प्रश्न 2 - चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में आप क्या जानते हैं ? उसकी
उपलब्धियों और शासन व्यवस्था पर निबन्ध लिखिए।
अथवा
मौर्य शासन पर एक विस्तृत टिप्पणी लिखिए।
अथवा
चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
अथवा
चन्द्रगुप्त मौर्य का जीवन-परिचय देते हुए उसकी सफलताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
राजा चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्कर्ष समझाइये।
2. चन्द्रगुप्त की शिक्षा-दीक्षा का वर्णन कीजिए।
3. चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस के साथ हुए युद्ध का वर्णन कीजिए व सन्धि की
शर्ते भी बताइए।
4. चन्द्रगुप्त मौर्य की पश्चिमी भारत की विजय का वर्णन कीजिए।
5. चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध कैसा था ?
6. चन्द्रगुप्त मौर्य की गुप्तचर व्यवस्था किस प्रकार की थी ?
7. चन्द्रगुप्त मौर्य की न्याय व्यवस्था का वर्णन कीजिए।
8. चन्द्रगुप्त मौर्य के आय व व्ययों पर टिप्पणी कीजिए।
9. चन्द्रगुप्त मौर्य का मूल्यांकन कीजिए।
10. चन्द्रगुप्त महानतम् सम्राट था। समझाइए।
11. सेल्युकस कौन था ?
12. चन्द्रगुप्त मौर्य की उपलब्धियों का विवेचन कीजिए।
उत्तर -चन्द्रगुप्त मौर्य का उत्कर्ष (345 ई. पू. के लगभग) चतुर्थ शती ई.
पूर्व के अन्तिम चरण के आरम्भ में उत्तर भारत की राजनैतिक दशा अत्यन्त
डाँवाडोल थी। मगध में घननन्द के बलपूर्वक कर ग्रहण, उसके असीम लोभी,
अत्याचारी और नीच कुलीय होने के कारण नन्द वंश पतनोन्मुख था और पंजाब की जनता
और उसके राष्ट्र सिकन्दर की निर्दयता से अब भी कराह रहे थे। परिणामतः साहसी
राजनीतिक पण्डितों और महत्वाकांक्षियों के लिए असीम क्षेत्र मिल गया।
चन्द्रगुप्त जनता के असन्तोष को अपना अस्त्र बनाकर नियति के मार्ग पर बढ़
चला। जान पड़ता है कि उसकी सेवा में पहले की सेना में एक सेनापति था परन्तु
अपने स्वामी के दुर्व्यवहार के कारण असन्तुष्ट होकर उसने विद्रोह का झण्डा
उठाया। इस कार्य में प्रसिद्ध कूटनीतिज्ञ विष्णुगुप्त अथवा चाणक्य से भी, जो
साधारण अवमानना से नन्दराज से कुपित हो गया था उसे सक्रिय सहयोग मिला परन्तु
उनका षड्यन्त्र विफल हुआ और उनको प्राणों की रक्षा के लिए भागना पड़ा। महावंश
टीका में बताया गया है कि चन्द्रगुप्त अज्ञातवास में एक वृद्धा की झोपड़ी में
छिपा हुआ था तब उसने उसे रोटी खाते हुए बच्चे को उसका हाथ जल जाने के कारण
झिड़कते सुना, वृद्धा ने कहा कि गरम फुलके खाते समय किनारे से तोड़ना चाहिए
बीच में हाथ लगाने से हाथ जल ही जायेगा। चन्द्रगुप्त ने इससे यह सबक सीखा कि
उसको राजधानी को सीधा निशाना नहीं बनाना चाहिए बल्कि राज्य की सीमा को पहले
अपने कब्जे में लाने की कोशिश करनी चाहिए। इस पर चन्द्रगुप्त ने तत्कालिक
केन्द्र पश्चिमोत्तर सीमा को बनाया।
सिकन्दर से भेंट - इतिहास के साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिकन्दर उस समय
पंजाब में ही था' जब चन्द्रगुप्त ने उसे मगध के विरुद्ध भड़काने के विचार से
उससे मिला, परन्तु सिकन्दर के दर्पयुक्त वाक्यों ने चन्द्रगुप्त को पीछे हटा
दिया इस कारण चन्द्रगुप्त वहाँ से वापस हो गया था। सिकन्दर के वापस हो जाने
पर चन्द्रगुप्त ने अपना गुप्तवास समाप्त किया।
चन्द्रगुप्त की शिक्षा-दीक्षा - आचार्य चाणक्य ने एक बार कुछ बालकों के समूह
में एक बालक को खेलता देखा। बालक बड़ा ही होनहार और योग्य था उसे तक्षशिला
लाकर शिक्षित किया। चन्द्रगुप्त ने कम से कम 8 वर्ष तक सैन्य प्रशिक्षण
तक्षशिला में प्राप्त किया था। आचार्य चाणक्य वाद-विवाद में सम्मिलित होने
पाटलिपुत्र जाया करता था। इसी बीच एक श्राद्ध के अवसर पर चाणक्य को नन्द राजा
धननन्द के प्रासाद में भोजन ग्रहण करने के लिए जाने का मौका मिला परन्तु राजा
ने चाणक्य का अपमान कर उसे भोज स्वीकार के लिए इन्कार कर दिया तथा उसका अपमान
करते हुए कहा कि तू कौन है ? काला चाण्डाल की आकृति में यहाँ कैसे आ गया ? इस
तिरस्कार को चाणक्य कैसे सहन कर सकता था, इस पर चाणक्य ने अपनी शिखा खोलकर
शपथ ली - "जब तक मैं नन्दवंश को समूल नष्ट नहीं कर लूंगा तब तक मैं अपनी इस
शिखा को नहीं बांधूंगा। इस बात की जानकारी बौद्ध ग्रन्थ महावंश से होती है।
नन्दों पर असफल आक्रमण - सर्वप्रथम चन्द्रगुप्त और चाणक्य ने मिलकर नन्दों पर
आक्रमण किया, परन्तु उन्हें बुरी तरह परास्त होना पड़ा और प्राण बचाकर भागना
पड़ा। इसी प्रकार के जैन ग्रन्थ परिशिष्य प्रमाण से ज्ञात होता है कि एक
बच्चा जो अत्यधिक लालची था और जो खीर को थाली में किनारे से न खाकर बीच से ही
खाने लगा। इस कारण उसका हाथ जल गया। उसी प्रकार चन्द्रगुप्त ने भी सीमान्त
प्रान्तों को छोड़कर केन्द्र पर आक्रमण किया जिसके फलस्वरूप उसे पराजित होना
पड़ा था। अतः चन्द्रगुप्त ने अपनी नीति में परिवर्तन किया था।
सीमान्त प्रान्तों में विद्रोह - सिकन्दर के वापस जाते ही सीमान्त प्रान्तों
में क्षत्रपों की हत्या कर दी गयी। ग्रीक लेखक जस्टिन के अनुसार सिकन्दर की
मृत्यु के पश्चात् भारत ने पराधीनता के जुएं को अपने कन्धे से उतार फेंका और
उस (सिकन्दर) के द्वारा नियुक्त शासकों की भी हत्या कर दी गयी। इस स्वाधीनता
की स्थापना सेन्ड्राकोट्स अर्थात् चन्द्रगुप्त के द्वारा की गयी थी।
विशाल सैन्य संगठन - भारत में मौर्य साम्राज्य की स्थापना करने के लिए यह
आवश्यक था कि एक विशाल सेना का संगठन किया जाय। अतः चन्द्रगुप्त ने एक विशाल
सेना को संगठित किया। विशाखदत्त, मुद्राराक्षस नाम ग्रन्थों में उसकी सेना की
पुष्टि होती है। उसकी सेना में शक, पवन, किरात, कम्बोज, पारसीक, वाहलीक आदि
सेनाएं थीं जिन्हें आचार्य चाणक्य ने अपने वश में कर रखा था।
चन्द्रगुप्त की विजयें - दुर्भाग्यवश चन्द्रगुप्त के युद्धों का पूर्ण
वृत्तान्त नहीं प्राप्त होता है। ग्रीक लेखक प्लूटार्क तथा जस्टिन के अनुसार
चन्द्रगुप्त की सेना सम्पूर्ण भूमि पर अपना अधिकार करना चाहती थी।
चन्द्रगुप्त ने मगध और पंजाब के अतिरिक्त अपने राज्य की सीमा भारत के
प्रदेशों पर भी बढ़ा ली थी। सौराष्ट्र का उसके राज्य के अन्तर्गत होना
रुद्रदामन के जूनागढ़ वाले शिलालेख से प्रमाणित होता है। इस लेख में
चन्द्रगुप्त की सिंचाई योजना और उस प्रान्त के लिए पुष्पगुप्त वैश्य की
'राष्ट्रीय' के पद नियुक्ति का उल्लेख है। तमिल लेखक यामुलनार और परणार
टिन्नेवल्ली जिले के पोदियिल पर्वत तक सुदूर दक्षिण पर मौर्य आक्रमण का
उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार जैन अनुश्रुति और कुछ उत्तरकालीन अभिलेख भी
उत्तर मैसूर के साथ चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध प्रमाणित करते हैं। इससे
चन्द्रगुप्त द्वारा भारत के एक बड़े भाग की विजय सिद्ध होती है।
सीमान्त प्रान्तों की विजय - चन्द्रगुप्त ने सर्वप्रथम सीमान्त प्रान्तों पर
विजय प्राप्त की, इसके पश्चात् उसने मगध साम्राज्य पर आक्रमण किया। सीमा
प्रान्तों के क्षेत्र में विजय का श्रेय चन्द्रगुप्त के साथ चाणक्य को भी है।
दूसरी बार चन्द्रगुप्त मौर्य ने विशाल सेना के द्वारा मगध पर आक्रमण किय
सम्राट नन्द तथा चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच युद्ध का विस्तृत विवरण नहीं मिलता
है फिर भी युद्ध की भयंकरता का आभास बौद्ध साहित्य और ग्रीक लेखकों के
विवरणों से ज्ञात होता है कि नन्द के पास विशाल सेना थी जिसमें 10,000 पैदल,
20,000 घुड़सवार, 2,000 रथ और 3,000 हाथी थे। कर्टियस के अनुसार नन्द की सेना
में केवल 6 लाख पैदल सेना थी। बौद्ध ग्रन्थ मिलिन्दपन्हो के अनुसार इस युद्ध
में 100 कोटि पैदल, 10 हजार हाथी, 1 लाख घुड़सवार और 5 हजार रथ काम आये थे।
यद्यपि उपर्युक्त विवरण में अतिशयोक्ति है फिर भी युद्ध की भयंकरता का आभास
होता है। इस युद्ध में अपार धन-जन की हानि हुई। परिशिष्ट पर्व में लिखा है कि
नन्द की सेना की युद्ध करते-करते जब धन, शक्ति और यहाँ तक बुद्धि भी नष्ट हो
गयी तब उसने चाणक्य और चन्द्रगुप्त के आगे आत्म-समर्पण कर दिया तथा चाणक्य ने
नन्द को अपनी पत्नी और पुत्री सहित एक रथ पर जितनी सम्पत्ति आ सकती थी उसे
लेकर राज्य के बाहर चले जाने को कहा। परन्तु जैन ग्रन्थों के अनुसार नन्द की
मृत्यु युद्ध में लड़ते हुए हुई थी।
सिंहासनारोहण - नन्द वंश को समाप्त कर चन्द्रगुप्त आचार्य विष्णुगुप्त की
सहायता से मगध के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ। सिंहासनारोहण की विधि में परस्पर
मतभेद होने के पश्चात् भी 323 ई. या 322 ई. पूर्व के मध्य में सिंहासनारोहण
मान्य है। चन्द्रगुप्त भारतीय इतिहास में पहला सम्राट था जिसने अपने गुरु एवं
मन्त्री विष्णुगुप्त की सहायता से भारत को यूनानी शक्तियों से मुक्त कराया,
इसके पश्चात् मगध के नन्दवंशी राजा धनन्द को सिंहासन से उतार कर मगध राज्य
छीन लिया तथा मौरिया के यूनानी शासक सेल्यूकस को पराजित कर उसे सन्धि के लिए
मजबूर किया था।
सेल्यूकस सिकन्दर का सेनापति था। जिस समय चन्द्रगुप्त भारत की विजय करने में
लगा हुआ था, उसी समय सेल्यूकस भारत पर आक्रमण करने की तैयारियाँ कर रहा था।
उसने सिकन्दर का अनुकरण करना चाहा और सिन्धु के इस पार के प्रान्तों पर
यूनानी सत्ता कायम करने का प्रयत्न किया, किन्तु इस समय तक भारत की राजनीतिक
परिस्थिति बदल चुकी थी। 305 ई. पू. के लगभग सेल्यूकस सिन्धु के तट पर पहुँचा।
उसने आतंकित होकर चन्द्रगुप्त से सन्धि कर ली। सन्धि की शर्तों से यह अनुमान
लगाया जा सकता है कि उसकी अवश्य करारी हार हुई होगी। उसने चन्द्रगुप्त को
एरिया (हिरात), अराकोजिया (कान्धार), परोपनिषदै (काबुल की घाटी) तथा गडरोजिया
(बलूचिस्तान) के चार प्रान्त दे दिए और अपनी पुत्री का विवाह भी उसके साथ कर
दिया। उपहार में चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी सेल्यूकस को दिए। इसके बाद सेल्यूकस
ने मौर्य दरबार से सदैव मित्रतापूर्व सम्बन्ध बनाए रखे और अपना मैगस्थनीज
नामक एक राजदूत भेजा, जो पाटलिपुत्र में दीर्घकाल तक रहा।
मेगस्थनीज और कौटिल्य - मेगस्थनीज और कौटिल्य महत्वपूर्ण तात्कालिक लेखक तथा
विचारक थे जिसके ग्रन्थ चन्द्रगुप्त मौर्य की प्रजा, शासन प्रबन्ध एवं
व्यवस्था तथा भारतीय संस्थाओं पर गहराई से प्रकाश डालते हैं। मेगस्थनीज की
इण्डिका अब प्राप्य ग्रन्थ नहीं है परन्तु यह पाश्चात्य लेखकों के लम्बे
उद्धरणों में अब भी प्रायः सुरक्षित है। चाणक्य के चन्द्रगुप्त का महामन्त्री
होने के कारण इसके साहित्य से मौर्यकालीन इतिहास की पूर्ण रूप से जानकारी
मिलती है।
पश्चिम भारत की विजय - चन्द्रगुप्त ने पश्चिम में सौराष्ट्र तक विजय प्राप्त
कर ली थी जिसका उल्लेख रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है। इस
अभिलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सौराष्ट्र में विजय प्राप्त कर वहाँ अपना
गवर्नर पुष्यगुप्त को नियुक्त किया था। सौराष्ट्र प्रान्त के दक्षिण में
सोपारा नामक स्थान से चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक का अभिलेख प्राप्त हुआ है,
परन्तु अशोक अपने अभिलेखों में इस प्रदेश को जीतने का दावा नहीं करता। अतः
इससे निष्कर्ष निकलता है कि वह प्रदेश भी चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा विजित
किया गया था। डा. एच. सी. राय चौधरी ने चन्द्रगुप्त मौर्य की पश्चिम विजय का
समर्थन किया है।
दक्षिण भारत की विजय - चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा दक्षिण भारत की विजय के बारे
में विद्वानों में परस्पर मतभेद हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार दक्षिण की विजय
चन्द्रगुप्त ने तथा उसके पुत्र बिन्दुसार ने मिलकर की थी, परन्तु हेमन्त राय
चौधरी का दृष्टिकोण विपरीत है, उनके अनुसार दक्षिण की विजय नन्द राजाओं ने की
थी। वे लिखते हैं, "गोदावरी के तट पर नौनन्द देहरा नामक नगर से यह सिद्ध होता
है कि नन्द का राज्य दक्षिण के अत्यधिक भू-भाग को अपने में विलीन कर चुका था।
इसके अलावा तमिल साहित्य में भी नन्द राजाओं की अतुल सम्पत्ति का उल्लेख
मिलता है। मैसूर शिलालेख से ज्ञात होता है कि नन्द साम्राज्य मैसूर राज्य के
कुन्तल प्रान्त तक फैला था। जैन ग्रन्थों के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का
दक्षिण से अवश्य सम्बन्ध था उसने दक्षिण विजय अवश्य की थी। सम्राट अशोक के
शिलालेख भी चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण विजय को प्रमाणित करता है। प्लूटार्क
का यह कथन सत्य साबित होता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने 6 लाख सेना के साथ
सम्पूर्ण भारत को आक्रान्त किया था।
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