाह देने के लिए एक कुशल मन्त्रिपरिषद की व्यवस्था की गयी थी। इसमें 12 से लेकर 20 तक मन्त्री रहते थे। मन्त्रिपरिषद के प्रत्येक सदस्य को 12,000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था । मन्त्रिपरिषद के सभी निर्णय बहुमत द्वारा लिये जाते थे। बैठकें गुप्त रूप से होती थीं तथा राजा मन्त्रिपरिषद के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं था।
3. अमात्य मण्डल - केन्द्रीय शासन को सुविधा की दृष्टि से कई भागों में विभक्त कर दिया गया था जिनको 'तीर्थ' कहा जाता था। प्रत्येक विभाग के अध्यक्ष को अमात्य कहा जाता था। कुल मिलाकर आमात्यों की संख्या 18 थी। ये आमात्य निम्नलिखित थे -

1. पुरोहित,
2. मंत्री,
3. सेनाध्यक्ष,
4. दण्डपाल,
5. दौवारिक अर्थात् द्वारपाल
6. युवराज,
7. दुर्गपाल,
8. अंतपाल अर्थात् सीमा रक्षाधिकारी,
9. अन्तपुर रक्षाधिकारी,
10. प्रशात्र अर्थात् कारागार अधिकारी,
11. सन्निधात्री अर्थात् राजकोष अस्त्रागार तथा कोष्ठागार का अधिकारी,
12. नायक तथा नगर का रक्षक,
13. समाहर्ता अर्थात् राज्य की सम्पत्ति एवं आय-व्यय का अधिकारी,
14. प्रदेष्टा,
15. व्यावहारिक अर्थात् प्रधान न्यायाधीश,
16. पौर अर्थात् कौतवाल,
17: मल्मी मण्डलाध्यक्ष और,
18. कार्मान्तरिक अर्थात् स्थान एवं कारखानों का अधिकारी।

प्रान्तीय शासन - सुविस्तृत साम्राज्य होने के कारण शासन की सुविधा के लिए राज्य अनेक भागों में विभक्त था। समीप के प्रान्तों का शासन तो राजा स्वयं करता था। मुख्य प्रान्तों का प्रबन्ध राजकुलीय 'कुमार' करते थे। मुख्य रूप से सम्पूर्ण राज्य निम्नलिखित चार प्रान्तों में विभक्त था -

1. पूर्वी प्रान्त - इसमें आधुनिक उत्तर प्रदेश, बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा सम्मिलित थे।
2. उत्तर पश्चिमी प्रान्त - वर्तमान पंजाब, सिन्ध, कश्मीर, ब्लूचिस्तान तथा अफगानिस्तान थे।
3. पश्चिमी प्रान्त - मालवा, गुजरात, काठियावाढ़ तथा राजस्थान प्रदेश सम्मलित थे।
4. दक्षिणी प्रान्त - विन्ध्याचल पर्वत से लेकर मैसूर तक के प्रदेश सम्मिलित थे।

तक्षशिला, तोशलि, सुवर्णगिरि और उज्जैन इसी प्रकार के प्रान्तीय शासन केन्द्र थे। सामंत नृपति सम्राट के आधिपत्य में रहते और आवश्यकता पड़ने पर सेना से उसकी सहायता करते थे। शासन का कार्य क्रमागत अध्यक्षों का वर्ग करता था जिसकी कार्यप्रणाली पर चर और अन्य कर्मचारी कड़ी दृष्टि रखते थे। इस प्रकार के चर कार्य तथा रोध प्रतिरोध सुदूर प्रान्तों की प्रजा को कर्मचारियों की धांधली से रक्षा करने में सहायक होते थे। राजा को बराबर हर बात की खबर मिलती रहती थी।

गुप्तचर विभाग - गुप्तचर प्रणाली अत्यन्त ही सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार गुप्तचरों के निम्नलिखित दो वर्ग थे -

1. संस्थान - इस वर्ग के गुप्तचरों को कापटीक, गृहपतिक, तापस वैदेहक आदि नामों से पुकारा . जाता था। ये एक ही स्थान पर रहते थे।
2. संचारण - इस वर्ग के गुप्तचर ज्योतिष, साधु आदि के वेष में घूम-घूमकर गोपनीय सूचनाओं को सम्राट तक पहुँचाते थे।

गणिकाओं द्वारा भी गुप्तचरों के कार्यों का उल्लेख मिलता है। राजा महल से लेकर महामात्यों, पुरोहितों, सेनापतियों तथा राजकुमारों के कार्यों पर गुप्तचर दृष्टि रखते थे। छाया की भाँति सर्वत्र गुप्तचर पदाधिकारियों पर नजर रखते थे। गुप्तचरों को गूढ़ पुरुष भी कहा जाता था।

नगर शासन - मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र की शासन व्यवस्था पर्याप्त विस्तार से दी है। वर्णन तो उसका केवल पाटलिपुत्र के सम्बन्ध में है परन्तु इससे यह अनुमान लगाना कि अन्य बड़े नगर भी इसी प्रणाली से शासित होते होंगे कुछ अनुचित न होगा | ग्रीक राजदूत लिखता है कि नगर का शासन पाँच-पाँच सदस्यों की छ: समितियाँ करती थीं। वी. ए. स्मिथ की राय में से समितियाँ साधारण गैर-सरकारी, धनिक पंचायतों का सरकारी (वैधानिक) विकास थीं। इन समितियों का वर्णन निम्नलिखित हैं -
पहली समिति - यह समिति औद्योगिक शिल्पों का निरीक्षण करती थी। वस्तुओं के बनाने में उचित सामग्री के प्रयोग के अनुशासन करने तथा उचित पारिश्रमिक स्थिर करने के अतिरिक्त शिल्पियों की रक्षा इसका विशेष कर्तव्य था। शिल्पी के अंगों को क्षति पहुँचाने वाले को प्राणदण्ड मिलता था।
दूसरी समिति - यह समिति विदेशियों की गतिविधियों देखती थी और उनकी आवश्यकताओं का प्रबन्ध करती थी। उनको ठहराने के लिए आवास तथा बीमारी में आवश्यकतानसार औषधि भी दी जाती थी। उनकी मृत्यु होने पर उनके दाहकर्मादि का समिति प्रबन्ध करती और उनकी सम्पत्ति उनके वारिसों को दे देती थी। इससे सिद्ध होता है कि राजधानी में विदेशियों की संख्या काफी थी।
तीसरी समिति - यह समिति जन्म-मरण की रजिस्ट्री करती थी। इससे करादि के लिए जनसंख्या के सम्बन्ध में सरकार को ज्ञात होता था।
चौथी समिति - यह समिति व्यापार का प्रबन्ध करती थी। यह समिति विक्रय की वस्तओं का अनुशासन करती थी और दूषित वाट वटखरों पर कर लगाती थी, जो एक से अधिक वस्तुओं का व्यापार करता था उसे उसी औसत से अधिकतर कर देना पड़ता था।
पाँचवीं समिति - यह समिति कारखाने के मालिकों पर अनुशासन रखती और यह देखती थी कि। पुरानी और नई वस्तुएं एक साथ मिलाकर न बेच दी जायें। ऐसा करने वाले को शुल्क दण्ड देना पड़ता था।
छठी समिति - यह समिति बिकी हुई वस्तुओं पर कर वसूल करती थी। इस कर से बचने का प्रयत्न अभियुक्त को प्राणदण्ड का भागी बनाता था, विशेषकर जब यह कर दृव्य सम्बन्धी होता था। परन्तु अनजाने में किया हुआ अपराध निश्चित दण्डों से बढ़ता जाता था।
इस प्रकार नगर शासन इसके अतिरिक्त मन्दिरों, बंदरगाहों और अन्य सार्वजनिक संस्थाओं का भी प्रबन्ध करता था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इनमें से किसी शासन समिति का उल्लेख नहीं है। उसके विधान में नगर का शासक नागरिक अथवा नगराध्यक्ष है, जिसके नीचे स्थानिक और गोप नामक पदाधिकारी थे। स्थानिक नगर के चौथाई और गोप केवल कुछ किलों के ऊपर नियुक्त था।
पाटलिपुत्र - यहाँ साम्राज्य की राजधानी के सम्बन्ध में भी कुछ विवरण देना आवश्यक हो जाता है। पाटलिपुत्र के मेगस्थनीज ने अपनी पुस्तक पालिम्बोभ्रा में बताया है कि पूर्व के देशों में अधिष्ठित 'भारत का सबसे बड़ा नगर था'। यह 30 मील (80 स्टैडिया) लम्बा और प्रायः पौने दो मील (15 स्टैडिया) चौड़ा था। यह शोण तथा गंगा से निर्मित संगम पर स्थित था। इसकी रक्षा के लिए 600 फीट से अधिक चौड़ी तीस हाथ गहरी खायी इसके चारों ओर दौड़ती थी। इसके अतिरिक्त एक ऊंची प्राचीर भी थी जिसमें 570 बुर्जियाँ और 64 द्वार थे। साम्राज्य के अन्य बड़े नगरों में भी निस्सन्देह इसी प्रकार का रक्षा प्रबन्ध था।

ग्राम शासन - ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। ग्राम का प्रबन्ध ग्राम का मुखिया करता था जिसे ग्रामिक कहा जाता था। यह गाँव के लोगों द्वारा चुना जाता था परन्तु राज्य की ओर से कोई वेतन इसे नहीं प्राप्त होता था। मुखिया के समान उच्च पद गोप का होता था जो 10 ग्रामों की देखभाल करता था। स्थानिकों का कार्यक्षेत्र जनपद था जिसे जिले के चौथे भाग पर नियन्त्रण रखना होता था।

न्याय व्यवस्था (Administration of Justice) - न्याय विभाग का सबसे बड़ा अधिकारी राजा होता था। न्यायालय निम्नलिखित दो प्रकार के होते थे -

1. धर्मस्थलीय न्यायालय - इसमें दीवानी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था।

2. कण्टकशोधन - इसमें फौजदारी सम्बन्धी मामलों का निर्णय होता था। इसके अलावा जनपद सन्धि न्यायालय में दो गाँवों के आपसी झगडों का फैसला होता था। द्रोणमख चार न्यायालय होता था। राजुक जनपद के न्यायालय का न्यायाधीश होता था। व्यावहारिक महामात्र नगर का न्यायाधीश होता था।

दण्डनीति - मेगस्थनीज और कौटिल्य दोनों ने दण्डनीति की कठोरता का उल्लेख किया है। साधारणतः अभियुक्त शुल्क (जुर्माने) से दण्डित होते थे। परन्तु इसके अतिरिक्त भीषण दण्डों की भी कमी न थी। शिल्पी की अंग हानि करने अथवा विक्रय सम्बन्धी राज-कर को जानबूझकर न देने का दण्ड प्राणदण्ड था। इसी प्रकार विश्वासघात और व्यभिचार का दण्ड अंगच्छेद था। राजकर्मचारी की हल्की चोरी के लिए भी कौटिल्य ने प्राणदण्ड का विधान दिया है। अभियुक्तों और अपराधियों से अपराध स्वीकार कराने के लिए विविध यातनाओं का प्रयोग होता था। इसमें सन्देह नहीं कि दण्डनीति कठोर थी, परन्तु इसकी कठोरता ही अपराधों के अवरोध में भी पर्याप्त सफल हुई होगी।

सिंचाई व्यवस्था - चन्द्रगप्त मौर्य ने सिंचाई के सम्बन्ध में विशेष प्रयास किया था। मेगस्थनीज ऐसे अधिकारियों का उल्लेख करता है कि जिनका कर्तव्य भूमि को नापना और उन छोटी नालियों का निरीक्षण करना था जिनमें होकर पानी सिंचाई की नहरों में जाता था जिससे प्रत्येक व्यक्ति को अपना सही भाग मिल सके। अपनी प्रजा के कल्याण के लिए चन्द्रगुप्त ने सुदूर सौराष्ट्र के प्रान्तीय शासक के द्वारा एक पर्वतीय नदी के जल को रोककर सुदर्शन नाम की झील बनवाई जो सिंचाई के लिए उपयोगी सिद्ध हुई।

आय-व्यय का साधन - आय का प्रमुख साधन भूमि-कर था। इस राज कर को भाग कहते थे। कर भूमि की उपज का छठा हिस्सा था यद्यपि उसका अनुपात स्थान और परिस्थितियों के अनुकूल घटता-बढ़ता रहता था। भूमि के अतिरिक्त आय के साधन अग्रलिखित थे - आकर, वन, सीमाओं पर चुंगी, घाटों पर कर, पेशेवर आचार्यों और विशेषज्ञों से शुल्क (फीस), विक्रय की वस्तुओं आदि पर कर और टैक्स, दण्ड के शुल्क (जुर्माने) और राज्य की अनिवार्य आवश्यकता के लिए विशेष कर थे। आय को एकत्र करने वाला अधिकारी समाहर्ता कहलाता था। इस प्रकार संचित की हुई आय का व्यय अनेक प्रकार के सार्वजनिक आवश्यकताओं और राजा की व्यक्तिगत जरूरतों पर होता था। ये निम्नलिखित थे

1. राजा और उसका दरबार,
2. सेना,
3. राज्य की रक्षता,
4. राज्य कर्मचारियों के वेतन,
5. शिल्पियों और दूसरे कर्मचारियों को पुरस्कार,
6. दान,
7. धार्मिक संस्थाओं आदि सार्वजनिक उपयोगिता के साधन; सड़कें, सिंचाई इत्यादि।

राजकीय व्यय - चाणक्य के अर्थशास्त्र से राजकीय व्यय की जानकारी मिलती है - जिसमें राजकर्मचारियों का वेतन, सैनिक व्यय, शिक्षा, दान सहायता, सार्वजनिक आमोद-प्रमोद, सार्वजनिक हित कार्य आदि प्रमुख थे।

मेगस्थनीज और वर्ग - मेगस्थनीज ने अपने वृत्तान्त में भारतीय समाज को सात वर्गों में विभक्त किया था। इनमें से।

पहला वर्ग - दार्शनिकों का था, यद्यपि इसकी संख्या अधिक नहीं थी परन्तु इसका सम्मान अधिक था। स्पष्टतः इस वर्ग के अन्तर्गत ब्राह्मण और साधु-सन्यासी थे।
दूसरा वर्ग - कृषकों तथा पशुपालकों का था, जिनकी संख्या सबसे अधिक थी।
तीसरा वर्ग - शिकारियों तथा सेवकों का था।
चौथा वर्ग - व्यापारी, शिल्पी, माँझी आदि आते थे।
पंचम वर्ग - क्षत्रिय योद्धाओं का था।
षष्ठ वर्ग तथा सप्तम वर्ग - इसमें मेगस्थनीज ने क्रमशः चर और मन्त्री गिने हैं।
ग्रीक राजदूत मेगस्थनीज का यह वर्णन प्रमाणतः अशुद्ध तथा दोषपूर्ण है। मेगस्थनीज स्पष्टतः भारतीय सामाजिक व्यवस्था को न समझ सकने के कारण यहाँ भूल बैठा था।

राजप्रसाद - चन्द्रगुप्त का जीवन बड़े वैभव और तड़क-भड़क का था। उसने अपने निवास के लिये विशाल राजप्रासाद का निर्माण कराया था। यह राजप्रासाद सुविस्तृत पार्क के मध्य खड़ा था। उसमें सुनहरे खम्भे थे और कृत्रिम मत्स्य तालाब और हरियाली से ढके मार्ग थे। यह भवन अत्यन्त आकर्षक था और इसकी सुन्दरता सूसा और एकवताना के महलों से भी बढ़कर थी। काष्ठ निर्मित होने के कारण काल के प्रभाव और ऋतुओं के आक्रोश को न सह सका। इसके भग्नावशेष आधुनिक पटना के समीप कुस्रहार नामक गाँव में डा. स्थूनर ने खोद निकाले थे। इनका एक भाग सम्भवतः चन्द्रगुप्त के राजभवन के सौ खम्भों वाले हाल का था।

चन्द्रगुप्त मौर्य का अन्त - बौद्ध साहित्य के अनुसार मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य ने लगभग 24 वर्ष तक सफलतापूर्वक शासन किया। जैन साहित्य के अनुसार चन्द्रगुप्त ने अपने अन्तिम दिनों में राज-काज को अपने पुत्र को सौंपकर जैन धर्म को स्वीकार किया और जैन भिक्षु भद्रवाहु के साथ मैसूर चला गया। वहीं संन्यासियों का जीवन व्यतीत करते हुए 298 ई. पूर्व के लगभग उसकी मृत्यु हो गयी।

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