प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहाससरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-1 प्राचीन भारतीय इतिहास - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- प्राचीन भारत में कराधान व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं?
अथवा
प्राचीन भारत में कराधान के सिद्धान्त लिखिए।
अथवा
प्राचीन भारत में कराधान के नियमों को समझाइये |
अथवा
प्राचीन भारत में कराधान के सिद्धन्तों का विवेचना कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में करारोपण संबंधी सिद्धान्तों की विवेचना कीजिए।
अथवा
प्राचीन भारत में कराधान के विविध सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
समृद्ध और स्थायी राज्य के लिए आर्थिक स्थिति की दृढ़ता अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है। राज्य के सप्तांगों में 'कोश' का महत्वपूर्ण स्थान है। हिन्दू राजनीतिक चिन्तकों ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। महाभारत में राजा को सलाह दी गयी है कि वह कोश की रक्षा बड़ी सावधानी पूर्वक करे, क्योंकि यह राज्य का मूल है। कौटिल्य, मनु और याज्ञवल्क्य आदि भी यही विचार प्रकट करते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि वह राज्य कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकता जिसका कोश अल्प होगा। शुक्र के अनुसार, सैन्यशक्ति का मूल कोश है, और कोश की जड़ सेना है। अतः राजा को व्यक्तिगत रूप में आय-व्यय का हिसाब देखना चाहिए। राजतरंगिणी द्वारा पता चलता है कि कश्मीर का राजा कलश आय और व्यय का निरीक्षण करता था और अपने साथ एक लिपिक रखता था जो उसके द्वारा दिये गये निर्देशों को लिखता था। राज्यकोश के विभिन्न साधनों में कर प्रणाली का महत्वपूर्ण स्थान था। डा. अल्तेकर का मत है कि प्रारम्भिक काल में राजा की स्थिति अधिक सुदृढ़ नहीं थी, कर व्यवस्था सामाजिक और अपनी इच्छा अनुसार होती थी। ऋग्वेद में राजा को दी जाने वाली 'बलि' का उल्लेख मिलता है। इसका प्रयोग देवताओं को यज्ञों में दी जाने वाली भेंट के रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त शत्रु से अपने जन की रक्षा, शत्रु के गढ़ों को तोड़ने आदि कार्यों के उपलक्ष्य में राजा को दिये जाने वाले धन के लिए भी इसका प्रयोग किया गया है। डा. अल्तेकर का कथन है कि पूर्व वैदिक युग में व्यष्टि सामान्य जिम्मेदारी समझकर 'बलि' देने के अभ्यस्त नहीं थे। उत्तर वैदिक काल में अभिषेक - संस्कार में राजा को विशामत्ता (प्रजा का भक्षण करने वाला) कहा गया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि कर राज्य आय का मुख्य साधन बन गया था। इस युग में भागदुक, समाहर्ता और अक्षावाण आदि अधिकारी कर वसूलने वाले बतलाये गये हैं। जातकों में वैधानिक और अवैधानिक करों का वर्णन मिलता है। हमें जातकों द्वारा ज्ञात होता है कि अच्छे राजा केवल वैधानिक कर लगाते थे, जब कि दुष्ट प्रकृति के राजा अवैधानिक करों को प्रजा से वसूलते थे। प्रजा बलि साधक अथवा बलि-परिगाहकों अधिकारियों (कर वसूल करने वाले अधिकारियों) से डर कर जंगलों में भागकर छिप जाती थी। मौर्य युग में और उसके बाद के युग में हमें कर व्यवस्था के बारे में अधिक प्रमाण प्राप्त होते हैं। अर्थशास्त्र, धर्मसूत्र और स्मृति साहित्य में इस विषय पर विशद् सामाग्री प्राप्त होती है।
राज कर सिद्धान्त - अब हम प्राचीन भारत के राज कर सम्बन्धी सिद्धान्तों की विवेचना करेंगे। हम स्मृति और महाकाव्य - साहित्यों में निर्दोष राज-कर व्यवस्था को पाते हैं। कर वसूलने में धर्मशास्त्रों द्वारा निर्देशित सिद्धान्तों का ध्यान रखा जाता था। धर्म शास्त्रकारों ने राज-कर सम्बन्धी जो सिद्धान्त या नियम निश्चित किये है, वे उन उद्देश्यों से बिल्कुल मिलते-जुलते हैं, जिन उद्देश्यों से हिन्दू-राज्य की सृष्टि हुयी थी, और वे उद्देश्य इस प्रकार हैं- पोषण, कृषि, सम्पन्नता और क्षेम या कल्याण।
राजकर का निर्धारण धर्मशास्त्रों के अनुसार होता था और यह भी निश्चित था कि कौन-कौन सा कर किस हिसाब से लिया जाना चाहिए। अतः शासन प्रणाली का स्वरूप चाहे जो हो राजकर के विषय में शासक का मन चंचल नहीं होता था इसी कारण शासक और शासित वर्ग में संघर्ष अथवा मनमुटाव का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता था। मनु के अनुसार राजा यदि प्रजा की रक्षा न करता हुआ, प्रजा से करों द्वारा धन संचय करता है तो ऐसा राजा नरकगामी होता है और प्रजा के सम्पूर्ण पापों का भार वहन करने वाला बन जाता है। महाभारत के अनुसार, जो लोभी राजा ऐसा कर एकत्र करने के लिए, जो शास्त्रों से अनुमोदित नहीं है, मूर्खता पूर्वक अपनी प्रजा पर अत्याचार करता है, वह स्वयं अपने साथ अन्याय करता है। अभिलेखीय प्रमाणों द्वारा ज्ञात होता है कि राजकर सम्बन्धी नियमों का पालन भारतीय राजाओं द्वारा होता था। हम जानते है कि प्राचीन इतिहास में नन्द राजा अवैधानिक करों को ग्रहण करने के कारण प्रजा द्वारा घृणा के पात्र बन गये थे।
राजा की मुख्य आय कृषि उपज का निश्चित 'भाग' अथवा अंश था। बाजार में विक्रय के लिए आये हुए सामान में उसका अंश 1/10 अथवा परिस्थितियों के अनुसार होता था।
इसके अतिरिक्त आयात और निर्यात पर शुल्क लिया जाता था। इनकी दर आदि निश्चित करने में राजा को थोड़ी बहुत स्वतन्त्रता अवश्य थी।
हिन्दू राज्य-कर के सामान्य सिद्धान्त - राज्यकर पक्षपात रहित और न्याय संगत होना चाहिए। राजा को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि निर्दयतापूर्वक लगाये गये कर की अपेक्षा और दूसरी घृणा की कोई वस्तु नहीं हो सकती है। मनु सलाह देते हैं कि राजा को लालचवश होकर प्रजा की जड़ को नहीं काटना चाहिए। अधिक कर राजा और प्रजा दोनों के प्राण को क्षीण कर देता है। मनु ने कहा है कि जोंक, बछड़ा एवं मधुमक्खी की तरह कर थोड़ा-थोड़ा लेना चाहिए। राजा को न तो अपनी जड़ (कर न लेकर) और न दूसरों की जड़ (अधिक कर लेकर) काटनी चाहिए। यदि बछड़े को अधिक दूध पीने दिया जाय तो वह बलवान होकर अधिक (भारी) भार वहन करने और कष्ट सहने के योग्य होता है। अतः राजा को उक्त सिद्धान्त को ध्यान में रखकर प्रजा रूपी दूध दुहना चाहिए। जिस प्रकार माली फूलों को तोड़ता है, परन्तु वृक्षों को हानि नहीं पहुंचाता है, मुधमक्खी शहद को चूसती है पर पुष्प को क्षति नहीं पहुंचाती है उसी प्रकार राजा को कर ग्रहण करना चाहिए, परन्तु प्रजा को कोई कष्ट नहीं पहुंचना चाहिए।
उपर्युक्त इन सजीव उपमाओं और रूपों के आधार पर डी० एम० झा ने कहा है कि “यद्यपि कराधान राजा या राज्य की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सहायक होता है, पर प्रजा की जीविका के स्रोत को नष्ट करने के बदले इनके द्वारा उसके पास अपने भरण-पोषण के लिए पर्याप्त छोड़ देना चाहिए। इसकी तुलना सिस्मोन्डी के तीसरे नियम के साथ की जा सकती है जिसके अनुसार “कर दाताओं के अस्तित्व के लिए जो चीजें अनिवार्य हैं उन्हें कराधान से बिल्कुल मुक्त रखा जाना चाहिए"
प्रजा पर कर का बोझ साधारण होना चाहिए। बड़ी-बड़ी योजनायें उसी राज्य की सफल हो सकती हैं जबकि वहां का राजा कर को अधिक भारी नहीं बनाता है और राज्य की सुरक्षा को ध्यान देता हुआ अल्पव्ययता से शासन की बागडोर संभालता है।
राज्य कर संग्रह करते समय के सिद्धान्त
(1) मनु के अनुसार राज्य कर की न्यायोचित अवधारणा इस पर निर्भर करती थी कि राजा एवं कृषक अथवा व्यावसायिक वर्ग दोनों दल इस बात को सोंचे कि दोनों अपने परिश्रम के बदले में उचित फल पा चुके हैं।
(2) कर उचित स्थान, उचित काल और उचित रूप में लगाये जाने चाहिए। कर वसूलने के तरीके कष्टदायक नहीं होने चाहिए। गाय को दुहो परन्तु उसके स्तनों को मत नोचो।
(3) किसी वस्तु पर एक ही बार शुल्क वसूल किया जा सकता था, दुबारा नहीं।
(4) मनु ने लाभ पर कर लगाने का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है। इसके अनुसार किसी व्यवसाय अथवा आय के अन्य कार्यों में जो पूंजी लगायी जाती है उस पर कर नहीं लगता। इस पूंजी के लगने से जो लाभ होता है उसमें से व्यय आदि को निकालकर जो शुद्ध बचत होती है उस पर कर लगाना विधि विहित माना गया है।
(5) शिल्प आदि पर कर निर्धारित करते समय निम्नलिखित सिद्धान्त ध्यान में रखे जाते थे।
(i) सदैव इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि कितना परिश्रम लगा और कितना उत्पादन हुआ। इन बातों को सोंचे बिना कर नहीं लगाना चाहिए। शिल्प की वस्तुओं पर कर लगाते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि कितना लाभ होने पर कारीगर कोई चीज तैयार करने में लगा रहेगा, जिसमें राजा का भी लाभ होता रहेगा।
(ii) यह भी ध्यान में रहे कि शिल्पी की हालत कैसी है, कितनी लागत लगी, कितना सामान खर्च हुआ, वस्तु के निर्माण में उनके निर्वाह के लिए कितने धन की आवश्यकता पड़ी।
आयात पर कर लगाने के सिद्धान्त
(1) सौदागर अथवा व्यापारी का क्रय में कितना धन लगा, विक्रय कितने का हुआ, वस्तु कितनी से आई है, उसके आने में कितना व्यय पड़ा है इसके अतिरिक्त व्यापारी को कितनी कठिनाई उठानी पड़ी इन बातों को ध्यान में रखना चाहिए।
(2) यदि आयात राज्य के लिए हानिकारक है और आयात की गयी वस्तु निरर्थक अथवा शौक के लिए है तो उन पर अधिक कर लगाकर आयात कम किया जाना चाहिए।
(3) आयात की वस्तुओं से राज्य को यदि अधिक लाभ होता हो तो उन्हें निःशुल्क कर देना चाहिए।
(4) जो वस्तुएं देश में कम मिलती हों और वे भविष्य में उत्पत्ति के लिए बीज का काम दें तो उनका बिना शुल्क लिए आयात करना चाहिए।
(5) अर्थशास्त्र में निम्नलिखित वस्तुओं के आयात पर शुल्क लेना नहीं बतलाया गया है-
(i) अस्त्र शस्त्र।
(ii) धातु।
(iii) सेना के काम में आने वाले रथ आदि।
(vi) अप्राप्य या दुष्प्राप्य पदार्थ।
(v) अनाज।
(vi) पशु, आदि।
(6) विदेशी सुरा और घर में तैयार किये गये अरिष्ट पेयों आदि पर अधिक कर लगाया जाता था जिससे राज्य में बसने वाली ऐसी चीजों की कम बिक्री का हरजाना निकल आता था।
(7) यदि राज्य-कर में वृद्धि करना अनिवार्य हो गया हो तो यह कार्य धीरे-धीरे सम्पन्न होना चाहिए न कि अचानक।
(8) कम महत्व के पदार्थों पर कर नहीं लगना चाहिए।
(9) केवल आपातकाल में ही अतिरिक्त कर लगाये जा सकते थे।
दण्ड, भूमि-कर और शुल्क को बढ़ाकर राजा को कोष वृद्धि नहीं करनी चाहिए। तीर्थ एवं देव कर आपातकाल में छोड़कर और कभी भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। सामान्य समय में राजा भूमिकर को नहीं बढ़ा सकता था और न वह मन्दिरों अथवा पवित्र स्थानों की सम्पत्ति ही हड़प सकता था।
कर मुक्ति सिद्धान्त
(1) शुक्र के अनुसार - जो लोग नवीन उद्योग करें अथवा परती जमीन को कृषि योग्य बनायें या नये शहरों का निर्माण करें अथवा कूप तालाब आदि सिंचाई की वृद्धि हेतु खुदवायें उन पर कर तब तक न लगाया जाय जब तक कि वे अपनी लागत का दोगुना मुनाफा या लाभ न उठा लें। अर्थशास्त्र में कौटिल्य ने कर मुक्ति की विभिन्न अवधि बताई है:
(i) निर्माण कार्यों के लिए 5 वर्ष की कर मुक्ति।
(ii) पुनर्निर्माण कार्यों में 4 वर्ष की कर माफी।
(iii) सिंचाई आदि की वृद्धि के लिए 3 साल की शुल्क में छूट
(iv) परती भूमि को
यदि क्रय किया गया है तो उस पर दो वर्ष तक कर नहीं लिया जाना चाहिए।
(2) सैनिक, ग्राम जो सैन्य संगठनों के लिए व्यक्ति वृद्धि करते थे कर मुक्त किये जाते थे। गूंगे, बहरे एवं अंधे लोग अपनी अयोग्यता के आधार पर कर मुक्ति किये जाते थे। गुरुकुल में पढ़ने वाले छात्र जो समाज में किसी प्रकार की आय नहीं कर रहे थे वे भी कर मुक्त थे। प्रारम्भिक समय में स्त्रियां जिसके पास नगण्य सम्पत्ति थी वे भी कर मुक्त की जाती थी। परवर्तीयुग में जब उसके उत्तराधिकार सम्बन्धी अधिकार समाज ने मान लिए तो केवल विधवायें अथवा अनाथ स्त्रियां ही राज्य द्वारा कर मुक्त होती थी।
(3) क्षत्रिय ब्राह्मणों को मनु ने कर मुक्त घोषित किया है। विष्णुपुराण ने समस्त ब्राह्मण वर्ग को कर करने की संस्तुति दी है। शुक्र और सोम देव ने निःसंदेह यह कहा है कि आपातकाल में ब्राह्मणों और मन्दिरों से राजा कर वसूल कर सकता है। इससे यह प्रकट होता है कि सामान्य काल में इन पर कर नहीं लगाया जाता था। अधिकांश स्मृतियां ब्राह्मण को कर मुक्त बतलाती हैं।
महाभारत के अनुसार- जो ब्राह्मण सरकारी पद पर अधिक वेतन पा रहे हों अथवा ऐसे ब्राह्मण जो व्यवसाय, कृषि और पशुपालन द्वारा धन प्राप्त करें उन पर पूर्ण दरों से कर वसूल किया जाना चाहिए। डॉ. अल्तेकर का मत है कि जब ब्राह्मण लेखक स्वयं इस विषय पर एक मत नहीं हैं, अतः यह स्वाभाविक है कि समस्त राज्य इसका पालन नहीं कर रहे थे। मध्य युगीन भारत के कुछ अभिलेखों से ज्ञात होता है कि कभी-कभी सम्पूर्ण ब्राह्मण वर्ग कर मुक्त कर दिया जाता था। परमारवंश के राजा सोम सिंह देव विजयनगर के अच्युतराय राजा के अभिलेख और गुन्नूर जिले से दो अभिलेख इस तथ्य को प्रदर्शित करते हैं। परन्तु उपलब्ध साक्ष्यों द्वारा ज्ञात होता है कि इस प्रकार की कर छूट का सामान्य नियम नहीं था। ये अपवाद स्वरूप थे। ये अभिलेख राजा की प्रतिष्ठा बढ़ाने हेतु दिखाई पड़ते हैं। समकालीन दक्षिणी भारत के अभिलेखों द्वारा ज्ञात होता है कि जब भूमि अथवा ग्राम ब्राह्मणों अथवा मन्दिरों को दान में दी जाती थी उनसे निर्मुक्त लगान लिया जाता था। जब ब्राह्मण सरकारी लगान अथवा कर नहीं देते थे, तो उनकी जमीन विक्रय कर दी जाती थी। राज्य तीन महीने तक प्रतीक्षा करता था। इस अवधि के अन्त में भी यदि अदायगी ब्राह्मण द्वारा न हुयी हो तो उसके हिस्से को नीलाम कर दिया जाता था। अधिक से अधिक दो मास तक प्रतीक्षा की अवधि बढ़ायी जा सकती थी। फिर भी यदि अदायगी न की जाय तो ब्राह्मण की भूमि को निश्चय ही विक्रय कर दिया जाता था। डॉ. अल्तेकर का मत उचित दिखायी देता था कि सामान्यतः समस्त ब्राह्मणों को कर देना पड़ता था। केवल विद्वान और वे ब्राह्मण जिन्हें राज्य द्वारा कोई संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ वे कर मुक्त घोषित किये जाते होंगे।
डॉ. एन झा के अनुसार, जहां तक सिद्धान्त का प्रश्न है हमारे श्रोत-ग्रंथों में वर्णित कराधान के सिद्धान्त पर्याप्त ठोस प्रतीत होते हैं तथा जिस काल में इनका प्रतिपादन हुआ है उस काल पर विचार करने पर ये वित्तीय चिन्तन की काफी विकसित अवस्था का परिचय देते हैं।
कर वसूल करने का औचित्य
धर्मशास्त्रों के अनुसार राजा प्रजा की सुरक्षा करता है और वह इसके बदले प्रजा से कर पाता है। प्रजा की रक्षा करना राजा का महत्वपूर्ण कर्तव्य या अपनी इस सेवा के लिए कर रूपी वेतन लेता था। महाभारत में कर को राजा का वेतन बताया गया है। स्मृतियों में भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। मनु के अनुसार, प्रजा की रक्षा न करता हुआ यदि राजा प्रजा से करों का संचय करता है तो ऐसा राजा नरकगामी होता है और वह प्रजा के सम्पूर्ण पाप के भार का वहन करने वाला बन जाता।
वास्तव में कराधान के प्राचीन भारतीय सिद्धान्तों की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि कर राजा द्वारा प्रजा की सुरक्षा के लिए उसका प्रतिफल है। यू. एन. द्योपाल तथा अन्य विद्वानों के अनुसार प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में प्रतिपादित कराधान एवं सुरक्षा का पारस्परिक सम्बन्ध कराधान के तथाकथित पारिश्रमिक सिद्धान्त का ही महत्वपूर्ण पूर्वाभास है।
कराधान के प्रतिफल - सिद्धान्त की हिमायत करने वाले मनु एक जगह स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि राजा गुप्त कोष तथा खनिज पदार्थों में अपने हिस्से का अधिकारी इसलिए है कि वह सभी का अधिकारी है। इस विचार को गुप्तकालीन कात्यायन और भी स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि राजा कर का दावा इसलिए करता है क्योंकि वह सबका स्वामी है। डॉ. डी. एन झा टिप्पणी करते हुए कहते हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि भूमि पर राजा के सर्वोच्च स्वामित्व के विचार को गुप्तकाल में पर्याप्त लोकप्रियता मिली, क्योंकि कालीदास 'रघुवंश' में कहते हैं कि राजा पृथ्वी का वैसे ही उपभोग करता है जैसे इन्द्र स्वर्ग का।
“दिवं मुरूत्वानिव मोक्षति भुवं दिगन्तविश्रान्तरथो हि सत्सुतः।
अतैभिलाषै प्रथमं तथाविधे मनोवबन्धान्यरसान बिलध्य सा। "
कालिदास ने अज का चित्रण पृथ्वी के उपभोक्ता के रूप में किया है जो नवविवाहिता सी लगती है
हर्षचरित में भी पृथ्वी राजा की गोद में आराम से बैठी हुयी चित्रित की गयी है। परवर्ती गुप्त कालीन - ग्रन्थ 'कथासरित्सागर' में ऐसी कहानियाँ मिलती हैं जिनमें पृथ्वी अपने को किसी राजा की पत्नी घोषित करती है (4-175-6 आदि)। परवर्ती अभिलेखों में भी हमें राजा और पृथ्वी के सम्बन्ध के प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के 904 ई. के एक अभिलेखानुसार विजयादित्य ने पृथ्वी के प्रति वही सम्मान पूर्ण व्यवहार किया जो भाभी के प्रति किया जाता है। यहां राजा की पत्नी की भूमिका में. पृथ्वी स्पष्ट रूप से राजा की पोप्पा और उपभोगिका है। डॉ. डी. एन. झा ने टिप्पणी करते हुए कहा है, “डीरेंट के अनुसार, यह सोचना भी अप्राकृतिक होगा कि पति अपनी पत्नी का उपभोग प्रतिफल ( मजदूरी) के बदले करता है। गुप्त काल के विदित ग्रन्थ एवं साहित्यिक प्रमाण किसी ऐसी शक्तिशाली विचारधारा का संकेत नहीं देते जो राजकीय कराधान का समर्थन इस आधार पर करती हो कि राजा भूमि का स्वामी था।
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- प्रश्न- वैदिककालीन श्रेणी संगठन पर प्रकाश डालिए।
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