बी ए - एम ए >> चित्रलेखा चित्रलेखाभगवती चरण वर्मा
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बी.ए.-II, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
प्रश्न- सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
सांस्कृतिक विकास का उद्देश्य
सामान्यतः मनुष्य ने जो कुछ भी अच्छा सोचा, समझा और किया है वह उसके समाज की संस्कृति कहलाती है। समाजशास्त्री मनुष्य की समस्त भौतिक उपलब्धियों को भौतिक संस्कृति और वैचारिक उपलब्धियों को अभौतिक संस्कृति कहते हैं। परन्तु तब तो सभ्यता और संस्कृति में कोई अन्तर नहीं रहेगा। कुछ लोग किसी समाज की भाषा, उसके साहित्य, धर्म, दर्शन, खान-पान, रीति-रिवाज, आचार-विचार और कला-कौशल एवं संगीत को उस समाज की संस्कृति मानते हैं। कुछ विद्वान केवल भाषा-साहित्य और कला-संगीत को ही संस्कृति के दायरे में लेते हैं। हमारी अपनी दृष्टि से किसी समाज की संस्कृति से तात्पर्य उस समाज के व्यक्तियों की रहन-सहन एवं खान-पान की विधियों, रीति-रिवाजों, कला-कौशल, संगीत-नृत्य, भाषा-साहित्य और धर्म-दर्शन के उस विशिष्ट रूप से होता है जो उसकी अपनी पहचान होते हैं। प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति होती है; उसके सभी सदस्य अपनी संस्कृति को श्रेष्ठतम समझते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं और इस प्रकार उस समाज की संस्कृति सुरक्षित रहती है। इसके साथ प्रत्येक समाज के प्रबुद्ध व्यक्ति नित्य नये अनुभव करते हैं, वे अपनी तर्क शक्ति से इन नये अनुभवों की वास्तविकता को समझते हैं और जब आवश्यक होता है तो असत्य का खण्डन और नये-नये सत्यों का प्रतिपादन करते हैं। इस प्रकार किसी समाज की संस्कृति में विकास होता है। पर देखा यह गया है कि कोई भी संस्कृति अपने मूल स्वरूप को कभी नहीं छोड़ती, यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी विद्वान सांस्कृतिक विकास से भिन्न-भिन्न अर्थ लेते हैं। परन्तु अधिकतर शिक्षाशास्त्री अब यह मानते हैं कि शिक्षा द्वारा मनुष्य को अपने समाज की संस्कृति के साथ-साथ अन्य सभ्य समाजों की संस्कृति का भी ज्ञान कराना चाहिए और अपनी संस्कृति में विकास करने की क्षमता उत्पन्न करनी चाहिए। परन्तु हमारा देश एक विशाल देश है, इसमें अनेक संस्कृतियों (आर्य, द्रविड़, यूरोपियन, अरबियन आदि) के लोग रहते हैं। हम शिक्षा द्वारा इन सबकी शिक्षा नहीं दे सकते। हमारे भारतीय लोकतन्त्र में शिक्षा द्वारा सांस्कृतिक विकास का अपना अलग-अलग अर्थ है और वह यह है कि बच्चे अपनी संस्कृति के साथ-साथ समाज की अन्य संस्कृतियों का भी आदर करें। इसके लिए हम विद्यालयों में भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के मूल तत्व और उनकी विशेषताओं से बच्चों को परिचित कराते हैं। परन्तु यह हमारा झूठा विश्वास है कि इससे उनमें सांस्कृतिक उदारता का विकास हो रहा है।
निर्णय रूप में हम यह कह सकते हैं कि प्रत्येक समाज की शिक्षा का एक उद्देश्य सांस्कृतिक विकास भी होना चाहिए। इसके अन्तर्गत हमें बच्चों को समाज की संस्कृति, विशेष अथवा समाज की विशेष संस्कृतियों के मूल तत्वों का ज्ञान कराना चाहिए और इस ज्ञान का तब तक कोई अर्थ नहीं जब तक वह उनके व्यवहार में परिलक्षित न हो। पर केवल सांस्कृतिक विकास में शिक्षा को अपने कार्य की इतिश्री नहीं समझनी चाहिए। उसे बच्चों के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, नैतिक, चारित्रिक, व्यावसायिक और आध्यात्मिक विकास पर भी समान बल देना चाहिए।
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