बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 शिक्षाशास्त्र - शैक्षिक आकलन बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 शिक्षाशास्त्र - शैक्षिक आकलनसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 शिक्षाशास्त्र - शैक्षिक आकलन - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- व्यक्ति के विकास की व्याख्या फ्रायड ने किस प्रकार दी है? संक्षेप में बताइए।
अथवा
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोलैंगिक विकासात्मक अवस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर -
व्यक्तित्व का विकास - फ्रायड ने व्यक्तित्व विकास की व्याख्या दो दृष्टिकोणों से की है। पहला दृष्टिकोण इस बात पर बल डालता है कि वयस्क व्यक्तित्व बाल्यावस्था के भिन्न-भिन्न तरह की अनुभूतियों द्वारा नियंत्रित होता है। दूसरे दृष्टिकोण के अनुसार जन्म के समय लैंगिक ऊर्जा बच्चों में मौजूद होती है जो विभिन्न मनोलैंगिक अवस्थाओं से होकर विकसित होती है। फ्रायड के इस दूसरे दृष्टिकोण को मनोलैंगिक विकास का सिद्धान्त कहा जाता है। इस सिद्धान्त की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
1. मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाएँ होती हैं और इनमें से प्रथम तीन तथा अन्तिम अवस्था में एक स्वतन्त्र कामुकता क्षेत्र उत्पन्न होता है।
2. मनोलैंगिक सिद्धान्त के अनुसार मानव विकास का मुख्य बल लैंगिक मूलप्रवृत्ति होता है जो प्रारम्भिक विकासात्मक वर्षों में कामुकता क्षेत्र से विकसित होता है।
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित मनोलैंगिक विकास के सिद्धान्त की पाँच अवस्थाएँ क्रम से निम्नांकित हैं
(i) मुखावस्था - मुखावस्था मनोलैंगिक विकास की पहली अवस्था है जो जन्म से लेकर करीब-करीब 1 साल की उम्र तक होती है। इस अवस्था का कामुकता क्षेत्र मुँह होता है। फलस्वरूप बच्चा मुँह द्वारा की जाने वाली क्रियायें जैसे चूसना, निगलना, जबड़े से कोई चीज दबाना या जबड़े में दाँत निकल आने पर दाँत से दबाना आदि लैंगिक सुख प्राप्त करता है। फ्रायड के अनुसार इस अवस्था पर अधिक या कम मात्रा में मुखवर्ती उत्तेजन होने से वयस्कावस्था में दो तरह के व्यक्तित्व विकसित होते हैं - मुखवर्ती निष्क्रिय व्यक्तित्व वाले व्यक्ति आशावादी होते हैं तथा उन्हें दूसरे व्यक्तियों पर विश्वास अधिक होता है। इनमें निष्क्रियता तथा दूसरों पर अत्यधिक निर्भरता का शीलगुण पाया जाता है। मुखवर्ती आक्रामक व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों पर अधिक प्रभुत्व दिखलाते हैं तथा उनका बुरी तरह से शोषण भी करते हैं।
(ii) गुदावस्था - यह अवस्था पहले साल के समाप्ति से दूसरे साल की अवधि तक रहती है। इस अवस्था में कामुकता क्षेत्र मुँह से हटकर शरीर के गुदा क्षेत्र में आ जाता है, जिनमें बच्चे मल-मूत्र त्याग करने से सम्बन्धित क्रियाओं से आनन्द उठाते हैं। इस अवस्था पर अधिक या कम उत्तेजना होने पर वयस्कावस्था में दो तरह के व्यक्तित्व विकसित होते हैं - गुदा आक्रामकता व्यक्तित्व में क्रूरता, विनाशिता, विद्वेष, क्रमहीनता आदि शीलगुणों की प्रधानता होती है तथा गुदा- धारणात्मक व्यक्तित्व में हठ, कंजूसी, क्रमबद्धता तथा समयनिष्ठा आदि के गुणों की प्रधानता होती है।
(iii) लिंग प्रधानावस्था - मनोलैंगिक विकास की यह तीसरी अवस्था होती है जो जीवन के चौथे से पाँचवें साल के दौरान की अवस्था है। इस अवस्था के कामुकता क्षेत्र जनानेन्द्रियां होती हैं। लडकियों की जनानेन्द्रियों को योनि तथा लडकों के जनानेन्द्रियों को शिश्न कहा जाता है। फ्रायड का कहना था कि इस अवस्था में प्रत्येक लड़के में मातृ-मनोग्रन्थि तथा प्रत्येक लड़की में पितृ-मनोग्रन्थि विकसित होती हैं। इन मनोग्रन्थियों का सफलतापूर्वक समाधान होने से लड़का तथा लड़की में नैतिकता विकसित होती है, परन्तु ठीक ढंग से समाधान नहीं होने पर उसका कुप्रभाव वयस्क व्यक्तित्व पर सीधा पड़ता है। फ्रायड के अनुसार जो लड़का शैशवावस्था पर आबद्ध होते हैं, उनमें वयस्क होने पर व्यक्तित्व के अन्य शीलगुणों में उतावलापन, शेखीबाजी, उच्चाकांक्षा आदि शीलगुणों की प्रधानता होती है, जो लड़की शैशवावस्था पर आबद्ध होती है। उनमें वयस्क होने पर व्यक्तित्व के अन्य शीलगुणों में इश्कबाजी, सम्मोहकता तथा स्वच्छन्द संभोगिता आदि शीलगुणों की प्रधानता होती है।
(iv) अव्यक्तावस्था - मनोलैंगिक विकास की यह चौथी अवस्था है जो लिंगप्रधानावस्था के बाद प्रारम्भ होती है। यह अवस्था 6 या 7 साल के उम्र से प्रारम्भ होकर लगभग 12 वर्ष की आयु तक रहती है। इस अवस्था में बच्चे में कोई नया कामुकता क्षेत्र विकसित नहीं होता है तथा साथ-ही-साथ लैंगिक इच्छाएँ भी सुसुप्त हो जाती हैं अर्थात् लैंगिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति भिन्न- भिन्न प्रकार के अलैंगिक क्रियाओं जैसे- शिक्षा, चित्रकारी, खेल-कूद आदि के रूप में होती है।
(v) जनानेन्द्रियावस्था - मनोलैंगिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है जो 13 वर्ष की आयु प्रारम्भ होकर निरन्तर चलती रहती है। इस अवस्था में किशोरावस्था तथा प्रौढ़ावस्था दोनों ही सम्मिलित होती हैं। इस अवस्था में किशोर एवं किशोरियों में अनेक तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं तथा ग्रन्थीय विकास परिपक्व हो जाते हैं। इस अवस्था के प्रारम्भ के कुछ वर्ष जो किशोरावस्था के वर्ष होते हैं, में व्यक्तियों में अपने ही लिंग के व्यक्तियों के साथ रहने, उठने- बैठने एवं बातचीत करने की प्रवृत्ति अधिक तीव्र होती है। इसे फ्रायड ने समलिंगकामुकता कहा है। इस अवस्था में व्यक्ति का व्यक्तित्व शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से परिपक्व हो जाता है और वह सामाजिक रूप से अनुमोदित लैंगिक सम्बन्ध स्थापित कर एक संतोषजनक जिन्दगी की ओर अग्रसर होता है।
स्पष्ट है कि मनोलैंगिक अवस्थाओं से होकर व्यक्ति की लैंगिक ऊर्जा का धीरे-धीरे विकास होता जाता है, जिससे व्यक्ति बाल्यावस्था की निष्क्रियता को त्यागकर वयस्कावस्था में सामाजिक रूप से उपयोगी एवं सुखमय जीवन जीता है।
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