हिन्दी साहित्य >> गद्य संचयन गद्य संचयनडी पी सिंहराहुल शुक्ल
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बी.ए.-III, हिन्दी साहित्य प्रश्नपत्र-II के नवीनतम पाठ्यक्रमानुसार पाठ्य-पुस्तक
निबन्ध विधा- उद्भव एवं विकास
'निबन्ध’ शब्द अंग्रेजी भाषा के 'एसे' शब्द का पर्यायवाची है । अंग्रेजी का
ESSAY' शब्द मूलतः लैटिन शब्द 'EXAGUM' से व्युत्पन्न है- जिसका शाब्दिक अर्थ
'तौलना' है। 'एस्साऐ (Essai)' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 'मोंतेन' ने अपनी
टिप्पणियों के लिये प्रयुक्त किया था जो यद्यपि 'प्रयास' के शाब्दिक अर्थ में
व्यवहृत हुआ । किन्तु इसमें स्वाभाविक रूप से अवैज्ञानिकता, अव्यवस्था, अपूर्ण
अक्रमता समाहित थी। बेकन ने अपनी रचनाओं में ‘ESSAY' को इसके मूल रूप एवं
संदर्भ में स्वीकार किया जिसमें क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित चिन्तन था। लेकिन कुछ
विद्वान फ्रांसीसी लेखक मोंतेन को आधुनिक निबन्ध का प्रणेता मानते हैं, जिसने
स्वयं को ही निबन्ध का विषय बनाकर निबन्ध लिखे | उसका मत था | Speak unto paper
as unto the first man' | मोंतेन के निबन्ध सन् 1580 ई0 में प्रकाशित हुए जिनका
अंग्रेजी अनुवाद सन् 1593 में प्रकाशित हुआ । सम्भवतः अंग्रेजी भाषा में
अनुवादित इंग्लैण्ड में प्रकाशित प्रथम निबन्ध संग्रह था । सन् 1612 ई0 में
बेकन द्वारा लिखित निबन्ध संग्रह प्रकाशित हुआ जो 'अरिस्टॉटिल, सिसरो एवं
प्लेटो' आदि के मूल चिन्तन, दर्शन एवं तर्कों पर आधारित था । आज भी अंग्रेजी
साहित्य 'बेकन' को निबन्ध का प्रणेता मानता है। बेकन की सबसे महत्वपूर्ण
विशेषता उसकी परिमार्जित एवं परिष्कृत भाषा,
सूक्तियों से परिपूर्ण वाक्य, गूढ़, गम्भीर एवं वस्तुनिष्ठ विचार हैं।
अंग्रेजी साहित्य में आगे के निबन्धकारों में 'मैथ्यू आर्नल्ड, मैकाले, रस्किन,
कार्लाइल, थैकरे, अब्राहम काउली, ले हंट, डी क्विन्सी, गोल्ड स्मिथ एवं चार्ल्स
लैम्ब आदि प्रतिष्ठित निबन्धकार हैं जिन्होंने इस विधा को नवीन किन्तु
समीक्षात्मक एवं ऐतिहासिक आयाम प्रदान किये।
हिन्दी में निबन्ध साहित्य - हिन्दी निबन्ध के जन्मदाता के रूप में श्री
बनारसीदास जैन को माना जा सकता है क्योंकि इन्होंने सन् 1670 में ब्रजभाषा में
'उपादान निमित्त की चिट्ठी' एवं 'परमार्थ वचनिका' आदि निबन्ध लिखे थे। इसके बाद
श्रद्धाराम फिल्लौरी, दयानन्द सरस्वती एवं राजा शिव प्रसाद सितारे हिन्द आदि
लेखकों ने ब्रज एवं खड़ी बोली . में इस विधा को जीवित रखा।
हिन्दी के प्रथम मौलिक अथवा व्यक्ति व्यंजक निबन्ध (पर्सनल एसे) के रूप में
राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द द्वारा रचित निबन्ध "राजा भोज का सपना' (1839 ई0)
को माना जा सकता है किन्तु निबन्ध के सूत्रधार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं उनके
सहयोगी रचनाकार ही हैं | मुद्रण-प्रकाशन की व्यवस्था ने भी निबन्ध के प्रसार
में सकारात्मक सहयोग प्रदान किया है जिसके फलस्वरूप भारतेन्दुकालीन पत्रिकाओं
यथा-कवि वचन सुधा, हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, हिन्दी प्रदीप, ब्राह्मण एवं आनन्द
कादम्बिनी आदि में धर्म, संस्कृति, राजनीति, साहित्य, ज्ञान-विज्ञान, समाज,
यात्रा से सम्बन्धित विषयों पर निबन्ध प्रकाशित होने लगे। भारतेन्दुयुगीन
प्रमुख निबन्धकारों में- बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', काशीनाथ खत्री, लाला
श्रीनिवाश, राधाचरण गोस्वामी, ज्वालाप्रसाद, तोताराम, पं0 अम्बिकादत्त व्यास,
बाल मुकुन्द गुप्त आदि थे। जिनमें पं0 बालकृष्ण भट्ट एवं पं0 प्रताप नारायण
मिश्र आदि निबन्धकार श्रेष्ठ एवं सजग थे इसीलिए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने
इन्हें क्रमशः हिन्दी का ‘स्टील' एवं 'एडीसन' कहा है।
इसके बाद का समय-हिन्दी निबन्ध के इतिहास में 'द्विवेदी काल' से संज्ञित है।
द्विवेदी काल में निबन्ध की भाषा में परिमार्जन और शब्द समृद्धि की तरफ विशेष
ध्यान दिया गया | सन् 1903 में पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी 'सरस्वती
पत्रिका' के सम्पादक बने। उन्होंने निबन्ध के लिए उच्च आदर्शपरक शुद्ध व्याकरण
सम्मत भाषा के साथ साहित्य के संस्कार की बात कही जिसके कारण भारतेन्दुकालीन
निबन्धों जैसी अद्भुतता व जिन्दादिली नदारद हो गई।
द्विवेदी काल में निबन्ध का चहुंमुखी विकास हुआ जिसे संक्षेप में इस प्रकार
देखा जा सकता है
1. चिन्तनात्मक निबन्ध
(अ) भावात्मक निबन्ध
(ब) विचारात्मक निबन्ध
(स) उभयात्मक निबन्ध
2. कथात्मक निबन्ध
(अ) कहानी शैली में रचित निबन्ध
(ब) स्वप्न शैली में रचित निबन्ध
(स) आत्मकथा शैली में रचित निबन्ध
3. वर्णनात्मक - पत्र शैली में रचित निबन्ध
विभिन्न विषयों पर विभिन्न शैली में लिखित मौलिक निबन्धों के अलावा द्विवेदी
काल में निबन्ध साहित्य का विपुल मात्रा में अनुवाद भी हुआ है।
इस युग के निम्न निबन्धकारों के नाम आदरपूर्वक लिये जा सकते हैं- केशव प्रसाद
सिंह, वेंकेटेशनारायण तिवारी, लल्ली प्रसाद पाण्डेय, माधव मिश्र, सरदार पूर्ण
सिंह, पद्म सिंह शर्मा, गणेश शंकर विद्यार्थी, रमाशंकर शुक्ल, रायकृष्ण दास,
श्यामसुन्दर दास, मिश्रबन्धु, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, वियोगी हरि, महावीर
प्रसाद द्विवेदी, गोविन्द नारायण मिश्र, गोपालराम गहमरी, ब्रजनन्दन सहाय, गंगा
प्रसाद अग्निहोत्री और बाबू गुलाबराय आदि।
सन् 1920-40 ई0 तक के काल को निबन्ध के इतिहास में 'शुक्ल युग' के नाम से जाना
जाता है। या यों कहें कि निबन्ध के विकास का तीसरा पड़ाव 'शुक्ल युग' है जो
उचित ही होगा । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल नवीन हिन्दी निबन्ध के युग प्रवर्तक
हैं। इन्होंने 'चिन्तामणि' एवं 'विचार-वीथी' के माध्यम से साहित्यिक
मनोवैज्ञानिक एवं सैद्धान्तिक निबन्धों की रचना की है। उनके निबन्धों में
प्रौढ़ता है, कहीं भी छिछलापन या शुष्कता नहीं आ सकी है | इस काल के मुख्य
निबन्धकारों में- 'चतुरसेन शास्त्री, माखनलाल चतुर्वेदी, रायकृष्ण दास, सियाराम
शरण गुप्त, बाबू गुलाबराय, जयशंकर प्रसाद, पंत, निराला, आचार्य नन्द दुलारे
वाजपेयी, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन, वियोगी हरि,
जैनेन्द्र, नगेन्द्र, इलाचन्द्र जोशी, सत्येन्द्र, हरिभाऊ उपाध्याय, पाण्डेय
बेचन शर्मा 'उग्र', कामता प्रसाद गुरु आदि ।
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