बी एड - एम एड >> बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीएड सेमेस्टर-2 चतुर्थ (A) प्रश्नपत्र - पर्यावरणीय शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- मानव व पर्यावरण सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
(Man-Environment Relation ship)
मनुष्य की प्रकृतिक पर्यावरण के साथ दो तरफा भूमिका होती है। अर्थात् मनुष्य एक तरफ तो भौतिक पर्यावरण के जैविक संघटक का एक महत्वपूर्ण भाग तथा घटक है तो दूसरी तरफ वह पर्यावरण का वह महत्वपूर्ण कारक भी है। इस तरह मनुष्य प्राकृतिक पर्यावरण तन्त्र को विभिन्न हैसियत से विभिन्न रूपों में प्रभावित करता है जैसे- जीवीय या भौतिक मनुष्य के रूप में, सामाजिक मनुष्य के रूप में, आर्थिक मनुष्य के रूप में तथा प्रौद्योगिक मनुष्य के रूप में। मनुष्य के प्राकृतिक गुण प्राकृतिक पर्यावरण से उसी प्रकार नियंत्रित व प्रभावित होते हैं जैसे कि पर्यावरण में अन्य जीवों के प्राकृति गुण प्रभावित व नियंत्रित होते है । परन्तु चूँकि मानव अन्य प्राणियों की तुलना में शारीरिक एवं मानसिक स्तरों, अन्तः प्रौद्योगिकीय स्तर पर भी सर्वाधिक विकसित प्राणी है अतः वह प्राकृति पर्यावरण को बड़े स्तर पर परिवर्तित करके अपने अनुकूल बनाने में समर्थ भी है। प्रारम्भ में आदिमानव की भौतिक पर्यावरण की कार्यात्मकता में भूमिका दो तरह की होती थी : पाता तथा दाता की। अर्थात मनुष्य अन्य जीवों के समान भौतिक पर्यावरण से संसाधन प्राप्त करता था तथा पर्यावरणीय संसाधनों में अपना योगदान भी करता था। इस तरह मानव संस्कृति के विकास के प्रथम चरण में मनुष्य भौतिक पर्यावरण का अन्य कारकों के समान एक कारक मात्र था परन्तु जैसे- जैसे उसके समाज तथा उसकी संस्कृति के विकास के साथ उसकी बुद्धि उसका कौशल तथा उसकी प्रौद्योगिकी विकसित होती गयी, पर्यावरण के साथ उसकी भूमिका तथा सम्बन्ध में भी उत्तरोतर परिवर्तन होता गया। इस तरह यदि ऐतिहासिक परिवेश में देखा जाए तो मानव की पर्यावरण के साथ भूमिका प्रारम्भ में पर्यावरण के कारक के रूप में थी, जो समय के साथ बदलती गयी। जो - मानव प्रारम्भ में प्रकृति का अंग तथा साझीदार था वही आगे चलकर उसका स्वामी बन बैङ्गा । अतः मानव तथा पर्यावरण के मध्य सहभागिता तथा परस्परावलम्बन का सम्बन्ध चरमरा गया और मानव प्राकृतिक पर्यावरण का कारक व पालक न होकर उसका विध्वंक हो गया।
मनुष्य तथा पर्यावरण के मध्य बदलते सम्बन्धों के ऐतिहासिक परिवेश में अध्ययन का अत्यधिक महत्व होता है क्योंकि इस तरह के अध्ययन द्वारा मानव के क्रियाकलापों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले बढ़ते कुप्रभावों को अच्छी तरह उजागर किया जा सकता है। प्रागैतिहासिक काल से वर्तमान समय तक मानव-पर्यावरण के मध्य बदलते सम्बन्धों को निम्न चार भागों में विभाजित किया जाता है-
1. आखेट एवं भोजन संग्रह काल - यह काल मानव संस्कृति तथा सभ्यता के प्रारम्भिक काल तथा आदिमानव से सम्बन्धित है। इसे प्रागैतिहासिक काल भी कहते हैं। इस काल में मानव प्राकृतिक पर्यावता का एक अभिन्न भाग तथा घटक था। आदि मानव उदर की पूर्ति के लिए आस- पास के जंगलों पर निर्भर था। उसे किसी स्थायी आवास की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वह चला-फिरता घूमन्तु प्राणी था तथा पेड़ों पर या गुफाओं में अपनी राते गुजार देता था। इस प्रकार आदि मानव प्राकृतिक पर्यावरण पर पूर्णरूपेण निर्भर था। ज्ञातव्य है कि आदि मानव भी पर्यावरण से अपने लिए संसाधन प्राप्त करता था। परन्तु इससे पर्यावरण पर किसी प्रकार का लेशमात्र भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ता था।
डी.बी. बाटकिन तथा ई.ए. केलार (1982) के शब्दों में - इस काल की सबसे बड़ी विशेषता थी- आग के रूप में मनुष्य के हाथ में लगने वाले एक पारिस्थितिकीय यन्त्र की उपलब्धि। मनुष्य इस यन्त्र का पर्यावरण में परिवर्तन करने के लिए उपयोग करने लगा।
2. पशुपालन एवं पशुचारण काल - पशुपालन ने आदि मानव में सामूहिक जीवन को भी जन्म दिया क्योंकि अपने को तथा अपने पालतू जानवरों की हिंसक जंगली जानवरों से सुरक्षा हेतु जनसमुदाय का एक साथ रहना अनिवार्य हो गया होगा। परन्तु सामूहिक जीवन के साथ-साथ उनका घुमक्कड़ जीवन बना रहा क्योंकि उन्हें भोजन, जल तथा पशुओं के चारे के लिए के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जान पड़ता था। इनके तथा इनके पालतू पशुओं के आवास अब भी अस्थायी हुआ करते थे। स्मरणीय है कि समय के साथ पालतू पशुओं तथा मनुष्य की संख्या में वृद् िहोती गयी जिस कारण पर्यावरण के संसाधनों का उपयोग भी बढ़ता गया परन्तु इसका प्राकृतिक पर्यावरण पर कोई खास प्रभाव नहीं हो पाया था क्योंकि पालतू पशुओं तथा मनुष्यों की सीमा अब भी सीमित थी। अतः मानव के क्रिया-कलापों द्वारा पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को प्राकृतिक पर्यावरण तन्त्र पर प्राकृतिक परिस्थितिक तन्त्र अपने अन्दर आत्मसात् करने में सक्षम था।
बाटकिन तथा केनर (1982) के अनुसार आदि मानव ने निम्न रूपों में प्राकृतिक पर्यावरण में परिवर्तन किया-
• आहार के लिए जंगली जानवरों का शिकार करके,
• आखेट द्वारा कुछ पशुओं की संख्या कम करके,
• प्राकृतिक आवास को बदलकर कुछ पशुओं की संख्या कम करके तथा कुछ की संख्या बढ़ाकर
• अपने तथा अपने पालतू पशुओं के आवास के लिए तथा मार्ग के लिए वनों को जलाकर,
• पशुओं तथा कुछ पौधों को पालतू बनाकर,
• जंगलों को जलाकर स्थान विशेष के पारिस्थितिकीय पयावरण को बदलकर,
• वनों से लकड़ियाँ, पत्तियों तथा पशुओं के लिए चारे का विदोहन करके,
• एक स्थान से दूसरे स्थान में कुछ जन्तुओं का स्थानान्तरण करके।
3. पौध पालन एवं कृषिकाल - पौध पालन मनुष्य द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण के जैविक संघटकों पर विजय हासिल करने का महत्वपूर्ण प्रयास माना जाता है। वास्तव में समय के साथ- साथ मनुष्य में बुद्धि कौशल में निरन्तर विकास होता गया। वह धीरे-धीरे प्रकृति को काबू करने में प्रयत्नशील होता रहा और पशुपालन के बाद पौध पालन उसकी बुद्धि में निरन्तर विकास की अगली कड़ी था। स्पष्ट है कि सामाजिक स्तर पर संगङ्गित मानव समुदाय एवं मानव समाज, मानव सभ्यता तथा कृषि कार्य के अभ्युदय ने मनुष्य तथा पर्यावरण के मध्य अब तक चले आ रहे मित्रवत तथा मधुर सम्बन्धों में पर्याप्त परिवर्तन किया । कृषि रूपों तथा कृषि कार्यों में निरन्तर सुधार, परिमार्जन तथा प्रगति के फलस्वरूप मानव जनसंख्या में भी निरन्तर वृद्धि होती गयी। परिणामस्वरूप अधिकाधिक वनों को साफ करके कृषि भूमि में परिवर्तित किया जाने लगा। अब तक मनुष्य के पास पहले की तुलना में बेहतर औजार हथियार तथा यन्त्र सुलभ थे। वनों के जलाकर साफ करके कृषि भूमि बनाना आम प्रथा हो गयी थी । एक स्थान पर जनाधिक्य हो जाने पर लोगों में अच्छे क्षेत्र की तलाश में अन्यत्र जाने की प्रवृत्ति भी जागृत हो गयी थी। इस प्रवृत्ति के कारण जनसंख्या में विस्तारण प्रारम्भ हो गया था। जनसंख्या के इस प्रवजन के कारण प्राकृतिक पर्यावरण के विनाश में भी विस्तारण प्रारम्भ हो गया था । स्थानान्तरण कृषि द्वारा वनों का सर्वाधिक विनाश होने लगा।
कालान्तर में मानव ने नई प्रौद्योगिकी का विकास किया तथा अपने निजी पर्यावरण का विकास किया। मानव के इस स्वनिर्भित निजी पर्यावरण को सांस्कृतिक पर्यायवरण कहते हैं। इसके अन्तर्गत उसने अपने रहने के लिए भवनों, गाँवों, कस्बों, नगरों आदि का निर्माण किया, सामाजिक संस्थानों यथा विद्यालयों का निर्माण एवं विकास किया, पूजाघरों का निर्माण किया, यातायात के लिए सड़कें पुल- रेल आदि बनायीं।
ज्ञातव्य है कि सांस्कृतिक पर्यावरण के ये तथा अन्य कई तत्वों का विकास एवं सम्वर्द्धन कृषि विकास के विभिन्न चरणों एवं अवस्थाओं में सम्भव हो पाया था। इस तरह विकसित प्रौद्योगिकी ने भौतिक मानव तथा जैविक मानव को आर्थिक मानव में बदल दिया । यद्यपि मानव के कृषि कार्यो । से पर्यावरण में कोई महत्वपूर्ण विनाश तो नहीं हुआ परन्तु पर्यावरण में परिवर्तन अवश्य हुए। यद्यपित मनुष्य पर्यावरण के प्राकृतिक संसाधनों को अपने अनुकूल बनाने में समर्थ हो गया था परन्तु प्रकृति अब भी सर्वोपरि थी। उसका मानव के क्रिया-कलापों पर नियन्त्रण एवं प्रभुत्व अब भी कायम रहा तथा मानव अब भी भौतिक पर्यावरण द्वारा निर्देशित होता रहा।
4. विज्ञान, प्रौद्योगिकी तथा औद्योगिकीकरण काल - विज्ञान एवं अत्यधिक विकसित, परिमार्जित एवं दक्ष प्रौद्योगिकी के प्रादुर्भाव के साथ उन्नीसवीं शदी के उत्तरार्द्ध में औद्योगिक क्रान्ति का उदय हुआ । इसी औद्योगिकीकरण के साथ मनुष्य तथा पर्यावरण के मध्य महत्वपूर्ण शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों की शुरूआत हुई । आर्थिक निश्चयवाद की अतिवादी संकल्पना, पश्चिमी दुनियां के लोगों के भौतिकतावादी दृष्टिकोण तथा आधुनिक प्रौद्योगिकीय, मानव की अति विकसित किन्तु जानलेवा प्रौद्योगिकी एवं वैज्ञानिक तकनीक के फलस्वरूप प्राकृतितक संसाधनों का औद्योगिक विकास, नगरीकरण के लिए अविवेकपूर्ण एवं लोलुपतापूर्ण धुआंधार विदोहन एवं उपयोग प्रारम्भ हो गया। इस कारण अनेकों भयावह तथा जानलेवा पर्यावरणीय समस्याओं का प्रादुर्भाव हुआ है। आधुनिक प्रौद्योगिकीय के मानव के प्राकृतिक पर्यावरण के किसी एक घटक में मनुष्य द्वारा परिवर्तन के कारण जीवमण्डलीय परिस्थितिक तन्त्र के जैविक एवं अजैविक संघटकों में श्रृंखलाबद्व परिवर्तन होते है जिस कारण अनेक पर्यावरणीय पारिस्थितिकीय समस्यायें पैदा हो जाते हैं।
प्रत्यक्ष या सोद्देश्य प्रभाव सुनियोजित एवं संकल्पित होते हैं क्योंकि किसी भी क्षेत्र में आर्थिक विकास के लिए भौतिक पर्यावरण को परिवर्तित या रूपान्तरित करने के लिए चलाये जाने वाले किसी भी कार्यक्रम से उत्पन्न होने वाले भावी परिणामों से मनुष्य अवगत रहता है।
मनुष्य के पर्यावरण पर होने वाले प्रभावों को सारांशतः निम्न प्रकार से वर्णित किया जा सकता है-
1. भूमि उपयोग में विभिन्न कार्यों द्वारा प्राकृतिक पर्यावरण में असन्तुलन,
2. उत्खनन तथा खनन कार्यों द्वारा सतह पर गढ़ढ़ों एवं मलवा के ढेरों का निर्माण,
3. नदियों की बाढ़ के रोकथा के लिए नदियों की जल धाराओं के मार्ग की दिशा में परिवर्तन करके, नदियों में किनारों पर तटबन्धों का निर्माण करके, नदियों की प्रकृति में परिवर्तन आदि द्वारा नदियों के प्राकृतिक स्वरूप में बदलाव,
4. आधुनिक कृषि की विधियों द्वारा भूमि में परिवर्तन,
5. नगरीकरण एवं औद्योगीकरण द्वारा वायुमण्डल की रासायनिकी में परिवर्तन,
6. परमाणु कार्यक्रमों द्वारा - वायुमण्डलीय दशाओं में परिवर्तन तथा रेडियोएक्टिव प्रदूषण,
7. सिंचाई तथा पेयजल की आपूर्ति के लिए भूमिगत जल के अत्यधिक विदोहन द्वारा सतह के नीचे बड़े-बड़े कोटरों के निर्माण के कारण धरातलीय सतह का ध्वस्त होना।
8. वन विनाश के कारण भूमि के अपरदन में वृद्धि होने से नदियों में अवसादभार में वृद्धि नदियों के तली के भराव तथा नदियों की घाटियों की तलधारा की क्षमता में कमी होने से बाढ़ की आवृत्ति तथा विस्तार में निरन्तर वृद्धि।
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