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मौर्य साम्राज्य का उदभव
(Rise of Maurya Empire)
दीर्घ एवं लघु उत्तरीय प्रश्न प्रश्न
1. मौर्य कौन थे ? इस वंश के इतिहास जानने के स्रोतों का उल्लेख कीजिए तथा
महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा
मौर्य साम्राज्य के जानने के स्रोत क्या हैं ?
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. मौर्य कौन थे ? व्याख्या कीजिए।
2. मौर्य वंश का क्या महत्व है ?
3. चन्द्रगुप्त कौन था ?
4. चाणक्य के 'अर्थशास्त्र' पर टिप्पणी लिखिए।
5. मेगस्थनीज की 'इण्डिका' के बारे में आप क्या जानते हैं ?
6. मौर्य वंश को जानने के प्रमुख स्रोतों को बताइये।
उत्तर - मौर्य कौन थे ?-सिकन्दर के लौटते ही भारत के राजनीतिक आकाश में एक
नये नक्षत्र का उदय हुआ जिसने अपने तेज से अन्य सारे नक्षत्रों को मलीन कर
दिया था, वह था मौर्य वंश का . संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य। स्पूनर के अनुसार
मौर्य पारसीक थे क्योंकि अनेक मौर्यकालीन प्रथाएं पारसीक प्रथाओं से
मिलती-जुलती हैं। ब्राह्मण साहित्य में विष्णुपुराण, युद्धारक्षक
कथासरित्सागर, वृहत्कथामंजरी के अनुसार मौर्य शूद्र थे-चन्द्रगुप्त ने मौर्य
वंश की स्थापना की थी। उसने अपने गुरु आचार्य चाणक्य की सहायता से मगध
साम्राज्य से नन्द वंश को समाप्त कर पाटलिपुत्र में मौर्य साम्राज्य के
आधिपत्य को स्थापित किया और गंगा के पश्चिम से विभिन्न राज्यों की विजय कर
हिन्दु कुश पर्वतमाला तक मौर्य साम्राज्य का विस्तार किया।
बौद्ध परम्पराओं के अनुसार मौर्य क्षत्रिय थे तथा गोरखपुर क्षेत्र के निवासी
थे। ग्रीक लेखक जस्टिन तथा जैन परम्पराओं के अनुसार चन्द्रगुप्त निम्न जाति
का था। महावंश टीका के अनुसार वह क्षत्रिय था। चाणक्य के अर्थशास्त्र में
लिखा है कि वह शूद्र नन्द वंश का विनाश करना चाहता था इसलिए वह स्वयं एक
शूद्र को शासक नहीं बना सकता था अतः 'मौरेय' नामक क्षत्रिय कुल का था। डा.
राधा -कुमुद मुकर्जी भी इसका समर्थन करते हैं।
मौर्य वंश का महत्व-मौर्य साम्राज्य का भारतीय इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान
है। डा. आर. के. मुकर्जी के अनुसार मौर्य साम्राज्य का आगमन भारतीय इतिहास
में महत्वपूर्ण घटना है। जिन कठिन परिस्थितियों में इस वंश ने अपनी स्थिति को
सुदृढ़ किया, उस कारण इसका स्थान और ऊँचा उठ जाता है। 327-325 ई. पूर्व भारत
का पश्चिमी भाग सिकन्दर के हाथ में आ चुका था। इस कारण इस वंश के लिए सुदृढ़
शासन को स्थापित करना भारी हिम्मत का काम था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि
मौर्य वंश के उदय से भारत में छोटे-छोटे राज्यों का पराभव हो गया और एक
केन्द्रीय राज्य की स्थापना हुई जिसकी राजधानी पाटलिपुत्र बनी, जिसने
सम्पूर्ण भारत को एकता के सूत्र में बांधकर भारतीय ख्याति को दूर-दूर तक फैला
दिया। डा. पी. ए. स्मिथ के अनुसार, "मौर्यों के आगमन के साथ इतिहास के
क्षेत्र में भी ज्वलन्त किरणें फैलने लगती हैं, इतिहास का कालक्रम भी स्पष्ट
होने लगा, छोटे-छोटे राज्य समाप्त होने से केन्द्रीय राज्य की स्थापना को बल
मिला। इसके राज्य के प्रमुख को राजा न कहकर सम्राट कहा जाने लगा। इन सम्राटों
का व्यक्तित्व महान था। मौर्यों ने सारे संसार में फैलने वाले धर्मों की
सहायता की, जिनका प्रभाव आज तक अनुभव किया जा रहा है। मौर्य वंश के कारण ही
अन्य देशों से सम्बन्ध जुड़े।
मौर्य वंश के पूर्व की तिथियाँ विवादास्पद थीं परन्तु मौर्य वंश के बाद ऐसी
स्थिति नहीं रही। चन्द्रगुप्त मौर्य और यूनानी सम्राट सेल्युकस का समकालीन
होना और यूनानी साहित्य के सेन्डीकेट्स से उसका साम्राज्य इस वंश की तिथिक्रम
को स्थिर कर देता है। इसी प्रकार अशोक सेल्यूकस के पोते सीरिया के शासक
ऐटपोकल का समकालीन था। अतः इस प्रकार तिथि निर्धारण में कोई कठिनाई नहीं
उत्पन्न होती। इस प्रकार भारतीय इतिहास में इस वंश का प्रत्येक ओर से महत्व
है।
चन्द्रगुप्त मौर्य - चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश के बारे में प्राचीन साहित्य
में अनेक मत पाये जाते हैं जो निम्नलिखित हैं -
विष्णु-पुराण के आधार पर - विष्णुपुराण के अनुसार, "ब्राह्मण कौटिल्य नन्द
वंश का नाश करेगा तब मौर्य पृथ्वी का भोग करेंगे। विष्णपुराण के टीकाकार
श्रीधर ने 'उत्पन' शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है कि नन्द वंश के अन्तिम
राजा 'धननन्द' की दो पत्नियाँ थीं। उनमें से एक पत्नी मुरा थी जो जाति से
शूद्र थी। चन्द्रगुप्त मुरा पुत्र होने के कारण मौर्य कहलाया तथा एक पौराणिक
अनुश्रुति के आधार पर चन्द्रगुप्त मौर्य नन्द का पुत्र था और उसकी माता का
नाम मुरा था।
विशाखदत्त-कृत मुद्राराक्षस के आधार पर - मुद्राराक्षस के टीकाकार झुण्डिराज
के अनुसार अपरिमित धन वाले धननन्द का मगध पर अधिकार था। उसकी दो पत्नियाँ थीं
- सुनन्दा एवं मुरा। मुरा शुद्रा होने के बावजूद अत्यन्त रूपवती, शीलवती थी
जिसे धननन्द बहुत प्यार करता था। एक दिन एक तपस्वी राजा के दरबार में आया और
राजा नन्द ने उसके पाद प्रक्षालन किया तथा उसके चरणोदक को अपनी रानी मुरा को
दिया। रानी मुरा ने अत्यन्त श्रद्धा और भक्ति भाव के साथ चरणोदक को ग्रहण
किया। फलस्वरूप कुछ समय पश्चात् मुरा के गर्भ से एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न
हुआ वही चन्द्रगुप्त मौर्य कहलाया।
सोमदेव-कृत कथासरित्सागर के आधार पर - कथासरित्सागर के आधार पर चन्द्रगुप्त
मौर्य नन्द राजा का ही पुत्र था, वही पाटलिपुत्र का वास्तविक अधिकारी बना। वह
दासी पुत्र न होकर मुरा का पुत्र था जो मगध की राजरानी थी। कथासरित्सागर
चन्द्रगुप्त और नन्द की कथा में अनेक असम्भव बातें विद्यमान हैं। परकाया
प्रवेश जैसी कहानियों पर विश्वास नहीं किया जाता है।
महावंश के आधार पर - महावंश में यह लिखा है कि कालाशोक के 10 पुत्र थे। इन 10
पुत्रों ने इसके बाद 9 नन्दों ने 22 वर्ष तक राज्य किया। इन नौ नन्दों में
नवें नन्द का नाम घननन्द था जिसे चाणक्य ने अपने क्रोध द्वारा विनष्ट किया और
मौरिय क्षत्रियों के कुल में उत्पन्न चन्द्रगुप्त को राजा बनाया। अतः स्पष्ट
है कि चन्द्रगुप्त का जन्म मौरिय क्षत्रियों के वंश में हुआ।
जैन ग्रन्थों के आधार पर - जैन ग्रन्थों में नन्दों को वैश्य का पुत्र कहा
गया है। इन्हीं ग्रन्थों में चन्द्रगुप्त को मौरों को पालने वाले मुखिया की
बेटी का पुत्र कहा गया है। जैन ग्रन्थ भद्रीवा टीका में भी राजा नन्द के मोर
पासगों के ग्राम और उसी वंश में उत्पन्न होने का उल्लेख है। सम्भवतः मयूर
पोषक नामक जैन साहित्य में लिखा है कि उत्तरी बिहार मोरिय क्षत्रियों का एक
गणराज्य था, जिसकी राजधानी पिप्पलिवन थी। शायद यह गणराज्य अन्य जनपदों की
भांति मगध साम्राज्य से अपनी रक्षा न कर सका। जिस समय पिप्पलिवन नष्ट किया
गया उस समय तत्कालीन पिप्पलिवन के राजा की स्त्री गर्भवती थी जो अपने भाइयों
के साथ जाकर पाटलिपुत्र में रहने लगी, वहीं पर उसने चन्द्रगुप्त को जन्म दिया
जिसने आगे चलकर चाणक्य की सहायता से राज्य प्राप्त कर लिया था।
चन्द्रगुप्त और उसके वंशज मौर्य या मोरिय कहलाये जो क्षत्रिय वंश में उत्पन्न
हुए थे, क्योंकि बौद्ध जनश्रुति कथा, पुराण, सरित्सागर और मुद्राराक्षस की
तुलना में अधिक प्रामाणिक व सत्य प्रतीत होता है। दिव्यावदान और चन्द्रगुप्त
का पुत्र बिन्दुसार को क्षत्रिय बताया गया है। इसी प्रकार इसी में अशोक में
अपनी अन्यतम रानी तिष्यरक्षिता को यह कहा था - "देवि मैं क्षत्रिय हूँ, मैं
प्याज कैसे खा सकता हूँ।' माइनर के एक लेख में चन्द्रगुप्त को क्षत्रिय कहा
गया है। इन सभी आधारों पर यह स्वीकार करना होगा कि मौर्य क्षत्रिय थे और उनका
वंश पिप्पलिवन के मौरियगण के साथ सम्बन्ध रखता था। ग्रीक लेखकों ने भी मोरई
जाति का उल्लेख किया है। अतः कोई आश्यर्य की बात नहीं है कि चन्द्रगुप्त,
मोरपालकों, गड़रियों और शिकारियों के बीच पला हो। चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में
मौर्य वंश अवश्य प्रकाशित हुआ।
मौर्यों के इतिहास जानने के साधन
मौर्य वंश के इतिहास को जानने के तत्कालीन कई ऐतिहासिक, धार्मिक नाटक तथा
विदेशी विवरण प्राप्त होते हैं जिनमें प्रमुख निम्नलिखित हैं -
चाणक्य का अर्थशास्त्र - इसे कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी कहते हैं, इस ग्रन्थ
को 15 भागों में और 80 उपभागों में बांटा गया है। इसमें लगभग 6000 श्लोक हैं।
इस पुस्तक में चन्द्रगुप्त के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन मिलता है।
अर्थशास्त्र के अन्तर्गत दर्शनशास्त्र, राज्यशास्त्र, विदेशनीति तथा
अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के बारे में तथा राजपूतों एवं गुप्तचरों के
सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक वर्णन प्राप्त होता है। शामशास्त्री, वी. सी. लॉ,
वी. ए. स्मिथ और डा. के. पी. जायसवाल ने कौटिल्य कृत 'अर्थशास्त्र' को
चन्द्रगुप्त मौर्य के महामन्त्री द्वारा लिखा गया बताया है और अन्य विद्वान
ए. वी. कीथ, भण्डारकर इस पुस्तक की रचना को अत्यन्त प्राचीन अर्थात् लगभग ईसा
की प्रारम्भिक सदी का मानते हैं। परन्तु अर्थशास्त्र के अध्ययन से ज्ञात होता
है कि इसकी रचना में अधिकांशतः तत्कालीन स्थितियाँ ही दृष्टिगोचर होती हैं।
अतः इसकी रचना 'इसी समय हुई, परन्तु बाद में शायद कुछ परिवर्तन हुआ है।
मेगस्थनीज की इण्डिका - चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में यूनानी सम्राट
सेल्यूकस ने एक राजदूत भेजा था जो पाटलिपत्र में 18 वर्ष रहा और उसने अपनी
प्रसिद्ध पुस्तक में आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक ग्रन्थों में स्थानीय
स्वशासन का बड़ा ही सुन्दर वर्णन किया है परन्तु दुर्भाग्यवश यह पुस्तक
उपलब्ध नहीं है। इसके कुछ उद्धरण यूनानी लेखकों की पुस्तकों में प्राप्त होते
हैं। यह मौर्य वंश के इतिहास की जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत है। डा. वी. ए.
स्मिथ के अनुसार, "कुछ भी हो मेगस्थनीज की लेखनी विश्वसनीय है। उसने जो कुछ
देखा वही लिखा, उसके द्वारा लिखित चन्द्रगुप्त का सामाजिक और सैनिक प्रशासन
विश्वसनीय है। यद्यपि मेगस्थनीज की पुस्तक पूर्ण रूप से न मिलकर बल्कि कुछ
अंशों में मिली है. फिर भी वे उद्धरण बड़े महत्वपूर्ण हैं। इन उद्धरणों की
सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य के शासनकाल तथा तत्कालीन संस्थाओं का सूक्ष्म
दर्शन किया जा सकता है। मेगस्थनीज ने जितनी ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की उतनी
अन्य किसी इतिहासकार ने रानी एलिजाबेथ के समकालीन अकबर के काल तक नहीं की।
अशोक के अभिलेख - सम्राट अशोक के शिलालेखों द्वारा मौर्यकालीन इतिहास की
जानकारी उपलब्ध होती है। इन अभिलेखों में सम्राज्य विस्तार, धर्म, शासन
प्रणाली तथा अन्य विषयों पर विस्तृत जानकारी सुलभ होती है।
विशाखदत्त का मुद्राराक्षस - इस ग्रन्थ से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार
चन्द्रगुप्त ने आचार्य चाणक्य की सहायता से नन्द वंश का विनाश किया और मौर्य
साम्राज्य की स्थापना की। चन्द्रगुप्त के प्रारम्भिक इतिहास पर भी प्रकाश
पड़ता है। इसके साथ ही साथ इसी ग्रन्थ से तात्कालिक सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक
और राजनीतिक जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है।
विदेशी लेखक - मौर्य साम्राज्य के इतिहास के सम्बन्ध में विदेशी लेखकों की
ऐतिहासिक सामग्री अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उनमें प्लूटार्क, जस्टिन, जियोडोरस,
एरियन, टिलनी आदि प्रमुख हैं।
अन्य स्रोत - महावंश, दीपवंश, पुराण, तिब्बती एवं नेपाली ग्रन्थ तथा जैन धर्म
के ग्रन्थों से चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में जानकारी मिलती है।
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