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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

 

 

प्रश्न- सर्वप्रथम आधुनिक भारतीय दार्शनिक, कवि, चित्रकला, साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर के विषय में आप क्या जानते हैं?

 

 

अथवा
रवीन्द्रनाथ टैगोर के सौन्दर्य दर्शन का मूल तत्व क्या है?

उत्तर-

आधुनिक कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण कलात्मक गुण (आकारों का सरलीकरण, रंगों के स्वाभाविक निर्मल सौन्दर्य की रक्षा, प्रतीकात्मकता प्रभावपूर्ण संयोजन इत्यादि) प्राचीन भारतीय कला शैलियों में प्रचुरतापूर्ण दृष्टव्य हैं, किन्तु इन गुणों का पुनरुथान शैली में अभाव था। अतएव उसे हम मात्र संक्रमणावस्था मान सकते हैं। डॉ. कुमार स्वामी ने पुनरुत्थान शैली की निर्बल रेखा व निस्तेज रंगों पर असंतोष व्यक्त किया। ओ. सी. गांगुली ने यह निष्कर्ष दिया कि पुनरुत्थान शैली का जन्म बौद्धिक विचार व स्वदेश प्रेम में हुआ एवं उसमें स्वाभाविकता व सहज ज्ञान दृष्टव्य नहीं किन्तु पुनरुत्थान शैली के प्रणेताओं ने आधुनिक भारतीय कला के विकास के मार्ग दर्शन में जो एक मूलगामी विचार प्रस्तुत किये उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। अपने देश के विचार दर्शन व संस्कृति से पृथक रहकर कलाकार सच्ची कला निर्मित नहीं कर सकता। समाज के आधुनिकीकरण के साथ कला के रूप में तद्नुकूल परिवर्तन होना स्वाभाविक है। आधुनिक गतिशील कार्य व्यस्त व फैले हुए मानव जीवन में दृश्य कलाओं को प्रभावी बनाने हेतु सरलतापूर्ण बड़े आकार, स्पष्ट रेखाओं व चमकीले रंगों का प्रयोग आवश्यक है एवं मानव के विचारों व कार्यक्षेत्र के विश्वव्यापी रूप को देखते हुए सर्जन के मूल तत्वों पर आधारित सर्वगामीकला (सभी जगह चलने वाली कला) निर्मित के प्रयत्न स्वाभाविकतापूर्ण है। किन्तु यह भुला देने वाली बात नहीं है कि विदेशी प्रभावों जो केवल कला के बाह्य रूप से ही प्राप्त होता है। प्रत्येक देश की अपनी कला परस्परायें हैं जो उस देश के निवासियों के जीवन दर्शन व आशा एवं आकांक्षाओं का दर्पण हैं जिसे देखकर कलाकार अपने आत्मिक रूप से परिचित होता है और उसकी कला की सर्जनात्मक दिशा प्रदत्त करता है। इस विचार से, बीसवीं शताब्दी के भारतीय कलाकारों को यह आवश्यक था कि वै प्राचीन भारतीय कला परम्परा का अध्ययन करके अपने आन्तरिक जीवन को रूपांकन पद्धति के मंधीन आयामों द्वारा प्रस्तुत कर साकार कर सके। हेवेल व अवनीन्द्रनाथ ने भारतीय कला परम्परा के अध्ययन पर बल देकर उचित दिशा दी किन्तु भारतीय जीवन दर्शन को प्रभावित रूप में साकार करने का श्रीय भी रवीन्द्रनाथ टैगोर को है और उनको सर्वप्रथम भारतीय आधुनिक कलाकार माना जाता है। परम्परा के अध्ययन व आचरण से ही आवश्यक सर्जनशील संवेदनक्षमता व सौन्दर्य दृष्टि प्राप्तं हो सकती है।

सौन्दर्य तथा रस-सिद्धान्त के पुनर्व्यस्थाओं में पंडितराज जगन्नाथ अन्यतम तथा अन्तिम है। आधुनिक पुनर्जागरण के प्रभाव से अनेक प्राचीन विचारधाराओं के समान रस- सिद्धान्त के भी पुनरस्थान का प्रयत्न किया गया। सौन्दर्य तत्व एवं रस-सिद्धान्त विषयक मान्यताओं में उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी में भी अन्तर है। आधुनिक कलाकार व चिन्तक वैज्ञानिक के समान एक दृष्टा है जो अपनी कल्पना के अनुसार नवीन रूपों को जन्म देता है। कला व सौन्दर्य शब्दकोष सबैव एक ही रहता है तथापि रंगों, रेखाओं, आकारों, फलक तथा संयोजन आदि में नित्य नवीन प्रयोगों व सामंजस्य से कलाकार आकर्षण उत्पन्न करते हैं। इससे नवीन 'सौन्दर्य दृष्टि' से हमारा प्रत्यक्षीकरण होता है। आज अभिव्यक्ति भी सूक्ष्म होती जा रही है। संक्षेप में, भारतीय कलाकारों को आवश्यक है कि वे परम्परा के अटूट अंग रहकर आधुनिक बनें एवं यह सब विकास के स्वाभाविक सिद्धान्तों के अनुसार हो।

रवीन्द्रनाथ टैगोर का मत था - कि कला का कार्यात्मकता की दृष्टि से विचार नहीं करना चाहिए, कला पूर्ण रूप से सहज ज्ञान व अन्तर्मन की क्रियाओं पर निर्भर है। लथ कला की आत्मा है एवं उसकी सहजसिद्ध अनुभूति कलानिर्मित की प्राथमिक आवश्यकता है।'

रवीन्द्रनाथ टैगोर (समय 1861-1941 ई. तक) - आधुनिक भारतीय चिन्तकों और कवियों में बंगला साहित्यकार रवीन्द्रनाथ टैगोर का नाम सौन्दर्य की नवीनतम् श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में परिलक्षित है। सौन्दर्य और आनन्द की गहन अनुभूतिपरक सरसता से इनकी रचनायें ओत-प्रोत हैं। जिसका रसास्वादन हृदयस्पर्शी करें लेता है। ये सौन्दर्य को एक रहस्यमय आनन्द का जनक मानते हैं। उनका कथन है कि "सौन्दर्य की भावना वह भावदृष्टि है जो उपयोगिता की भावना के बिना, हमें आनन्द प्रदान करती है।'

डॉ. समरेन्द्र नाथ गुप्ता के शब्दों में- ''सौन्दर्य के साथ आनन्द का घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह आनन्द, साधारण प्रयोजन - सिद्ध का आनन्द नहीं होता है। इसके अन्तर्गत इच्छा की तृप्ति में रहकर केवल तृप्तिजन्य तृप्ति रहती है।"

उपर्युक्त वैचारिकता, रवीन्द्रनाथ टैगोर के सौन्दर्य-दर्शन का मूल तत्व है। इन्होंने रचना की उसी प्रक्रिया का विश्लेषण किया है, जो सौन्दर्य अवधारणा का प्रमुख कारण और जिसकी पूर्णता में असीम तृप्ति है। मनुष्य के अन्तर्मन में सौन्दर्य स्वतः स्फूर्त रस प्रवाह की भाँति होता है जो आनन्द और तृप्ति का वाहक है। इसका मूल स्वरूप तो अन्तर्मन द्वारा उभरता है किन्तु छन्द, लय, स्वर और भाषा को जागृत चेतन मन के द्वारा यत्नपूर्वक सँवारा जाता है। टैगोर की कबिता का सार है, कि काव्य सर्जना के क्षणों में जागृत व्यक्त मन और आभ्यंतर अव्यक्त मन के साथ संघर्ष चलता रहता है। इस अन्तर्मन तत्व को कवि ने कौतुकमयी की संज्ञा दी है। अन्तर की कोई अज्ञात शक्ति, कवि से रचना स्वतः ही करवाती। यह अज्ञात अन्तःशक्ति नूतन छन्द, रागिनी इत्यादि का सृजन करती है।

रवीन्द्रनाथ जी ने सौन्दर्य का लक्षण निकायोजन (बिना किसी रूपरेखा के) आनन्द माना है। वास्तव में सौन्दर्य का लक्ष्य, सौन्दर्य ही होता है। सौन्दर्य की अनुभूति में बाह्य और आन्तरिक (अंबर) के सामंजस्य की भावना की पूर्ति होती है। इसके प्रमाता को विलक्षण तृप्ति की अनुभूति होती है। इसी तृप्ति की अनुभूति को सौन्दर्य का आनन्द कहते हैं। 67वें आयु में वे विश्वविख्यात कवि बन चुके थे और उनकी प्रतिभा काव्य निर्मित में व्यस्त थीं। रबीन्द्रनाथ जी ने चित्रकला में कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया। विद्यार्थी जीवन में कोई कला की शिक्षा प्राप्त नहीं की थी। असाधारण, काव्यमय वृत्ति व सूक्ष्म ग्राहक संवेदनक्षमता उनकी कला के साधन थे। वे अज्ञात आन्तरिक सर्जनशक्ति का विश्वास करते व उसको सैद्धान्तिक चर्चा का विषय बनाने के घोर विरोधी थे। कविता लिखते समय शब्दों और पंक्तियों को रेखाओं से मिटाने पर जो अकल्पित आकार निर्मित होती उसकी ओर ध्यान आकृष्ट करके वे कुछ दृश्य कल्पना में मग्न होकर करते। सन् 1928 ई. में इन स्वयं सिद्ध आकारों से ये इतने मोहित हुए कि जिस कविता को लिखते समय ये आकार प्रकट हुए थे उसका अस्तित्व ही वे भूल गये एवं आकारों के विकास पर उन्होंने ध्यान केन्द्रित किया और इस प्रकार रवीन्द्रनाथ की अतियथार्थवादी कला का आरम्भ हुआ। भारतीय कला के इतिहास में यह अभूतपूर्व प्रयोग था।

पद्यपि महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर की सृजनात्मक प्रतिभा 19 वीं सदी के लगभग अंत तक, मुख्य रूप से साहित्य, संगीत और नाटक के माध्यम से प्रवाहित होती रही। जोरातांको, कोलकता में जन्मे कवि, उपन्यासकार तथा गीतकार रवीन्द्रनाथ का समस्त चित्र सृजन उनकी वृद्धावस्था (लगभग 68 वर्ष की उम्र) की ऐसी तूलिका से सृजित है जो कलागत अनुशासन से सर्वथा अनजान थी। आपको चित्रकला की औपचारिक शिक्षा तो प्राप्त नहीं हुई किन्तु पारिवारिक वातावरण कलात्मक था। इनके परिवार में दार्शनिक, विद्वान, कलाकार, समाज सुधारक तथा प्रतिभाशाली व्यक्तित्व थे। घर में देश - विदेश से भी कलाकार आते - जाते रहते थे, उनका प्रभाव रवीन्द्रनाथ जी के व्यक्तित्व पर पड़ा। रवीन्द्रनाथ टैगोर का बहुमुखी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व स्पष्ट परिलक्षित है। इन्होंने सन् 1901 ई. में अपनी पारिवारिक गृहभूमि "शान्ति निकेतन' में छोटा शिक्षण संस्थान प्रारम्भ किया जिसका प्रमुख उद्देश्य युवा विद्यार्थियों को प्राकृतिक बातावरण में शिक्षित करना था। शांति निकेतन आपके पिता देवेन्द्रनाथ ने बिर्भूम (Birbhun) पश्चिमी बंगाल में सन् 1860 ई. में बनवाया था जिसका साहित्मिक अर्थ "शांति का निवास है। सन् 1918 ई. में गीतांजलि काव्य संग्रह पर नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया तथा 1916 ई. नाइटेड की उपाधि प्राप्त हुई। भारत आने के पश्चात सन् 1919 ई. में आपने शांति निकेतन में कला भवन की स्थापना की। सन् 1921 ई शांति निकेतन को विश्वभारती विश्वविद्यालय का स्वरूप देकर भारतीय विश्वविद्यालय में प्रथम "ललित कला संकाय स्थापित किया। आपकी कला का विकास त्वरित में क्रमश हुआ। चित्रों का फलक अधिकारी होतेहुए भी संरचना सम्पूजन, संयोजन व साधनों की विविधता लिए हुए हैं। मन में अंकित अनेक स्मृतियों की अभिव्यक्ति रूप भाषा की दो इकाइयों बिन्दु एवं कोण पर आधारित है। एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक प्रत्यावर्तित रेखाओं तथा विविध ज्यामितीय आकारों के रूप में स्मृतियाँ लयात्मक संयोजन के रूप में उजागर हैं। आपकी कला अचेतन मन से संबंधित है जिसमें व्यंजना प्रमुख है अर्थात् चित्रण प्रथम है एवं विषय वाद में है। मुल्कराज आनन्द ने आपकी कला पर पिकासो, डाली, मुंख व मोदिल्यानी का प्रभाव माना है। इन्होंने कला में स्थापित नियमों की अनुपालना नहीं की। कला आधुनिक होते हुए भी अनुकरणात्मक नहीं रही। लय की अनुभूति, संवेदनात्मकता, कोणीयता, तत्वज्ञानी, काव्यात्मकता तथा सौन्दर्यमय जीवन की विविध रूपों में अभिव्यंजना आपकी कला की विशेषता रही। इन्होंने 1928 ई. में ग्राफिक कला में सृजन कर उन्हें इस माध्यम का सर्जनात्मक अग्रणी होने का गौरव भी आपको ही जाता है। उन्होंने अपनी सुन्दर कल्पना, दक्षता और सुलेख के प्रति सहज रुझान के कारण, रेखाओं व रंगों के माध्यम से, अपने विचारों को अभिव्यक्ति किया। रवीन्द्रनाथ ने क्षमा याचना करते हुए सन् 1930 ई. में लिखा था, "एक कलाकार के नाते में अपने निच्छल साहस के लिए किसी तरह का श्रेय नहीं लेना चाहता। यह तो ऐसे हैं जैसे कोई सपने में जोखिम भरे रास्ते पर चलने लगे और इसलिए बच जाये कि उसने खतरे से आँखें मूंदी हुई थीं।'

सच तो यह है कि दर्शकों को उनकी चित्रकृतियों को गम्भीरता से लेने तथा महानतम कलात्मक महत्व की कलाकृतियाँ स्वीकार करने में अधिक समय लगा। फ्रांसीसी कला समीक्षक हेनरी बिराऊ ने सन् 1930 ई. में उचित ही लिखा है- रवीन्द्रनाथ का कहना है कि मेरे कवि होने और चित्रकार होने में आपसी कोई रिश्ता नहीं है। एक कवि होने के नाते उनकी आँखों के सामने एक अलौकिक सौन्दर्य रहता है जिसका वर्णन वह करते हैं। एक मानसिक प्रतिद्वन्द्व रहता है जब वह कोई भी दृश्य, उद्यान या कोई चेहरा देखते हैं, तब वह उसका अनुकरण उसी तरह करते हैं जैसे कि एक चित्रकार करता है। इसलिए काव्य रचना के समय वह एक चित्रकार की तरह काम करते है और जब वह चित्रकार होते हैं तो एक कवि की तरह। भारतीय कला की सुप्रसिद्ध विदुषी स्टैला क्रैमरिश ने रवीन्द्रनाथ
टैगोर की कला की विवेचना करते हुए लिखा है-

"हाथों का प्रशिक्षण एक बात है, जबकि अंतरात्मा से दिशा पाना एकदम दूसरी बात। रवीन्द्रनाथ टैगोर की कलाकृतियाँ परिपाटी तथा विद्यालय शिक्षण से पूरी तरह मुक्त हैं और वे अपने ही अनुशासन के अधीन हैं। ये डिजाइन अथवा संरचना के आगे थम नहीं जातीं। उनकी बहुत सी चित्रकृतियों में से प्रत्येक जीवन्त तथा संतुलित कलात्मक सर्वांगिकता लिए हैं। रवीन्द्रनाथ की छवियाँ सशक्त कल्पना तथा लय की अनुभूति से उपजी हैं जो भारतीय तथा पर्शियन सज्जात्मक कला की विशेषताएँ हैं। इसके अतिरिक्त उनके पुरुषों, महिलाओं, पक्षियों, पशुओं, पेड़ों तथा निर्जीव वस्तुओं तक के रूपाकारों में एक विशेष प्रकार की आध्यात्मिकता है। उनका निष्पादन स्वतंत्र तथा मुक्त है, ऊर्जा तथा जीवन - शक्ति से परिपूर्ण है और किसी भी तरह की कृत्रिमता तथा बनावट से रहित है। उनकी कृतियों की रहस्यात्मक तत्वों की तुलना एमिल नोल्डे से की जा सकती है। उनकी कविता की भाँति उनके चित्र भी मानवर और प्रकृति की छवियाँ हैं। इनमें निहित विचित्रता का तत्व है।'

आनन्द कुमार स्वामी ने रवीन्द्रनाथ की कला के विषय में विचार व्यक्त किये कि उनकी मौलिक सहजसिद्ध अभिव्यक्ति असमान्य नित्य युवती प्रतिभा का प्रमाण है।"

रवीन्द्रनाथ टैगोर की कला में प्रकृति और मनुष्य एकसूत्रता में बँधे हुए स्पष्ट परिलक्षित है। यह कला की सबसे बड़ी विशेषता है। वे प्रकृति को ही मानव का शिक्षक मानते हैं। कला के क्षेत्र में रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विचार व्यक्त किये। वे कुछ पुस्तकों में संग्रहीत हैं-

1. रिलीजन ऑफ एन आर्टिस्ट
2 साधना
3. पर्सनेलिटी। इत्यादि

इनके दृष्टिकोण में जो अहम् बात सर्वप्रथम उभरकर आती है वह उनकी आध्यात्मिकता है। चित्र, मूर्ति, काव्य और साहित्य इत्यादि में सौन्दर्य की जो अभिव्यक्ति होती है वह आनन्ददायिनी है। इसी के आधार पर इन्होंने सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की व्याख्या की है। कला के माध्यम से आत्मा स्वयं को व्यक्त करती है। इन्होंने जीवन के प्रत्येक पक्ष का अध्ययन एवं समीक्षा की।

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