बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
प्रश्न- नैतिक एवं चारित्रिक विकास के उद्देश्य को समझाइए।
उत्तर-
नैतिक एवं चारित्रिक विकास का उद्देश्य
बच्चों का नैतिक एवं चारित्रिक विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। प्रत्येक समाज के अपने आचार-विचार सम्बन्धी कुछ सिद्धान्त और नियम होते हैं। सामान्यतः इन नियमों का पालन करना नैतिकता है और इन नियमों का पालन करने की आन्तरिक शक्ति चरित्र है और इस दृष्टि से नैतिकता एवं चरित्र अभिन्न है, एक के अभाव में दूसरे की बात नहीं सोची जा सकती। परन्तु भिन्न-भिन्न अनुशासनों में नैतिकता और चरित्र की भिन्न-भिन्न रूप से व्याख्या की गई है। मानवशास्त्री समाज समस्त आचरण को नैतिकता एवं चरित्र के रूप में लेते हैं। मनोवैज्ञानिक चरित्र को अच्छी आदतों के पुंज अथवा दृढ़ इच्छा शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। अध्यात्मशास्त्री इन्द्रिय निग्रह और धर्म सम्मत आचरण को ही नैतिकता एवं चरित्र मानते हैं। साहित्य में समाज द्वारा नियमों के पालन को नैतिकता और मनुष्य के आचार-विचार को चरित्र के रूप में लिया जाता है, वहाँ नैतिकता का पालन न करने वाले का भी अपना चरित्र होता है। उसमें डाकू का भी अपना चरित्र होता है, यह बात दूसरी है कि उसका चरित्र अच्छा होता है अथवा बुरा।
शिक्षा के क्षेत्र में आज जब हम नैतिक एव चारित्रिक विकास की बात करते हैं तो हमारा आशय बच्चों को अपने समाज द्वारा निश्चित आचार-विचार सम्बन्धी नियमों का दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ पालन करने की ओर प्रवृत्त करने से होता है और आचार-विचार तो समाज की अपनी भौगोलिक स्थिति, दार्शनिक विचारधारा, सामाजिक संरचना, राज्यतन्त्र, अर्थतन्त्र, वैज्ञानिक प्रगति और उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धियों पर निर्भर करते हैं। धर्मप्रधान समाजों में नैतिकता का आधार धर्म होता है और चूँकि संसार के अधिकतर लोग किसी न किसी धर्म को मानते हैं और उनके आचार-विचार उनके धर्म पर आधारित होते हैं। इसलिए प्रायः लोग धर्म और नैतिकता में भेद नहीं करते। हमारी दृष्टि से भी धर्म पर आधारित नैतिकता की सच्ची नैतिकता होती है। परन्तु अपने देश के सन्दर्भ में हमारी विवशता है। हमारे यहाँ अनेक धर्म और सम्प्रदाय है, हम किसी एक धर्म पर आधारित नैतिकता की शिक्षा नहीं दे सकते। फिर हमने धर्मनिरपेक्षता का चोला भी तो पहन रखा है। इस स्थिति में हम अपने देश में नैतिक एवं चारित्रिक विकास के नाम पर अपने बच्चों को केवल मानवतावादी सामाजिक नियमों के पालन एवं मानवतावादी गुणों को ग्रहण करने की ओर प्रवृत्त कर सकते हैं और यह हमें करना भी चाहिए। यदि हम अपने बच्चों में ईमानदारी, कर्त्तव्यपराणयता, परोपकार और दृढ़ इच्छा शक्ति आदि चारित्रिक गुणों का विकास कर सकें और उन्हें प्रेम, सहानुभूति और सहयोग के साथ रहना सिखा सकें तो समझिए हमने उनका नैतिक एवं चारित्रिक विकास कर दिया।
अब हम चाहें वैयष्टिक हित की दृष्टि से देखें, चाहे सामाजिक हित की दृष्टि से, व्यक्ति का नैतिक एवं चारित्रिक विकास होना आवश्यक है। नैतिक एवं चारित्रिक विकास के अभाव में न तो कोई व्यक्ति अपना भला कर सकता है और न समाज का। देश-विदेश के अधिकतर विद्वान इसे शिक्षा का मुख्य उद्देश्य मानते हैं। गाँधी जी के अनुसार शिक्षा का अन्तिम उद्देश्य मनुष्य का चारित्रिक विकास ही होना चाहिए, इसी के द्वारा वह इस लोक में शान्तिपूर्वक रह सकता है और इसी के द्वारा वह अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। जर्मन शिक्षाशास्त्री हरबर्ट तो उच्च नैतिक चरित्र के निर्माण को ही शिक्षा मानते थे। अंग्रेज विद्वान बरट्रेन्ड रसेल ने भी चरित्र निर्माण के उद्देश्य को स्वीकार किया है। वे प्रत्येक मनुष्य में सदा काम आने वाले चार नैतिक एवं चारित्रिक गुणों पौरुष, साहस, संवेदनशीलता और बुद्धि का विकास करना आवश्यक समझते थे।
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