हिन्दी साहित्य >> गद्य संचयन गद्य संचयनडी पी सिंहराहुल शुक्ल
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बी.ए.-III, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
गद्य-साहित्य की प्रतिष्ठा
अन्ततः उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध में गद्य के विकास ने साहित्य की प्रतिष्ठा
प्राप्त कर ली। इसकी इस प्रतिष्ठा का शुभारम्भ राजा लक्ष्मणसिंह तथा भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र की रचनाओं से होता है। उन्होंने हिन्दी के इस खड़ी बोली रूप की
भाषा तथा पद-विन्यास को साहित्यिक सौष्ठव की संजीवनी से चमत्कृत कर दिया।
राजा लक्ष्मणसिंह ने कालिदास के 'अभिज्ञानशाकुन्तल' का हिन्दी में 'शकुन्तला
नाटक' नाम से अनुवाद किया, जो 1863 ई0 में प्रकाशित होकर सामने आया | राजा
लक्ष्मणसिंह की हिन्दी भाषा सम्बन्धी मान्यताएँ राजा शिवप्रसाद की मान्यताओं से
उलटी थीं, जो फारसी-मिश्रित हिन्दी का रूप स्वीकार करते हैं। 'लक्ष्मणसिंह'
हिन्दी के सहज रूप के समर्थक थे। उनके 'शकुन्तला नाटक' में पहली बार
हिन्दी-गद्य का मानक रूप देखने में आया। हिन्दी भाषा के सम्बन्ध में उनकी यह
मान्यता थी- 'हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी हैं। हिन्दी
में संस्कृत के पद बहुत आते हैं, उर्दू में अरबी-फारसी के | परन्तु कुछ आवश्यक
नहीं है कि अरबी-फारसी के शब्दों के बिना हिन्दी न बोली जाय और न हम उस भाषा को
हिन्दी कहते हैं जिसमें अरबी-फारसी के शब्द भरे हों। अपने सिद्धान्त का निर्वाह
राजा लक्ष्मणसिंह अपने अनुवाद में करते हैं। उन्होंने 'शकुन्तला नाटक' में
हिन्दी का ऐसा निखरा रूप प्रस्तुत किया, जिसने एक साथं साहित्यिक सौष्ठव और
जनता की भाषा होनों का प्रतिनिधित्व किया। 'शकुन्तला नाटक' में प्रयुक्त छोटे
वाक्य, शब्दों-अर्थों का स्वाभाविक प्रयोग और शैली की मौलिकता ने हिन्दी भाषा
के स्वरूप का नया प्रभाव किया। शकुन्तला नाटक की भाषा को कोई कह नहीं सकता कि
वह जनता की भाषा नहीं है जबकि अरबी-फारसी के उन शब्दों का भी जो जनता में बहुत
प्रचलित थे इस नाटक में प्रयोग नहीं हुआ और संस्कृत के वही शब्द इसमें प्रयोग
किये गये जो जनता के व्यवहार में आते थे, अनेक शब्द प्रायः जनता की भाषा के ठेठ
प्रयोग हैं | आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने शकुन्तला की भाषा को लक्ष्य कर कहा है-
''यह भाषा ठेठ और सरल होते हुए भी साहित्य में चिरकाल से व्यवहृत संस्कृत के
कुछ रस-सिद्ध शब्द लिए हुए है । अतएव 'शकुन्तला नाटक' हिन्दी-गद्य की भाषा और
साहित्य के प्रथम मानदण्ड के रूप में सामने आया।'
इसके अनन्तर साहित्य-रचना के क्षेत्र में उतरने वाले काशी के भारतेन्दु बाबू
हरिश्चन्द्र राजा लक्ष्मणसिंह के हिन्दी-गद्य के आदर्श से ही प्रेरित हुए हैं।
राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द उनके गुरु थे। पर इस सम्बन्ध में उन्होंने गुरु का
विरोध किया । लक्ष्मणसिंह द्वारा प्रतिष्ठित हिन्दी का स्वरूप ही कुछ
थोड़ा-बहुत अभिनव होकर 1873 ई0 में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा संपादित एवं
प्रकाशित 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' में प्रकट हुआ | इस तरह राजा लक्ष्मणसिंह और
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी-गद्य के स्वरूप को एक मानक रूप में प्रतिष्ठित
किया। इसके आगे वह अपने इसी स्वरूप में स्वाभाविक गति से अग्रसर और समृद्ध होता
रहा।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और उनके सहयोगियों का हिन्दी गद्य-साहित्य के
प्रतिष्ठापन में बहुत बड़ा योगदान है। उनके सहयोगियों तथा समकालीन हिन्दी-गद्य
लेखकों के नाम हैं पं0 प्रतापनारायण मिश्र, पं0 बालकृष्ण भट्ट, पं0 बदरीनारायण
चौधरी 'प्रेमधन', ठाकुर जगमोहन सिंह, लाला श्रीनिवासदास, बाबू तोताराम,
कार्तिकप्रसाद कत्री, राधाकृष्णदास इस समय हिन्दी गद्य साहित्य की विशेषतः तीन
विधाएँ सामने आयीं- नाटक, निबन्ध, जीवन-चरित| समालोचना लिखने का भी सूत्रपात
हुआ। किन्तु यथार्थतः समालोचना का जन्म पं0, महावीरप्रसाद द्विवेदी की रचनाओं
के साथ 1903 ई0 के अनन्तर होता है | पं0 बालकृष्ण भट्ट और पं0 अम्बिकादत्त
व्यास की उपन्यास जैसी कृतियाँ भी आयीं। भारतेन्दु युग में हिन्दी गद्य-साहित्य
की प्रचुर रचना हुई । विशेष रूप से भारतेन्दु जी के नाटकों और पं0 प्रतापनारायण
मिश्र, पं0 बालकृष्ण भट्ट तथा ठाकुर जगमनोहन सिंह के निबन्धों का हिन्दी
गद्य-साहित्य में स्थायी महत्व स्वीकृत है। किन्तु साहित्य की इस समृद्धि के
होते हुए भी हिन्दी-गद्य अपने वाक्य विन्यास, क्रिया प्रयोग, विशेषण, सर्वनाम,
अव्यय आदि के व्यवहार में एकरूपता का अभाव तथा विश्रृंखलता का स्पष्ट अभाव देता
था। विश्रृंखलता को दूर कर हिन्दी-गद्य में एकरूपता का प्रकटीकरण 1903 ई0 के
अनन्तर 'सरस्वती' पत्रिका के प्रकाशन के साथ होता है।
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