बी ए - एम ए >> बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षा बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए बीएससी सेमेस्टर-4 शारीरिक शिक्षा - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- खेल के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
खेल एक स्वाभाविक क्रिया है। इसका अध्ययन अनेक दर्शनशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों ने किया और खेल के विभिन्न सिद्धान्तों का प्रतिपादन भी किया। इन सिद्धान्तों को दो भागों में बाँटा जा सकता है - पहले में प्रारम्भिक शास्त्रीय सिद्धान्तों को रखते हैं तथा दूसरे में वर्तमान या नवीन खेल सिद्धान्तों को रखते हैं।
प्रारम्भिक शास्त्रीय सिद्धान्तों के अन्तर्गत अधिशेष ऊर्जा का सिद्धान्त, मनोरंजन या विश्राम का सिद्धान्त, पूर्व अभ्यास का सिद्धान्त, पुनरावृत्ति का सिद्धान्त, विकास का सिद्धान्त और अहंकार विस्तार का सिद्धान्त आता है। वहीं वर्तमान या नवीन सिद्धान्तों की बात करें तो इसमें शिशु गतिशीलता का सिद्धान्त, कैथर्टिक सिद्धान्त, मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त और संज्ञानात्मक सिद्धान्त आता है। इन सभी सिद्धान्तों के विषय में संक्षिप्त जानकारी निम्नलिखित है-
प्रारम्भिक शास्त्रीय सिद्धान्त - ये निम्नलिखित हैं-
(1) अधिशेष या अतिरिक्त ऊर्जा का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के समर्थकों में शिलर तथा स्पेंसर का नाम आता है। इनके अनुसार खेल अतिरिक्त ऊर्जा का परिणाम है। बालक अपनी अतिरिक्त ऊर्जा को खेलों के माध्यम से व्यय करते हैं।
(2) मनोरंजन या विश्राम का सिद्धान्त - सिद्धान्त का समर्थक माना जाता है। इस सिद्धान्त के लेजरस तथा पैट्रिक को मनोरंजन या विश्राम अनुसार मनोरंजन से बालक अपनी थकान को दूर करने का प्रयास करता है। वह अपनी आने वाली गतिविधियों के लिए ऊर्जा एकत्र करता है।
(3) पूर्व-अभ्यास का सिद्धान्त - ग्रोस को पूर्व अभ्यास सिद्धान्त का समर्थक माना जाता है। इनके अनुसार खेल उन व्यवहारों के लिए आवश्यक अभ्यास है जो जीवित रहने में उसकी मदद करते हैं। जैसे- जानवरों की दोस्ताना लड़ाईयाँ, बच्चों के खेल आदि।
(4) पुनरावृत्ति का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के समर्थक स्टेनली, हॉल, विलियम बुंट को माना जाता है। इनके अनुसार खेल को ऐसी गतिविधि के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए जो भविष्य के सहज कौशल का विकास करता है, बल्कि इसे वंशानुगत व अनावश्यक सहज कौशल से जीव को छुटकारा दिलाने वाला माना जाना चाहिए। प्रत्येक बच्चा विकास की दौड़ में सांस्कृतिक चरणों के अनुरूप और पुनरावृत्ति करने वाले खेल चरणों की श्रृंखला से गुजरता है।
(5) विकास का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का समर्थन ऐप्पलटन ने किया। इनके अनुसार, खेल जीव में वृद्धि के लिए सामान्यीकरण की प्रतिक्रिया है। खेल वयस्क के लिए आवश्यक कौशल निपुणता को सुविधाजनक बनाने में मदद करता है।
(6) अहंकार विस्तार सिद्धान्त- लैग व क्लैपर्ड को इस सिद्धान्त का समर्थक माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार खेल अहंकार को पूरा करने का प्राकृतिक तरीका है।
खेल के नवीन सिद्धान्त - खेल के नवीन सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(1) शिशु गतिशीलता - इस सिद्धान्त का समर्थक कुर्टलेविन को माना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार बच्चे का संज्ञानात्मक विकास पूर्ण न होने से वह वास्तविक व अवास्तविक के बीच झूलता रहता है। बच्चा चंचल व अवास्तविक क्षेत्र में चला जाता है जहाँ चीजें बहुत तेजी से बदलती रहती हैं। खेल पर्यावरण के प्रति बच्चे के असंगठित दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है।
(2) रेचन का सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का समर्थक अरस्तू को माना जाता है। इनके अनुसार जब बच्चा वास्तविकता में किसी समस्या का समाधान नहीं कर पाता है तो वह खेल के माध्यम से हल करने का प्रयास करता है।
(3) मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त - इस सिद्धान्त के समर्थकों में सिगमन्ड फ्रायड, बुहलर तथा अन्नाफ्रायड का नाम आता है। इनके अनुसार खेल न केवल इच्छा पूर्ति का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि चिंता से निपटने में खेल सहायक सिद्ध होता है।
(4) संज्ञानात्मक सिद्धान्त - इस सिद्धान्त का समर्थक जीन पियाजे को माना जाता है। इनके अनुसार खेल लगभग प्रत्येक क्रम में उपलब्ध गत्यात्मक व संज्ञानात्मक कौशल के नए अनुभवों को एकीकृत करने का प्रयास है।
(5) खेल ही जीवन है - इस अवधारणा के प्रवर्तक जान ड्यूवी को माना जाता है। यह धारणा जान ड्यूवी के शिक्षा दर्शन पर आधारित है जिसमें इन्होंने क्रिया को जीवन का केन्द्र माना तथा यह क्रिया खेल पर आधारित होती है, इस बात का समर्थन किया।
(6) निसर्ग-अनुष्ठान धारणा - इस धारणा के प्रवर्तक रूसो हैं। इनका मानना था कि खेल नैसर्गिक (प्राकृतिक) होते हैं। प्रकृति ने इसे शरीर तथा इन्द्रियों के विकास के साधन के रूप में हमें दिया। रूसो का मानना था कि खेल-खेल में बच्चे जो कुछ भी सीखते हैं वह औपचारिक शिक्षा से अधिक मूल्यवान होता है।
(7) सहज प्रवृत्ति धारणा - इस अवधारणा के प्रतिपादक विलियम मैक्डूगल को माना जाता है। इनके अनुसार हमारी सहज प्रवृत्ति किसी क्रिया के लिए प्राथमिक अभिप्रेरणा का कार्य करती है।
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