नन्द वंश
(Nand Dynasty)
चतुर्थ शती ई. पूर्व के प्रायः मध्य में महापद्म नामक एक सामरिक ने शिशुनाग
वंश का अन्त कर दिया। पाली ग्रन्थों में यह उग्रसेन ने कहा है। स्पष्टतः यह
नाम उसकी सेना की विशालता के कारण मिला। इसी प्रकार महापद्म नाम से भी स्पष्ट
ध्वनित होता है कि उसकी सेना इतनी बड़ी थी कि वह पद्मव्यूह के रूप में खड़ी
की जा सकती थी। कुछ अन्य इतिहासकारों ने यह भी अर्थ लगाया है कि उसके पास
महापद्म।
नन्दों का मूल - नन्दों के मूल के सम्बन्ध में अनुश्रुतियाँ परस्पर विरोधी
हैं। पुराणों के अनुसार महापद्मनन्द शूद्रों से उत्पन्न हुआ था, परन्तु जैन
ग्रन्थों में उसे नाई का पुत्र और वैश्य से उत्पन्न कहा गया है। इतिहासकार
कर्टियस ने उसके सम्बन्ध में दूसरा ही वृतान्त दिया है। वह लिखता है कि
सिकन्दर के समकालीन मागेध नाई का पुत्र था। इस नाई ने अपनी सुन्दरता से रानी
को आकर्षित कर दिया था और उसने तत्कालीन राजा, सम्भवतः कालाशोक अथवा काकवर्ण,
का वाद वध कर दिया था। हर्षचरित से ज्ञात होता है कि इस राजा का वध उसकी
राजधानी के समीप ही उसके गले में छुरा भोंककर किया गया। इन विरोधी ऐतिहासिक
पाठों में तथ्य चाहे जो हों परन्तु इतना अवश्य प्रमाणित हो जाता है कि
महापद्म नीच जाति का था और अपना गौरव उसने सफल षड्यन्त्र द्वारा प्राप्त
किया। पहले वह किशोर राजकुमारों का अभिभावक बना, फिर उसका वध कर उसने उनकी
गद्दी छीन ली।
महापद्मनन्द - महापद्मनन्द ने मगधराज की सीमाओं और प्रभाव का विस्तार किया।
उसे अनेक समकालीन राज शक्तियों का विजेता कहा गया है जिनमें से कुछ
निम्नलिखित थे -
इक्ष्वाकु, कुरु, पंचाल, काशी, शूरसेन, मैथलि, कलिंग, अश्मक, हैहय आदि।
महापद्मनन्द को क्षत्रियों का हंता भी कहा गया है। सम्भवतः उसके इसी रूप को
चरितार्थ करते हुए पुराणों ने उसे परशुराम के समान ‘सर्वाक्षत्रांतक' और एक
राष्ट्र लिखा है। यद्यपि यह संकेत तुलसी प्रतिष्ठा की अत्युक्ति करता है।
विजयें / उपलब्धियाँ - इसमें सन्देह नहीं है कि मगध ने पहले ही अपने पड़ोसी
राज्यों को जीत लिया था और शिशुनाग के समय में अवन्ति के पतन के पश्चात् तो
उत्तर में उसका प्रतिद्वंदी ही न रह गया था। कथासरित्सागर में नन्द के प्रति
एक उल्लेख से जान पड़ता है कि कोशल अब मगध का प्रान्त बन गया था। हाथी गुम्फा
अभिलेख से भी, जो नन्दराज (महापद्म) के द्वारा उत्खनित किसी प्रणाली का जिक्र
करता है। यह प्रमाणित है कि कलिंग भी इस साम्राज्य का प्रान्त बन गया था,
यहां यह कह देना उचित होगा कि इस अभिलेख से तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति पर भी
कुछ प्रकाश पड़ता है क्योंकि इसमें नंदराज (महापद्य) द्वारा जैन तीर्थांकर की
एक बहुमूल्य मूर्ति को उसके कलपक और शाकटल जैसे जैन मुनियों से सिद्ध होती
है। इस प्रकार पग-पग बढ़कर मगध भारत में सर्वशक्तिमान राज्य का स्थान ग्रहण
किया और दीर्घकाल तक उसका इतिहास सम्पूर्ण भारत का इतिहास रहा।
दक्षिण भारत पर विजय - महापद्मनन्द ने सम्भवतः दक्षिण भारत पर भी विजय
प्राप्त की थी, क्योंकि पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर यह ज्ञात होता है कि
उसका दक्षिण भारत के एक बड़े भू-भाग पर अधिकार था। डा. आर. सी. राय चौधरी भी
महापद्मनन्द को दक्षिणापथ के कुछ भाग का स्वामी स्वीकार करते हैं।
आर्थिक व्यवस्था - महापद्यनन्द की आर्थिक व्यवस्था अधिक सुदृढ़ थी जिसका
उल्लेख ह्वेनसांग ने भी अपनी यात्रा विवरण में किया है। क्योंकि इसने जो धन
एकत्र किया था वह आर्थिक शोषण द्वारा - संग्रह किया गया था।
(अ) कर व्यवस्था - महापद्मनन्द ने अपने राज्य को शक्तिशाली बनाने के लिए छोटी
छोटी वस्तुओं पर कर लगा रखे थे, जिससे उसे पर्याप्त आय हो जाती थी।
(ब) माप-तौल प्रणाली - व्यापारिक व्यवस्था एवं आर्थिक व्यवस्था को दृढ़ बनाने
हेतु व्यवसाय के क्षेत्र में सही माप-तौल प्रणाली का प्रचलन किया ताकि जनता
को राहत या सहायता मिल सके।
(स) चुंगी कर - महापद्मनन्द ने सर्वप्रथम पत्थर, पेड़-पौधे, चमड़े तथा गोंद
आदि वस्तुओं पर व्यापारिक चुंगी लगाई थी ताकि राज्य की आय बढ़ सके।
परन्तु इन तमाम करों से जनता में असन्तोष बढ़ गया और वह आर्थिक संकट में फंस
गयी और यत्र-तत्र विद्रोह होने लगे।
सैन्य संख्या - इतिहासकार कर्टियस के अनुसार महापद्मनन्द के पास 20,000
अश्वारोही 2,00,000 पैदल सेना, 2,000 चार-चार घोड़ों वाले रथ और 300 से भी
अधिक हाथी थे।
धर्म - हाथीगुम्फा अभिलेख से ज्ञात होता है कि महापद्मनन्द कलिंग से एक जैन
तीर्थाङ्कर की प्रतिमा उठाकर अपनी राजधानी पाटलिपुत्र लाया था और उसने अपने
शासनकाल में तथा राजदरबार में जैन यात्रियों की नियुक्ति की थी। उपर्युक्त
तथ्यों से यह स्पष्ट है कि नन्द राजाओं का झुकाव जैन धर्म की ओर था।
शासनकाल - मत्स्य पुराण के अनुसार महापद्मनन्द ने 88 वर्ष तक शासन किया था
परन्तु वायुपुराण के अनुसार उसने 28 वर्ष तक ही राज्य किया था। इतिहासकार
तारानाथ ने लंका के इतिहास में इसका शासनकाल 29 वर्ष एवं 22 वर्ष माना है।
डा. आर. सी. राय चौधरी इसके शासनकाल को 28 वर्ष ही मानते हैं।
उत्तराधिकारी - पुराणों के अनुसार महापद्मनन्द के पश्चात् उसके आठ बेटों ने
शासन किया था जिनमें अन्तिम बेटा धननन्द सिकन्दर का समकालीन था। डा. आर. सी.
मजूमदार ने पुराणों के आधार पर नौ नन्दों का उल्लेख किया है। बौद्ध साहित्य
में अन्तिम नन्द शासक का नाम धननन्द माना गया है तथा ग्रीक साहित्य में उसे
अग्रमिस (Agrammes) अथवा जैनट्रिक्स आदि नामों से पुकारा है। कर्टियस के
अनुसार उसके पास विशाल सेना थी, यह अनंत धन का स्वामी, बड़ा लोभी, अविश्वासी,
अधर्मी तथा अत्याचारी था। इसके नीच कृत्यों ने उसे प्रजा में अप्रिय बना दिया
था। उसने गंगा नदी के तट पर 80 कोटि धन एकत्र कर उसे एक बहुत बड़े गड्ढे में
दबा दिया था। उसने चमड़े, फूलों के वृक्षों आदि पर कर लगवा दिये तथा पत्थरों
पर कर लगाकर और उसे भी उसी तरह दबा दिया।
नन्द वंश के पतन के कारण (Reasons of Decline of Nanda Dynasty) नन्द वंश का
जिस तरह उत्थान हुआ था उसी तरह से उसका पराभव भी हो गया। नन्द वंश के पतन के
निम्नलिखित कारण थे -
1. अप्रिय शासन - नन्द राजाओं की राजकीय व्यवस्था अव्यवस्थित थी जिसके कारण
जनता असन्तुष्ट थी। फलतः नन्द वंश का पतन हुआ। प्लू्टार्क के अनुसार नन्द
राजा की दुष्ट प्रवृत्ति के कारण प्रजा उससे घृणा करती थी। सम्भवतः जनता पर
अधिक कर लगाने के कारण वह राजा से नाराज हो गयी थी।
2. अधार्मिक शासक - नन्द वंश का उद्भव एक शूद्र स्त्री से हुआ था। इस कारण
जनता में इन्हें सम्मान एवं आदर प्राप्त न था तथा इन्होंने क्षत्रियों को
समाप्त करने का प्रयास किया और ब्राह्मणों को असन्तुष्ट करने के फलस्वरूप भी
इस वंश का पतन हुआ।
3. आर्थिक नीति असन्तोषजनक - नन्द राजाओं की आर्थिक स्थिति बड़ी अव्यवस्थित
थी, जनता पर भारी-भारी कर लगे थे, जीवनोपयोगी वस्तुओं को करमुक्त नहीं किया
गया था अतः इस प्रकार नन्द वंश का पतन हुआ।
4. जैन धर्मावलम्बी होना - नन्द राजा जैन धर्म के अनुयायी थे, इस कारण राज्य
बहुसंख्यक ब्राह्मण धर्मावलम्बी असन्तुष्ट हो गये थे और इस वंश का पतन हो
गया।
5. चाणक्य का उदय - नन्द वंश के पतन का मुख्य कारण आचार्य चाणक्य का नन्दों
से असन्तुष्ट होना था, जिसकी प्रेरणा से चन्द्रगुप्त ने धननन्द को समाप्त
करके नन्द वंश को समाप्त कर दिया।
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