लोगों की राय

बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण

बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2762
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीएड सेमेस्टर-2 वाणिज्य शिक्षण - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय 3 - वाणिज्य शिक्षण के उद्देश्य

(Objectives of Commerce Teaching)

प्रश्न- वाणिज्य शिक्षण के महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों का वर्णन कीजिए।

अथवा
वाणिज्य का माध्यमिक स्तर पर पढ़ाने का क्या उद्देश्य है? स्कूल कार्यक्रम में. कहाँ तक इनको प्राप्त किया जा सकता है?

उत्तर-

उद्देश्य का अर्थ - उद्देश्य शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं- (i) उत (ii) दिश। उत का अर्थ है- उच्च और दिश का अर्थ है- दिशा।इस प्रकार उद्देश्य का अर्थ है कि वह किसी उच्च दिशा को संकेत दे। इस प्रकार उद्देश्य का एक उच्च दिशा तक पहुँचने हेतु व्यक्ति उस सीध में चलता है और अंत में वहाँ तक पहुँच जाता है।

वाणिज्य में उद्देश्यों पर विचार करने की आवश्यकता

शिक्षा के उद्देश्यों पर बिना विचार किए हुए शिक्षा की प्रक्रिया का संचालन अच्छी तरह नहीं किया जा सकता। विश्व में जितनी भी क्रियाएँ होती हैं वे किसी लक्ष्य की ओर उन्मुख होती हैं। जब भी कोई व्यक्ति किसी प्रक्रिया को शुरु करता है तो यह सोचकर करता है कि इसका अंत भी है। यदि वह व्यक्ति क्रिया प्रारम्भ करने से पहले ही उसके अंत को जान ले तो हम कहेंगे कि क्रिया के अंत की पूर्व दृष्टि ही एक प्रकार से क्रिया का उद्देश्य है।लक्ष्यविहीन प्रक्रिया किसी भी काम की नहीं। वैसले ने ठीक ही कहा है, "उद्देश्यों के ज्ञान के बिना अध्यापक उस नाविक के समान है जिसे अपने लक्ष्य का ज्ञान नहीं है तथा छात्र उस पतवारविहीन नौका के समान है जो समुद्र की लहरों में थपेड़े खाती तट की ओर बह रही है।” शिक्षा भी एक प्रकार की क्रिया है और इसका भी उद्देश्य होता है। लक्ष्यहीन शिक्षा बिना अर्थ की है।

शिक्षा के सम्पूर्ण ताने-बाने में लक्ष्यों का अधिकतम महत्त्व है। शिक्षण प्रणालियाँ पाठ्यक्रम, अनुशासन, स्कूल का कार्यक्रम आदि सब क्रियाएँ उद्देश्यों पर निर्भर हैं। यह उद्देश्य लोगों की महत्त्वाकांक्षाओं और देश की स्थितियों के अनुसार-परिवर्तित होते रहते हैं। जैसे-जैसे स्थितियाँ परिवर्तित होती हैं। यह उद्देश्य स्थिर या अटल न रहकर बदलते रहते हैं। देश व काल के अनुसार-इनका रूप बदलता रहता है। किसी भी राष्ट्र का जीवन दर्शन, राजनैतिक आदर्श तथा सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ उस देश के शैक्षिक उद्देश्यों को प्रभावित करते हैं।

इसलिए ऐसा कहने में जरा भी संकोच नहीं होना चाहिए कि किसी भी विषय के अध्ययन से पूर्व उसके उद्देश्यों को निर्धारित करना आवश्यक है। उद्देश्यों को निर्धारित किये बिना इनकी प्राप्ति के लिए किसी भी प्रकार के कार्यक्रम बनाना असम्भव है। अतः विषय वस्तु का चुनाव करने तथा विधियों का निर्णय करने से पूर्व उद्देश्यों को निश्चित करना अत्यावश्यक है। उद्देश्य शिक्षक तथा छात्रों को सही मार्ग पर रखने के लिए भी आवश्यक हैं कि उनके सामने निश्चित लक्ष्य हों, क्योंकि उद्देश्य तथा लक्ष्य जहाँ एक ओर आदर्श उपस्थित करते हैं वहीं दूसरी ओर उनकी प्राप्ति का सही मार्ग भी दर्शाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उद्देश्य आदर्शवादी होते हैं परन्तु फिर भी इनका होना बहुत जरूरी है। अन्य सभी विषयों की तरह वाणिज्य के भी अपने विशिष्ट उद्देश्य होते हैं तथा इसके अध्ययन से विशेष लाभ भी होते हैं।वाणिज्य अध्यापन के महत्त्वपूर्ण उद्देश्य निम्नलिखित हैं-

(i) मानव समाज की व्याख्या करना - वाणिज्य का पहला उद्देश्य उस मानव समाज की व्याख्या करना है जो कि भौतिक, प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक आदि वातावरण से निकला है। बालकों को उस वातावरण को अवश्य समझना होगा, जिसमें वे रहते हैं। उन्हें यह ज्ञात कराना होगा कि यह वातावरण कैसे अस्तित्त्व में आया। इसी प्रकार और किस सीमा तक यह व्यक्ति तथा समाज को प्रभावित करता है। किस प्रकार व्यक्ति, समुदाय मिलकर वातावरण को प्रभावित करते हैं। छात्रों को इस बात का ज्ञान करवाया जाए कि किस प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार की संस्थाओं का जन्म हुआ ? कैसे यह संस्थाएँ विकसित हुईं तथा किस प्रकार समय-समय पर बदलती हुई जरूरतों को पूरा करने हेतु उनमें कौन-से परिवर्तन हुए।

(ii) ज्ञान की प्राप्ति - अच्छी नागरिकता के लिए छात्रों में ज्ञान होना बहुत आवश्यक है। इससे आर्थिक प्रगति में बड़ी सहायता मिलती है। क्योंकि स्पष्ट चिन्तन तथा उचित निर्णय के लिए ज्ञान का होना अति आवश्यक है। वस्तुस्थिति के ज्ञान से भी बालकों की स्वाभाविक जिज्ञासा शान्त होती है। उनकी कल्पना शक्ति का विकास होता है तथा व्यक्तिगत रुचियों के निर्माण में मदद मिलती है। स्पष्ट चिन्तन व तर्कपूर्ण निर्णय के बिना आधुनिक सभ्यता की बहुत-सी बातों का समाधान नहीं हो सकता।वस्तुस्थिति का ज्ञान ही सहानुभूति व सद्भावना का आधार है जो आर्थिक दृढ़ता व आर्थिक आदान - प्रदान के लिए आवश्यक है। वाणिज्य का उचित ज्ञान सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था तथा सम्पूर्ण मानव-अनुभवों को परिवर्तन तथा विकास के माध्यम के रूप में दिखाता है। इससे बालकों को यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वैज्ञानिक प्रगति के कारण आर्थिक परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है तथा वर्तमान युग में व्यक्ति के स्थान पर 'अर्थव्यवस्था का महत्त्व बढ़ रहा है। कोठारी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, “आर्थिक ज्ञान से अध्ययन का उद्देश्य विद्यार्थियों को उनके वातावरण संबंधों की समझ और ऐसे अभिमत एवं मूल्यों में सहायक होने से है जो समुदाय, राष्ट्र तथा संसार के आर्थिक मामलों में विवेकपूर्ण ढंग से भाग लेने में उपयोगी हो।भारत में अच्छी नागरिकता और भावात्मक एकीकरण स्थापना के लिए आर्थिक ज्ञान का प्रभावी कार्यक्रम अनिवार्य है।

कोठारी आयोग के इस कथन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अच्छे नागरिक बनने तथा वातावरण को अच्छी तरह समझने हेतु बालक में एक निश्चित ज्ञान की मात्रा होनी चाहिए। बच्चा प्रकृति से जिज्ञासा रखता है। वह प्रकृति के भेदों को जानने के लिए बहुत उत्सुक है। वस्तुस्थिति के ज्ञान से बालकों की स्वाभाविक जिज्ञासा शांत होती है। इसके अलावा आधुनिक शिक्षा की धारणा भी बदल रही है। अर्थव्यवस्था के विकास के कारण आज के बालक को बहुत कुछ सीखना है, बहुत-सी बातों की जानकारी प्राप्त करनी है, अनन्त समस्याओं का समाधान ढूँढना है। ऐसा स्पष्ट चिन्तन तथा तर्कपूर्ण निर्णय के बिना नहीं हो सकता। इसके साथ-साथ स्पष्ट चिन्तन उचित अभिवृत्तियों का आधार होता है। इसलिए वस्तुस्थिति का ज्ञान ही बालकों में सहानुभूति व सद्भावना का विकास करेगा।

(iii) अच्छी नागरिकता - विगत 200 वर्षों से औद्योगिक क्रांति के कारण इसका सामाजिक 'संगठन पर भी प्रभाव पड़ा है। इस औद्योगिक प्रगति ने परिवार, धर्म और समुदाय को छिन्न-भिन्न करके रख दिया है। क्योंकि नए उद्योगों की स्थापना प्रायः नगरों में ही होने लगी और गाँवों में भूमि के सीमित होने और जनसंख्या के तेजी से बढ़ने के कारण लोगों ने अपने घरों को छोड़कर शहरों के कारखानों में काम करना शुरू कर दिया। इस प्रकार नगरों में आवास की कठिनाई और जटिल होती गई। इन श्रमिकों को गंदी बस्तिओं में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। गाँवों की संयुक्त परिवार प्रणाली लगभग समाप्त हो गई। नगरों में कारखाने के स्वामियों तथा श्रमिकों के मध्य तनाव बढ़ने लगे। इसलिए वाणिज्य को अच्छी राष्ट्रीय मजदूरी दर की शिक्षा देने के महत्त्व को बढ़ावा मिला।

(iv) चरित्र-निर्माण - चरित्र-निर्माण शिक्षा का एक विशेष उद्देश्य माना जाता है। वाणिज्य को छात्रों में कुछ गुणों का विकास करना अति आवश्यक है।जैसे- सहायता करने में तत्परता, त्याग करने की लालसा, परमार्थ की तीव्र उत्कंठा, सच्चाई तथा ईमानदारी के साथ आजीविका का प्रयत्न, कर्तव्यों के प्रति जागरुकता। बालकों में इन्हीं गुणों का होना चरित्र-निर्माण है। यह गुण केवल ज्ञान देने से उत्पन्न नहीं किये जा सकते। बालकों को ऐसे कार्यों में सम्मिलित करने का प्रोत्साहन देना चाहिए, जिनसे वे सद्व्यवहार और सद्विवेक प्रदर्शित कर सकें। वाणिज्य द्वारा व्यावहारिक पक्ष पर बल दिए जाने के कारण छात्रों में चरित्र-निर्माण की आशा की जा सकती है।

(v) उचित अभिवृत्तियों का विकास - छात्रों को केवल ज्ञान देना ही पर्याप्त नहीं है। सम्पूर्ण शिक्षा के लिए ज्ञान के साथ-साथ निर्माण कार्य, कौशल और उचित अभिवृत्तियों का विकास भी जरूरी है। उचित अभिवृत्तियाँ अच्छे व्यवहार का आधार हैं। यह अभिवृत्तियाँ बौद्धिक तथा भावात्मक दोनों प्रकार की हो सकती हैं। जिन अभिवृत्तियों में निर्णय तथ्यों पर आधारित होते हैं, व्यक्तिगत भावनाओं पर नहीं, उन्हें बौद्धिक प्रवृत्तियाँ कहा जा सकता है। परन्तु जिन अभिवृत्तियों का आधार ईर्ष्या, पूर्वाग्रह, आज्ञा का उल्लंघन, अभद्र व्यवहार हो, उन्हें भावात्मक अभिवृत्तियाँ कहते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह छात्रों की उचित अभिवृत्तियों के निर्माण में सहायता करे, परन्तु शिक्षक ऐसा तभी कर सकता है यदि उसमें स्वयं आत्मसंयम तथा सहानुभूति के गुण हों।

(vi) अपनत्व की भावना का विकास - भारत में अधिकांश लोगों का जीवन असंतोष से परिव्याप्त है। इस असंतोष के अनेकों कारण हैं- जैसे आर्थिक, सामाजिक, भावात्मक आदि। देश में बेरोजगारी, निर्धनता, रूढ़िवादिता, जनसंख्या में तीव्र गति से बढ़ोत्तरी, छात्र और युवा असंतोष आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे हैं। इस असंतोष की अभिव्यक्ति प्रायः तोड़-फोड़, मार-पीट, दंगे-फसाद आदि से दृष्टिगोचर होती है। यातायात के वाहनों को जलाना, सार्वजनिक भवनों को हानि पहुँचाना, हड़ताल, रास्ता रोको तथा बंद आदि नित्य का काम बन गया है। इसलिए वर्तमान समय में इस बात की शिक्षा देना अनिवार्य हो गया है कि सबमें अपनत्व की भावना जाग्रत हो।

(vii) आदतों तथा कौशलों का निर्माण - वाणिज्य में आदतों तथा कौशलों का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। आदत किसी कार्य को करने की सामान्य प्रवृत्ति है। कौशल साधारण आदतों का निर्माण, भावनाओं पर नियंत्रण तथा परिश्रम करने की आदतों का निर्माण करना है। इसी प्रकार वाणिज्य छात्रों को कुछ उपयुक्त कौशलों का प्रशिक्षण भी दे सकता है। जैसे-रूप-रेखों, चार्ट, ग्राफ तथा मॉडल आदि का निर्माण।

(viii) आर्थिक परिवर्तन हेतु तैयार करना - वाणिज्य में छात्रों को आर्थिक ढाँचे तथा आर्थिक प्रक्रियाओं का ज्ञान दिया जाता है ताकि वे आर्थिक परिवर्तन के लिए तैयार हों जो कि विज्ञान की उन्नति के कारण आवश्यक तौर पर आना है। यह विषय छात्रों को इस बात की जानकारी भी देता है कि आधुनिक युग में व्यक्तिगत अर्थव्यवस्था के स्थान पर सामूहिक अर्थव्यवस्था प्रचलित है।

(ix) बालकों के जीवन को उनके वातावरण के अनुसार-ढालना - छात्रों को इतिहास, भूगोल, नागरिक शास्त्र व समाजशास्त्र को वाणिज्य के रूप में एकीकृत सामग्री से अपने वातावरण के विभिन्न तत्त्वों को भली प्रकार से समझ लेना चाहिए। उन्हें मानव द्वारा वर्तमान तथा भूतकाल में किए गए संघर्षों. का ज्ञान होना चाहिए तथा भावी प्रगति की दिशा में अर्थव्यवस्था में अपने व्यक्तिगत योगदान के बारे में सोचना चाहिए।

(x) अवकाश के समय के सदुपयोग में सहायक - वैज्ञानिक उन्नति के कारण आज मनुष्य को पर्याप्त अवकाश का समय मिलने लगा है। व्यक्ति को अवकाश के समय का सदुपयोग की ओर प्रेरित करना शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है तथा वाणिज्य इस उद्देश्य की पूर्ति में महत्त्वपूर्ण सहयोग प्रदान करता है।वाणिज्य व्यक्ति में आर्थिक, राजनैतिक, दार्शनिक तथा भ्रमणात्मक रुचियाँ विकसित करता है। यही रुचियाँ उसे अवकाश काल के सदुपयोग में सहायक सिद्ध होती हैं। अतः वाणिज्य शिक्षण का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य व्यक्ति में ऐसी रुचियाँ विकसित करना भी है जो उसे अवकाश काल के सदुपयोग में मददगार सिद्ध हों।

(xi) व्यक्तित्त्व के सर्वांगीण विकास के लिए - शिक्षा का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्त्व का सर्वांगीण विकास करना है। वाणिज्य का शिक्षण इस उद्देश्य की पूर्ति में अनिवार्य भूमिका निभाता है। इसी के माध्यम से व्यक्ति में उन सभी गुणों का विकास होता है जो उसके व्यक्तित्त्व का सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर करे। वाणिज्य छात्रों को मानव पूँजी एवं विकास के इतिहास के प्रति सचेत करके आर्थिक विकास की ओर अग्रसर करता है।वाणिज्य समाज की संरचना की पृष्ठभूमि में सम्मिलित संघर्षों का ज्ञान देकर उन्हें आर्थिक चुनौतियों के योग्य बनाता है, भावी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए उनमें सद्भावना, सद्विचार, स्वस्थ चिन्तन, आर्थिक समता, सहयोग, आत्मनिर्भरता, उदारता, सहनशीलता आदि गुणों को विकसित करता है।

(xii) समस्या के समाधान की योग्यता का विकास - जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मनुष्य के सामने विविध तरह की समस्याएँ खड़ी हुई हैं, जैसे औद्योगिक समस्याएँ, राजनैतिक समस्याएँ, धार्मिक तथा आर्थिक समस्यों इत्यादि।इन कठिनाईयों के समाधान में वर्तमान तथा भावी पीढ़ी को महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है।परन्तु यह तभी संभव हो सकता है जब उनमें इन कठिनाईयों को उचित परिपेक्ष्य में समझने की योग्यता हो। इस योग्यता के विकास में वाणिज्य शिक्षण से बहुत मदद मिल सकती है।

(xiii) आर्थिक उद्देश्य - व्यवसाय का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य आर्थिक है, क्योंकि इसके बिना व्यवसाय का अस्तित्त्व ही नहीं होता और बिना इस अस्तित्त्व के अन्य उददेश्यों को अर्जित करने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता।उचित तो यह है कि सभी व्यवसाय आर्थिक उद्देश्यों की उपलब्धि के लिए जाने जाते हैं। आर्थिक उद्देश्यों का पठन निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है-

(क) लाभ कमाने का उद्देश्य - व्यवसाय का मुख्य उद्देश्य लाभ कमाना होता है। प्रायः व्यक्ति व्यावसायिक कार्यों को लगन के साथ केवल इसीलिए सम्पादित करता है कि उसे कार्य समाप्ति के बाद कुछ आर्थिक लाभ होगा। आर्थिक लाभ की सम्भावना न होने पर कोई भी मनुष्य कार्य करने के लिए तैयार नहीं होगा। अतः लाभ वह प्रेरित शक्ति है जो किसी व्यवसाय को रेल के इंजन की तरह आगे खींचकर लें जाता है अर्थात् व्यवसाय को विस्तृत एवं सुदृढ़ बनाता है।

पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में व्यवसायी के लिए फायदा कमाना ही सबसे ऊपर उद्देश्य रहा है। इसलिए बनार्ट शॉ ने कहा है, "पूँजीवाद में कोई आत्मा नहीं होती, इसका ईश्वर स्वर्ग हैं तथा अभिलाषा लाभ।” कार्ल मार्क्स का कथन भी शॉ के कथन से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। उसके अनुसार-  “आज के उद्योगपति समाज की आवश्यकताओं की संतुष्टि पर विशेष ध्यान नहीं देते। उनका उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाने पर ही केन्द्रित होता है। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए ही वे उत्पादन करते हैं।"

(ख) ग्राहक निर्माण और नव प्रवर्तन - ग्राहक निर्माण का तात्पर्य है- नये-नये बाजारों से ग्राहकों को खोजना, उन्हें वस्तु के नये उपयोग बताकर उसकी मांग बढ़ाना और वस्तु को बढ़िया और किफायती बताकर प्रतियोगी संस्था के ग्राहकों को अपनी ओर आकर्षित करना आदि। इस सम्बन्ध में पीटर ड्रकर का कथन है, “ग्राहक निर्माण ही व्यवस्था है तथा ग्राहक ही इस बात का निर्णायक है कि.. व्यवसाय क्या है?” नव प्रवर्तन से अर्थ है नये उत्पाद तैयार करना, उत्पाद को नये ढंग से प्रस्तुत करना, उत्पाद प्रक्रिया में सुधार करना, किफायती और उपयोगी उत्पाद बनाना आदि।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book