बी ए - एम ए >> बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षा बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- सीखने के सिद्धान्तों की विस्तार से व्याख्या कीजिए।
अथवा
सीखने के सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिये।
अथवा
सीखने के सिद्धान्त पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
सीखने या अधिगम के सिद्धान्त
निःसंदेह अधिगम का प्रत्यय शिक्षा मनोविज्ञान का एक अत्यंत महत्वपूर्ण प्रत्यय है। हम जानते हैं कि अभ्यास या अनुभूति के फलस्वरूप बालक अधिगम क्रिया को सम्पन्न कर पाता हैं। इस अधिगम का उद्देश्य व्यक्ति को समायोजन करने में सहायता देना है। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। अधिगम के इन सिद्धान्तों को दो मुख्य भागों में विभाजित किया जा सकता है
(A) अधिगम के साहचर्य सिद्धान्त - इस सिद्धान्त को मानने वाले मनोवैज्ञानिकों का मत है। कि उत्तेजक तथा उसके प्रभाव से उत्पन्न अनुक्रिया के बीच जो सम्बन्ध स्थापित होता है, उसका आधार पुनर्बलन होता है। इससे उत्तेजना व अनुक्रिया के मध्य स्थायी बंधन बनता है। स्नायु संस्थान में यही बंधन व्यवहार परिवर्तन या नवीन व्यवहार सीखने में सहायक होता है। इस प्रकार उत्तेजक तथा अनुक्रिया के मध्य क्रिया-प्रतिक्रिया होती है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति नये व्यवहार सीखता है। इस सिद्धान्त को मानने वाले मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोगों द्वारा उन कारकों को खोज निकाला है जिसके कारण सीखने की प्रक्रिया पूरी होती है। इस सिद्धान्त का सूत्र है - S → R यहाँ 'S' = Stimulus, 'R' = Response
(B) अधिगम के ज्ञानात्मक क्षेत्र का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के प्रतिपादक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि उत्तेजक तथा अनुक्रिया के मध्य केवल यंत्रवत सम्बन्ध स्थापित नहीं होते बल्कि इन दोनों के मध्य व्यक्ति की वैयक्तिकता, उसकी इच्छाएँ, भावनाएँ, क्षमता, अभिरुचि, अभिवृत्ति, मूल्य, पूर्व अनुभव एवं प्रशिक्षण आदि अनेक तत्व हैं, जो सीखने की क्रिया को प्रभावित करते हैं। यही कारण है कि एक ही उत्तेजक की स्थिति पर विभिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुक्रिया करते हैं। इस सिद्धान्त को निम्न सूत्र द्वारा अभिव्यक्त किया जा सकता है।
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इस सिद्धान्त के प्रवर्तकों का मत है कि उत्तेजक तथा अनुक्रिया के मध्य व्यक्ति का मस्तिष्क नियंत्रण का कार्य करता है। वह विभिन्न क्रियाओं तथा व्यवहारों को नियंत्रित करता है, निर्देशित करता है तथा उनमें परिवर्तन लाता है। इस सिद्धान्त के मनोवैज्ञानिक सीखने वाले को एक गत्यात्मक शक्ति के रूप में मानते हैं जो वातावरण से क्रिया-प्रतिक्रिया करके सीखता है।
(A) अधिगम के साहचर्य सिद्धान्त-
(1) थार्नडाइक का सम्बन्धवाद,
(2) पावलव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त,
(3) स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त,
(4) हल का प्रबलन सिद्धान्त,
(5) गुथरी का सामीप्य सम्बन्धवाद।
(1) थार्नडाइक का सीखने का सिद्धान्त - थार्नडाइक ने 1913 में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान में सीखने का एक नवीन सिद्धान्त प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त को विभिन्न नामों से जाना जाता है, यथा-
(i) थार्नडाइक का सम्बन्धवाद,
(ii) सम्बन्धवाद,
(iii) उद्दीपन-प्रतिक्रिया सिद्धान्त,
(iv) सीखने का सम्बन्ध-सिद्धान्त,
(v) प्रयत्न एवं भूल का सिद्धान्त।
सिद्धान्त का अर्थ - जब व्यक्ति कोई कार्य सीखता है, तब उसके सामने एक विशेष स्थिति या उद्दीपक होता है, जो उसे एक विशेष प्रकार की प्रतिक्रिया करने के लिए प्रेरित करता है। इस प्रकार, एक विशिष्ट उद्दीपक का एक विशिष्ट प्रतिक्रिया से सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, जिसे उद्दीपक प्रतिक्रिया सम्बन्ध (S-R Bond) द्वारा व्यक्त किया जा सकता है। इस सम्बन्ध के फलस्वरूप, जब व्यक्ति भविष्य में उसी उद्दीपक का अनुभव करता है, तब वह उससे सम्बन्धित उसी प्रकार की प्रतिक्रिया या व्यवहार करता है।
थार्नडाइक द्वारा सिद्धान्त की व्याख्या - थार्नडाइक ने अपने सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए लिखा है - "सीखना, सम्बन्ध स्थापित करना है। सम्बन्ध स्थापित करने का कार्य, मनुष्य का मस्तिष्क करता है।" थार्नडाइक की धारणा है। सीखने की प्रक्रिया में शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का विभिन्न मात्राओं में सम्बन्ध होना आवश्यक है। यह सम्बन्ध विशिष्ट उद्दीपकों और विशिष्ट प्रतिक्रियाओं के कारण स्नायुमण्डल में स्थापित होता है। इस सम्बन्ध की स्थापना, सीखने की आधारभूत शर्त है। यह सम्बन्ध अनेक प्रकार का हो सकता है। इस पर प्रकाश डालते हुए बिगी एवं हण्ट ने लिखा है - "सीखने की प्रक्रिया में किसी मानसिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से, शारीरिक क्रिया का मानसिक क्रिया से, मानसिक क्रिया का मानसिक क्रिया से या, शारीरिक क्रिया का शारीरिक क्रिया से सम्बन्ध होना आवश्यक है।"
थार्नडाइक का प्रयोग - प्रयास तथा त्रुटि के सिद्धान्त के प्रवर्तक थार्नडाइक ने एक भूखी बिल्ली को पिंजड़े में बन्द करके यह प्रयोग किया। भूखी बिल्ली पिंजड़े के बाहर रखा मछली का टुकड़ा प्राप्त करने हेतु, पिंजड़े से बाहर आने के अनेक त्रुटिपूर्ण प्रयास करती रही अंततः वह पिंजड़ा खोलना सीख गई।
बिल्ली के समान बालक भी चलना, जूते पहनना, चम्मच से खाना आदि क्रियायें सीखते हैं। वयस्क लोग भी ड्राइविंग, टेनिस, क्रिकेट आदि खेलना, टाई की गाँठ बाँधना इसी सिद्धान्त के अनुसार सीखते हैं।
थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर सीखने के कतिपय नियमों का प्रतिपादन किया। इन नियमों को मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
(क) मुख्य नियम-
(i) तत्परता का नियम,
(ii) अभ्यास का नियम,
(iii) प्रभाव का नियम।
(ख) गौण नियम-
(i) बहु-अनुक्रिया का नियम,
(ii) मानसिक स्थिति का नियम,
(iii) आंशिक क्रिया का नियम,
(iv) सादृश्य अनुक्रिया का नियम।
(2) पॉवलव का अनुकूलित अनुक्रिया का सिद्धान्त - सम्बद्ध प्रतिक्रिया सिद्धान्त का प्रतिपादन रूसी शरीरशास्त्री आई. पी. पॉवलव ने किया था। इस सिद्धान्त को सम्बन्ध प्रत्यावर्तन का सिद्धान्त भी कहते हैं। इस मत के अनुसार सीखना एक अनुकूलित अनुक्रिया है। बर्नार्ड के शब्दों में - "अनुकूलित अनुक्रिया उत्तेजना की पुनरावृत्ति द्वारा व्यवहार का स्वचालन है जिसमें उत्तेजना पहले किसी विशेष अनुक्रिया के साथ लगी रहती है और अंत में वह किसी व्यवहार का कारण बन जाती है जो पहले मात्र रूप के साथ लगी हुई थी।"
यह माना जाता है कि उद्दीपक के प्रति अनुक्रिया करना मानव की प्रवृत्ति है। जब मूल उद्दीपक के साथ एक नवीन उद्दीपक प्रस्तुत किया जाता है तथा कुछ समय पश्चात् जब मूल उद्दीपक को हटा दिया जाता है तब नवीन उद्दीपक से भी वही अनुक्रिया होती है जो मूल उद्दीपक से होती है। इस प्रकार अनुक्रिया नये उद्दीपक के साथ अनुकूलित हो जाती है। यह प्रक्रिया पावलव द्वारा किये गये निम्नलिखित प्रयोग से स्पष्ट हो जाती है-
पॉवलव का प्रयोग - पॉवलव ने कुत्ते पर प्रयोग किया। कुत्ते को भोजन देते समय वह कुछ दिन घंटी बजाता रहा। उसके बाद उसने उन्हें भोजन न देकर केवल घंटी बजायी, तब बी कुत्ते के मुख से लार टपकने लगी क्योंकि कुत्ते ने यह सीख लिया था कि घंटी बजने पर भोजन की प्राप्ति होती है। घण्टी के प्रति कुत्ते की इस प्रक्रिया को पॉवलव ने सम्बद्ध सहज क्रिया या सम्बद्ध प्रतिक्रिया कहा।
इस प्रकार के सीखने की प्रक्रिया को, जहाँ अस्वाभाविक उत्तेजक स्वाभाविक उत्तेजक का स्थान ग्रहण कर ले, अनुकूलित अनुक्रिया द्वारा सीखना कहा है। अनुकूलित अनुक्रिया का तंत्र इस आधार पर विकसित होता है-
1. स्वाभाविक उत्तेजक भोजन (UCS) - स्वाभाविक अनुक्रिया लार (UCR)
2. अस्वाभाविक + स्वाभाविक उत्तेजक - स्वाभाविक अनुक्रिया
घंटी की आवाज + भोजन - लार का टपकना (UCR)
3. अनुकूलित उत्तेजक - अनुकूलित अनुक्रिया
घंटी की आवाज (C.S.) लार (CR)
UCS → Unconditioned Stimulus
CS → Conditioned Stimulus
UCR → Unconditioned Response
CR → Conditioned Response
अनुकूलित अनुक्रिया सिद्धान्त सम्बद्ध सहज क्रिया पर आधारित होती है। इस पर किसी सीमा तक सीखने की क्रिया निर्भर करती है।
(3) स्किनर का क्रिया प्रसूत अनुबंधन का सिद्धान्त - स्किनर द्वारा प्रतिपादित अधिगम के सिद्धान्त को कार्यात्मक अनुबन्धन कहते हैं। प्रोफेसर स्किनर हावर्ड विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के प्रोफेसर थे। उन्होंने व्यवहार का व्यवस्थित एवं वस्तुनिष्ठ अध्ययन करने के लिये एक यंत्र विकसित किया तथा अवलोकन की विधि का चयन किया। स्किनर एक व्यावहारिक मनोवैज्ञानिक थे जिन्होंने चूहे तथा कबूतरों की विभिन्न सहज क्रियाओं पर अनेक प्रयोग किये। अंत में उन्होंने खाने की क्रिया को अध्ययन का विषय माना क्योंकि यही सबसे अधिक साधारण क्रिया थी और थोड़े समय में इसके सम्बन्ध में अधिक तथ्य एकत्रित किये जा सकते थे। व्यवहार के अध्ययन की यह विधि बाद में इतनी लोकप्रिय हो गई कि अनेक अमेरिकन मनोवैज्ञानिक उसका प्रयोग करने लगे।
स्किनर का प्रयोग - स्किनर ने कार्यात्मक अनुबन्धन का अध्ययन करने के लिये अपनी विधि तथा उपकरण का विकास किया। उन्होंने एक समस्यावादी बॉक्स का निर्माण किया जिसको स्किनर बॉक्स कहते हैं। व्यवहार का उल्प समय में तथा वैषयिक ढंग से अध्ययन करने की दृष्टि से इस उपकरण का निर्माण किया गया। इसमें एक लीवर रखा गया जिसको दबाने की अनुक्रिया को व्यवहार की एक इकाई माना गया। इस बॉक्स में एक चूहा रखा गया जो भूखा था। उस बॉक्स में यह व्यवस्था थी कि लीवर के दबने पर भोजन की प्लेट निकलकर सामने आती थी। चूहे की गतियों का विद्युत उपकरणों की सहायता से रिकॉर्ड रखा गया।
स्किनर का कार्यात्मक सिद्धान्त थार्नडाइक के नियम के अंतर्गत चयन एवं संयोजन पर आधारित है। थार्नडाइक की भाँति स्किनर ने दो प्रकार के अधिगम को स्वीकार किया। किन्तु गुथरी की भाँति उसने उस अधिनियम पर अधिक बल दिया जो परिणामों द्वारा नियंत्रित होता है। स्किनर ने व्यवहार को दो भागों में बाँटा है-
(1) अनुक्रियात्मक,
(2) कार्यात्मक।
परम्परागत मनोविज्ञान के अनुसार उद्दीपन के अभाव में अनुक्रिया नहीं होती है। स्किनर ने अनुक्रिया को दो भागों में बाँटा है-
(i) प्रकाश में आने वाली अनुक्रिया
(ii) उत्सर्जन प्रतिक्रिया
जो अनुक्रियाएँ ज्ञात प्रेरक द्वारा प्रकाश में लाई जाती हैं, उनको प्रकाशित अनुक्रिया कहते हैं। इसके विपरीत दूसरे प्रकार की अनुक्रियाएँ होती हैं जिनका सम्बन्ध किसी ज्ञात प्रेरक से नहीं होता है। इस प्रकार की उत्सर्जन अनुक्रिया को कार्यात्मक कहते हैं जबकि परम्परागत विचारधारा यह है कि इस प्रकार की अनुक्रियाओं को भी प्रकाशित अनुक्रिया मानो चाहे उसका उत्तेजक भले ही अज्ञात हो किन्तु स्किनर का "विचार है कि कार्यात्मक व्यवहार को समझने के लिये उत्तेजक दशाओं का कोई महत्व नहीं है क्योंकि कार्यात्मक व्यवहार उत्तेजक द्वारा प्रकाश में नहीं आता है। सक्रियता का किसी पूर्व उत्तेजक के साथ सम्बन्ध हो सकता है। ऐसी स्थिति में यह विभेदीकृत कार्यात्मक हो जाता है।
दो प्रकार के अनुबन्ध - अनुक्रिया की भाँति अनुबंधन भी दो प्रकार के होते हैं-
(i) उद्दीपक अनुबन्धन
(ii) अनुक्रिया अनुबन्धन
संक्षिप्त रूप में प्रथम प्रकार को S तथा दूसरे प्रकार को R अनुबन्धन कहा जाता है। S प्रकार के अनुबंधन का सम्बन्ध अनुक्रियात्मक व्यवहार से इस कारण होता है कि पुनर्बलन का सम्बन्ध उत्तेजक से होता है। पॉवलव का अनुबन्धन सम्बन्धी सिद्धान्त S प्रकार का ही है क्योंकि इसमें अनुबन्धित उत्तेजक (घण्टे क आवाज) अनुबन्धन रहित उत्तेजक (भोजन) के साथ प्रस्तुत किया जाता है जिससे लार टपकने की अनुक्रिया प्रकाश में आती है। इसी को अनुबन्धित प्रतिक्रिया कहते हैं। स्किनर S प्रकार के सीखने को अधिक महत्व नहीं देता है।
स्किनर के विचार से R प्रकार का अनुबन्धन अधिक महत्वपूर्ण है। यह अनुबन्धन कार्यात्मक व्यवहार का अनुबंधन तथा पुनर्बलन के साथ सम्बन्धित होता है। यह एक प्रकार की प्रतिक्रिया है जो पुनर्बलन से सम्बन्धित होती है, न कि उद्दीपन के साथ। इस विचार की पुष्टि के लिये स्किनर ने लीवर दबाने का उदाहरण दिया। लीवर दबाने की प्रतिक्रिया को भोजन प्रस्तुत करके पुष्ट किया जाता है। सक्रिय अनुबंधन में प्रमुख बात यह है कि प्रबलन उस समय सम्भव होता है जबकि प्रतिक्रिया का उत्सर्जन होता है। R प्रकार में प्रचलन का सम्बन्ध प्रतिक्रिया के साथ होता है जबकि S प्रकार के पुनर्बलन का सम्बन्ध उद्दीपन के साथ होता है। R प्रकार के दो नियम S प्रकार के दो नियमों की भाँति नहीं हैं। ये नियम इस प्रकार हैं-
(1) अनुबन्धन का नियम
(2) बहिर्गमन का सिद्धान्त
R प्रकार के अनुबंधन नियम की तुलना थार्नडाइक के प्रभाव के नियम से की जा सकती है।
अनुबंधन नियम के बारे में स्किनर ने लिखा है - “यदि एक कार्यात्मक के घटित होने का अनुसरण एक पुनर्बलन उत्तेजक के प्रस्तुतीकरण के साथ होता है तो शक्ति में वृद्धि होती है।"
(4) प्रबलन सिद्धान्त - "प्रबलन सिद्धान्त" का प्रतिपादन सी. एल. हल नामक अमेरिकी मनोवैज्ञानिक ने 1915 में अपनी पुस्तक 'प्रिंसिपल ऑफ बिहैवियर' में किया था। उनका यह सिद्धान्त थार्नडाइक तथा पॉवलव के सिद्धान्तों पर आधारित था। यह सिद्धान्त इस प्रकार है -
"प्रत्येक मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति करने का प्रयत्न करता है। सीखने का आधार इसी आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया है। मनुष्य या पशु उसी कार्य को सीखता है, जिस कार्य के करने से उसकी किसी आवश्यकता की पूर्ति होती है।" हल ने 'आवश्यकता की कमी' शब्द का प्रयोग आवश्यकता की पूर्ति के स्थान पर किया है। हल का कथन है- "सीखना आवश्यकता की पूर्ति की प्रक्रिया द्वारा होता है।"
हल का प्रयोग - इन्होंने एक बिल्ली को भूखा रखा। उस बिल्ली ने पिंजड़े से बाहर जाने का प्रयत्न किया। उसने अनेक प्रयत्न किये, इन्हीं प्रयत्नों में पिंजड़े का दरवाजा खुल गया और बिल्ली भोजन प्राप्त करने में सफल हो गयी। इस प्रकार भोजन की आवश्यकता को संतुष्ट करने के प्रयत्न में बिल्ली पिंजड़े का दरवाजा खोलना सीख जाती है। हल के अनुसार सीखने का आधार यही है।
स्किनर इस सिद्धान्त को सीखने का सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त मानते हैं।
उनका कथन है- "अब तक सीखने के जितने भी सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये हैं, उनमें यह सिद्धान्त बालकों के शिक्षण में प्रेरणा पर अत्यधिक बल देता है। बालकों को प्रेरित करके ही पढ़ाया जा सकता है।"
स्किनर ने एक अन्य स्थान पर इस सिद्धान्त की श्रेष्ठता स्वीकार करते हुये लिखा है - "हल का कथन है कि सीखने का कारण किसी आवश्यकता का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पूरा किया जाना है।" अतएव कुछ दृष्टियों से वर्तमान शिक्षा का हल 'हल के सिद्धान्त' से सैद्धान्तिक आधार पर प्राप्त हो जाता है।
वास्तव में सीखने का सिद्धान्त 'चालक न्यूनता का सिद्धान्त' है हल के अनुसार, जब किसी जीवधारी की कोई आवश्यकता पूरी नहीं होती तब उसमें असंतुलन उत्पन्न हो जाता है, जैसा कि ऊपर के उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। अपने प्रयोग द्वारा यह स्पष्ट करते हैं कि बिल्ली भोजन की आवश्यकता पूर्ण न होने पर तनाव का अनुभव करती है और उसके साथ ही भूख का चालक उसे भोजन प्राप्त करने के लिए क्रियाशील बना देता है। कुछ काल पश्चात् चेष्टा करने पर वह भोजन प्राप्त कर लेता है और उसकी भूख की आवश्यकता संतुष्ट हो जाती है। परिणामस्वरूप भूख से चालक की शक्ति भी मंद हो जाती है।
स्किनर के अनुसार - हल का सिद्धान्त उद्दीपक प्रतिक्रिया का सिद्धान्त' है। भोजन बिल्ली के लिये उद्दीपक है जिसके लिये वह विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है।
प्रबलन सिद्धान्त की विशेषताएँ - प्रबलन सिद्धान्त को विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा की दृष्टि से निम्न कारणों से विशेष उपयोगी बताया है-
(i) लेस्टर एण्डरसन के मत में "हल का सिद्धान्त भी उसी वर्ग का है जिस वर्ग का थार्नडाइक का सिद्धान्त है।" परन्तु यह अधिक परिष्कृत और नपा - तुला है।
(ii) प्रबलन का सिद्धान्त इस बात पर बल देता है कि विद्यालय की विभिन्न क्रियाओं में बालकों की आवश्यकताओं पर भी ध्यान दिया जाये।
(iii) कक्षा में पढ़ाये जाने वाले तथ्यों के उद्देश्य को स्पष्ट करना, इस दृष्टि से परम आवश्यक है।
(iv) यह सिद्धान्त शिक्षा में प्रेरणा के महत्व पर विशेष बल देता है। जी. लेस्टर एण्डरसन के शब्दों में "ऐसा ज्ञात होता है कि इसमें प्रेरणाओं पर मुख्यतः इस कारण अधिक बल दिया जाता है कि वे प्राणी की अनिवार्य आवश्यकताओं से सम्बन्धित है।"
(v) इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें बालकों की क्रियाओं और आवश्यकताओं से सम्बन्ध की स्थापना पर विशेष बल दिया जाता है। यह सिद्धान्त बताता है कि पाठ्यक्रम का निर्माण बालकों की विभिन्न आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर ही किया जाना चाहिए।
(B) अधिगम के ज्ञानात्मक क्षेत्र का सिद्धान्त-
(1) सूझ या अन्तदृष्टि का सिद्धान्त,
(2) टॉलमेन का संकेत गेस्टाल्ट सिद्धान्त,
(3) कुर्ट लेविन का क्षेत्र सिद्धान्त,
(4) पियाजे का संज्ञानात्मक सिद्धान्त।
(1) सूझ या अर्न्तदृष्टि का सिद्धान्त - अर्न्तदृष्टि या सूझ के सिद्धान्त के प्रमुख समर्थक 'गेस्टाल्टवादी' हैं। उनके मतानुसार व्यक्ति या प्राणी 'सम्बन्ध प्रतिक्रिया तथा प्रयत्न और भूल से न सीखकर 'सूझ' द्वारा सीखते हैं। सर्वप्रथम प्राणी अपने आसपास की परिस्थिति के विभिन्न अंगों में पारस्परिक सम्बन्धों की स्थापना करता है और सम्पूर्ण परिस्थिति को समझने का प्रयास करता है, तत्पश्चात् उसके अनुसार अपनी प्रतिक्रिया करता है। अन्य शब्दों में सूझ द्वारा सीखने का तात्पर्य परिस्थिति को पूर्णतया समझकर सीखना है। गुड के अनुसार, 'सूझ, यथार्थ स्थिति का आकस्मिक, निश्चित और तत्कालीन ज्ञान है।'
कोहलर का प्रयोग - सूझ द्वारा सीखने के सिद्धान्त का प्रतिपादन करने के लिये कोहलर ने छः वनमानुषों को एक कमरे में बंद कर दिया। कमरे की छत पर केलों का एक गुच्छा लटका दिया तथा कमरे के कोने में एक बॉक्स रख दिया गया। समस्त वनमानुष केलों को प्राप्त करने का प्रयास करने लगे परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। उनमें से एक सुल्तान नामक वनमानुष था। वह इधर-उधर घूमकर बॉक्स के पास पहुँच गया। तत्पश्चात् उसने बॉक्स को पकड़कर खींचा और उसे केलों के नीचे ले जाकर रख दिया और बॉक्स के ऊपर खड़े होकर केलों के गुच्छों को उतार कर खा लिया। 'सुल्तान' के इस प्रकार केलों को प्राप्त करने से स्पष्ट हो जाता है कि उसमें अन्य वनमानुषों की अपेक्षा अधिक सूझ थी।
वनमानुषों के समान मनुष्य भी सूझ के आधार पर सीखते हैं। प्रत्येक कार्य या क्रिया के सीखने में हमें सूझ का प्रयोग करना पड़ता है। विभिन्न समस्याओं का हल भी सूझ के माध्यम से होता है। प्रायः देखा गया है कि किसी ऊँचे स्थान पर रखी मिठाई को बालक सुल्तान नामक वनमानुष द्वारा अपनाई गई विधि द्वारा ही प्राप्त करते हैं। विद्वान 'काफ्का' के अनुसार, सूझ में व्यक्ति चिन्तन, तर्क तथा कल्पनाशक्ति से विशेष काम लेता है। जिस व्यक्ति में जितनी कल्पनाशक्ति होगी उतनी ही उसमें सूझ होगी। अल्प स्थान में ही एक इंजीनियर अपनी सूझ से विशाल भवन निर्मित कर देता है।
सूझ या अन्तर्दृष्टि पर प्रभाव डालने वाले कारक - सूझ या अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम पर प्रयोग करते समय विद्वानों ने देखा कि कुछ ऐसे कारक भी हैं जो अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करते हैं। कुछ महत्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं-
(i) प्रत्यक्षीकरण - अन्तर्दृष्टि का आधार प्रत्यक्षीकरण होता है। यदि समस्या का प्रत्यक्षीकरण ठीक प्रकार से नहीं होगा तो अन्तर्दृष्टि का विकास संभव नहीं है। प्रत्यक्षीकरण ही अन्तर्दृष्टि को विकसित करता है।
(ii) बुद्धि - बुद्धि भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है। उच्च बौद्धिक स्तर वाले जीवों में अन्तर्दृष्टि अधिक क्रियाशील रहती है। पशुओं की अपेक्षा मानव में उच्च बुद्धि होने के कारण अन्तर्दृष्टि द्वारा अधिगम मानव में अधिक पाया जाता है।
(iii) समस्या की रचना - समस्या की रचना भी अन्तर्दृष्टि को प्रभावित करती है। जटिल रचना वाली अथवा अव्यवस्थित रूप में समस्या प्रत्यक्षीकरण में व्यवधान पैदा करती है। जिसके कारण अन्तर्दृष्टि का विकास यकायक अथवा अधिक नहीं हो पाता है।
(iv) अनुभव - अनुभव का अन्तर्दृष्टि के विकास में अधिक योगदान रहता है। अनुभवी व्यक्ति अन्तर्दृष्टि द्वारा समस्या का हल शीघ्र ढूंढ लेता है।
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