5.
भू-सन्तुलन
अध्याय का संक्षिप्त परिचय
भूतल पर पर्वत, पठार, मैदान, झीलें तथा महासागर आदि विद्यमान हैं, जिनके आकार
व समस्थिति में पर्याप्त भिन्नता पायी जाती है, फिर भी ये आकृतियाँ भूतल पर
स्थित हैं। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ये आकृतियाँ एक निश्चित नियम के
अनुसार सन्तुलित हैं, अन्यथा इनका वर्तमान स्थिति कुछ और ही होता। जब कभी इस
संतुलन में परिवर्तन होता है, तो भयंकर भूहलचल तथा भूपरिवर्तन होता रहता है।
सामान्य रूप में संतुलन से तात्पर्य है—“परिभ्रमण करती हई पृथ्वी के ऊपर
स्थित क्षेत्रों (पर्वत, पठार और मैदान) एवं गहराई में स्थित क्षेत्रों (झील,
समुद्र आदि) में भौतिक अथवा यान्त्रिक स्थिरता की दशा को ही 'संतुलन की दशा'
कहते हैं।"
भू-संतुलन की समस्या का सर्वप्रथम लेखा-जोखा प्राट महोदय ने सन् 1858 से 1859
के मध्य हिमालय के प्रभाव को समझाते हुए दिया, किन्तु भू-संतुलन या समस्थिति
(Isostasy) शब्द का उपयोग सर्वप्रथम 1889 में डटन ने किया। इनका मुख्य
उद्देश्य भूतल के असमतल भागों अर्थात् धरातल के बड़े-बड़े ऊँचे उठे भागों,
जैसे पर्वत एवं पठार तथा नीचे धंसे हुए भागों, जैसे झीलें तथा महासागरों में
स्थिरता अथवा संतुलन स्थापित करना था। डटन का मानना था कि पृथ्वी के
ऊँचे-ऊँचे पर्वत, पठार, मैदान तथा सामुद्रिक तली के नीचे स्थित पदार्थ का भार
बराबर होगा। उनके अनुसार ऊंचे उठे भागों का घनत्व कम होगा तथा नीचे धंसे
भागों का घनत्व अधिक होगा, तभी सब का भार एक रेखा के सहारे बराबर होगा। इसी
आधार तल को “सम दबाव तल' (Level of Uniform Pressure) अथवा 'समतोल तल
(Isostatic level) अथवा 'क्षतिपूर्ति तल' (Level of Compensation) कहा। इस तल
के सहारे सभी भागों का भार अथवा दबाव बराबर होना चाहिए। जब किसी कारण से एक
भाग का भार या दबाव बढ़ जाता है तथा दूसरे का कम हो जाता है, तब असन्तुलन की
स्थिति उत्पन्न हो जाता है। इस संतुलन को पुनः स्थापित करने के लिए
क्षतिपूर्ति करना होगा। जब नदियों द्वारा सागर में तथा डेल्टाई भाग में
निक्षेप होने लगता है, तब डेल्टाई भाग का भार बढ़ने लगता है तथा पहाड़ी भाग
का भार कम होने लगता है फलस्वरूप भूसन्तुलन समाप्त हो जाता है। इसे स्थापित
करने के लिए पहाड़ी भाग ऊपर उठने लगता है तथा डेल्टाई भाग नीचे धंसने लगता
है, और नीचे-नीचे डेल्टाई भाग का मलवा पहाड़ी भाग के नीचे आने लगता है, ताकि
सन्तुलन बना रहे। इस प्रकार पृथ्वी के धरातल पर जहाँ कहीं भी सन्तुलन होता
है, वहाँ पर बराबर धरातलीय क्षेत्र के नीचे पदार्थ का बराबर द्रव्यमान (Mass)
होता है।
संतुलन के सिद्धान्त का साधारण तौर पर यह तात्पर्य होता है कि पृथ्वी में ऐसा
तल (क्षतिपूर्ति तल) होता है, जिसके ऊपर चट्टानों की रचना के अनुसार विभिन्न
भागों के पदार्थों के घनत्व में अन्तर पाया जाता है, लेकिन उस तल के नीचे
घनत्व सर्वत्र समान होता है। किसी भाग के घनत्व तथा ऊंचाई में उल्टा अनुपात
होता है। अर्थात् ऊंचे भाग का घनत्व कम होगा तथा निचले भाग का घनत्व अधिक
होगा। इस प्रकार पर्वतों का घनत्व पठारों से कम तथा पठारों का मैदानों से कम
तथा मैदानों का घनत्व सागर तली से कम होगा। परन्तु प्रत्येक भाग क्षतिपूर्ति
तल (Level of Compensation) पर बराबर भार रखता है।
इस प्रकार धीरे-धीरे भू-संतुलन के क्षेत्र में संतुलन के सिद्धान्त का
प्रतिपादन हुआ। अब इस सिद्धान्त के विषय में कई विद्वानों ने अपने मत प्रकट
किये हैं, जिनमें पर्याप्त अन्तर दृष्टिगत होता है। इस क्षेत्र में प्रमुख
योगदान देने वाले विद्वानों में सर जार्ज एयरी, प्राट हीस्कैनन, जोली,
हेफोर्ड एवं बोबी तथा आर्थर होम्स शामिल है।
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