भूगोल >> ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्र ईजी नोट्स-2019 बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्रईजी नोट्स
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बी. ए. प्रथम वर्ष भूगोल प्रथम प्रश्नपत्र के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार हिन्दी माध्यम में सहायक-पुस्तक।
स्मरण रखने योग्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
* पृथ्वी का लगभग एक-तिहाई स्थलभाग शुष्क एवं अर्द्धशुष्क है। इन प्रदेशों
में अनाच्छादन के कारक के रुप में पवन का महत्वपूर्ण योगदान है।
* अपवाहन (Deflation) क्रिया के द्वारा पवन असंगठित चट्टानी कणों को उड़ा कर
दूर ले जाते हैं, जिसके फलस्वरूप धरातल पर गर्मों का निर्माण होता है।
* अपघर्षण (Abrasion or Corrasion) क्रिया के द्वारा बालू कणों से युक्त पवन
चट्टानों को घिसकर चिकना कर देते हैं (सरेस कागज या Sand paper के कार्य
जैसा) एवं काट छांट, कर विभिन्न आकृतियों का निर्माण करते हैं।
* सन्निघर्षण (Attrition) क्रिया द्वारा पवन के साथ उड़ते हुए रेत के कण
परस्पर टकरा कर क्षीण होते जाते है।
* पवन की अपवाहन क्रिया के फलस्वरूप निर्मित मरुस्थलीय गड्डों को वार्त गर्त
(Blow outs) कहा जाता है। मंगोलिया में काफी लंबे एवं गहरे वात गर्त देखने को
मिलते हैं, जिन्हें वहां पांगक्यांग नाम से जाना जाता है।
* पवन की निक्षेपण क्रिया के फलस्वरूप निर्मित रेत के टीलों को बालूका स्तूप
कहा जाता है। ये स्थाई नहीं होते हैं बल्कि इनका स्थानांतरण होता रहता है।
* मंद पवन के अपघर्षण (abrasion) एवं सन्निघर्षण (attrition) दोनों कार्य
नगण्य होते हैं। जबकि तीव्र पवन के अपघर्षण एवं सन्निघर्षण कार्य दानों अधिक
होते हैं।
* पवन के अपरदन का कार्य अपरदनात्मक यंत्र (erosional tools) द्वारा ही
सम्पादित होता है। इन यंत्रों में रेतकण, धूलिकण, कंकड़-पत्थर आदि सम्मिलित
किये जाते हैं।
* पवनानुवर्ती बालुका स्तूप (Longitudinal Sand dune) पवन की दिशा के
समानांतर बनता है एवं इसके दोनों ओर खड़ी ढाल मिलती है। सहारा में इसे सीफ
(Seif) के नाम से जाना जाता है।
* अनुप्रस्थ बालुका स्तूप (Transverse sand dune) पवन की दिशा के लम्बवत्
होता है। पवन के दिशा की ओर इसकी ढाल का आकार उन्नतोदर (convex) एवं पवन
विमुख दिशा की ओर नतोदर (concave) होता है।
* तुर्किस्तान में अनुप्रस्थ बालुका स्तूप काफी संख्या में पाये जाते हैं,
जिन्हें वहाँ बरखान (Barkhans) के नाम से जाना जाता है।
* पवन के द्वारा उठाकर लाए गये बारीक धूल कणों के कारण निक्षेपण के फलस्वरूप
लोएस का निर्माण होता है।
* लोएस निक्षेप में परतों का अभाव होता है तथा इसकी मिट्टी उपजाऊ होती है।
* चीन के लोएस का निर्माण गोबी मरुस्थल से उड़ाकर लाये गये धूल कण के
निक्षेपण के फलस्वरूप हुआ है।
* यूरोप एवं न्यूजीलैंड के लोएस का निर्माण हिमानीकृत निक्षेपों से पवन
द्वारा उड़ा कर लाये गये अवसादों के निक्षेपण के फलस्वरूप हुआ है।
* पवन अपने निक्षेपण क्रिया के द्वारा बालूका स्तूप (Sand dune), बालुका कगार
(Sand Levees or Whalebacks) लोएस (Loess) आदि का निर्माण करता है।
* वायु एक महत्वपूर्ण भौतिक कारक है जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रुप में
आर्द्रता, जलवर्षा, हिमवर्षा, भूमिगत जल, हवा, हिमानी, समुद्रतटीय लहरें एवं
हिमानियों को प्रभावित करती है।
* तिपहल शिलाखण्ड या ड्राई कैटर्स, गारा या क्षत्रक, ज्यूगेन, वात गर्त,
जालीदार शिला, इन्सेलबर्ग, भू-स्तम्भ तथा भारडांग पवन द्वारा निर्मित
अपरदनात्मक स्थलाकृतियाँ हैं।
* जब पवन की घर्षण क्रिया से चट्टानों के ऊपरी भाग की आकृति छत्रक जैसी होती
है और निचला सिरा गर्दन जैसा सकरा होता है तो गारा या छत्रक शिलाखण्ड का
निर्माण होता है।
* अफ्रीका के सहारा मरुस्थल से छत्रक शिलाखण्ड को गारा कहा जाता है। इसकी
आकृति कुकुरमुत्ते के समान होता है।
* जब कठोर एवं कोमल शैलों के परत एक-दूसरे पर क्षैतिजीय स्थित होते हैं तब
वायु द्वारा विभिन्न प्रकार की भू-दृश्यावली का निर्माण अपरदनात्मक क्रिया के
कारण होता है। इन्हें ज्यूगेन के नाम से जानते हैं।
* यारडांग की रचना ज्यूगेन के विपरीत दिशाओं में होती है। जब कोमल व कठोर
चट्टानों की स्थिति लम्बवत् होती है तब वायु द्वारा मुलायम अथवा कमजोर
चट्टानें शीघ्र अपरदित होती हैं। इनमें वायु द्वारा कटाव एवं नालियों का
निर्माण होता है।
* मरुस्थलीय प्रदेशों में अपरदन की अन्तिम दशा में भी कुछ कठोर चट्टानी
गुम्बद बचे रहते हैं। रेत के समुद्र में इनको द्वीप की तरह देखा जा सकता है।
इनमें चट्टानी संरचना सामान्यतः लम्बवत होती है। इन्हें इन्सेलबर्ग के नाम से
जानते हैं।
* इन्सेलबर्ग प्रायः ग्रेनाइट व नीस चट्टानों से बने होते हैं। ये दक्षिणी
अफ्रीका एवं सहारा में अधिक पाये जाते हैं।
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