लोगों की राय

बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2750
आईएसबीएन :0

Like this Hindi book 0

5 पाठक हैं

बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर

 

प्रश्न-  भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर निबन्ध लिखिए।

अथवा
रस सूत्र की व्याख्या भरतमुनि के अनुसार कीजिए।

उत्तर-

भरतमुनि रस सूत्र की व्याख्या (नाट्यशास्त्र) (Natyashastra of Bhartmuni) - भरतमुनि ने अपने सूत्र की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा है कि जिस प्रकार विभिन्न प्रकार के व्यंजनों, औषधियों तथा द्रव्यों के संयोग से भोज्य रस की निष्पत्ति होती है, गुड़ादि द्रव्यों, व्यंजनों तथा औषधियों से षाड्वादि रस बनाते हैं। उसी प्रकार विविध भावों से संयुक्त होकर स्थायी भाव भी नाट्य- रस रूप को प्राप्त करते हैं। अर्थात् जब आलम्बन, उद्दीपन उचित हों, उनके प्रभाव से आश्रय में आंगिक, वाचिक, सात्विक तथा आहार्य अनुभव प्रकट हों तथा विभिन्न संचारी भाव उस आश्रय के स्थायी भाव को यथोचित रूप से पुष्ट करते चलें, तो उस समय इन सबके संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। उदाहरण - एक कुशल नट और नटी दुष्यन्त और शकुन्तला के रूप में उपस्थित होते हैं। ये पहले तपोवन के रमणीक कुंजों में मिलते हैं। (विभाव) दोनों एक-दूसरे के सौन्दर्य को देखकर विस्मित हो जाते हैं तथा अनिच्छापूर्वक जाती हुई शकुन्तला चोरी-चोरी एक दृष्टिपात करती है - ( अनुभाव )। वियोग में उत्कंठित वे एक-दूसरे से मिलने को आतुर (व्यभिचारी भाव) है।

जब यह सब कविता, संगीत, रंग-वैभव आदि की सहायता से जिन्हें भरतमुनि ने नाट्य धर्मी कहा है, रंगमंच पर प्रदर्शित किया जाता है। आनन्दमयी चेतना रस है। भरतमुनि ने सम्पूर्ण रस - सिद्धान्त के दो आधारभूत तथ्य (विषय) माने हैं-

 

1. नाट्य में रस की निष्पत्ति।

2. नाट्य रस का सामाजिक द्वारा आस्वादन।

इन विषयों पर आधारित प्रश्न यह उठता है कि "रस कौन सा पदार्थ है? अथवा रस को रस क्यों कहा जाता है? रस का आस्वादन किस प्रकार होता है?"

भरतमुनि ने पहले प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया (समझाया) है कि 'आस्वाघ होने से अर्थात् जो आस्वाद्य हो, वही रस है। जिस प्रकार नानाविधि व्यंजनों से संस्कृत अन्न का उपयोग करते हैं तथा हर्षादि का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार प्रसन्न प्रेक्षक विविध भावों एवं अभिनयों द्वारा व्यंजित वाचिक, आंगिक और सात्विक (मानसिक) अभिनयों से संयुक्त स्थायी भावों का आस्वादन करते हैं तथा हर्षादि को प्राप्त होते हैं इसलिए नाट्य के माध्यम से आस्वदित होने के कारण ये नाट्य- रस कहलाते हैं।

दूसरे प्रश्न के उत्तर में कहा कि जिस प्रकार नाना व्यंजनों, औषधियों और द्रव्यों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है अथावा जिस प्रकार गुण और द्रव्यों, व्यंजनों एवं औषधियों से षट् रस उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार कवि हृदयगत स्थायी भाव विभिन्न प्रकार के भावों अर्थात् विभावादि के रूप को प्राप्त होने पर ही रसत्व को प्राप्त होते हैं। भरतमुनि ने कहा कि 'आस्वाद्य तथा आस्वाद, इन दोनों पक्षों की संश्लिष्ट संज्ञा नाट्य रस है।

इस प्रकार इन्होंने नाट्य - रस में आस्वाद्य पदार्थ एवं आस्वाद धर्म दोनों का समावेश किया है। अब प्रश्न यह भी है कि रसानुभूति कैसे होती है? भरतमुनि ने इस प्रश्न का उत्तर समुचित रूप से नहीं दिया केवल अल्प व्याख्या ही की। उनका विचार था कि केवल मूल पात्रों को ही रसानुभूति होती है, जबकि रसानुभूति तो प्रेक्षकों को होती है। भरत ने रस के तीन अंग बताये हैं-

1. ऐतिहासिक पात्र,
2. अनुकर्ता या अभिनेला, तथा
3. दर्शक।

अब तीनों में से सौन्दर्यानुभूति दर्शक को होगी।

इस प्रकार भरतमुनि के रस-विवेचन की मुख्य विशेषाएँ बतायीं, जो निम्नलिखित हैं-

1. रस आस्वाद नहीं आस्वाद्य है अर्थात् अनुभूति नहीं है अनुभूति का विषय है। इस प्रकार रस विषयीगत न होकर विषयगत है। इस नाटक का अनिवार्य एवं सारतत्व है।
2. नाट्य-रस का आधार 'भौज्य रस' के समान भौतिक है। यह वस्तुतः एक पदार्थ है।
3. स्थायी भाव रस नहीं है वरन रस का आधार है
4. सामाजिक इसका आस्वाद रस रूप में नहीं हर्षादि के रूप में करता है।
5. आस्वाद के रूप में रस- प्रेक्षक की मनोमय प्रक्रिया है।

इस प्रकार भरतमुनि की यह परिभाषा विषयगत है। उनका मत निष्पत्तिवाद के नाम से जाना जाता है।

भरतमुनि के निष्पत्ति तथा संयोग - भरतमुनि के सूत्र में संयोग तथा निष्यति शब्दों का अर्थ अस्पष्ट है और इन्हीं विषय को लेकर परवर्ती आचायों में गहन विवाद की स्थिति है। उन्होंने निष्पत्ति की व्याख्या इस प्रकार की है

"जिस प्रकार नाना व्यंजनों, औषधियों तथा द्रव्यों के संयोग से भोज्य रस की निष्यति होती है, जिस प्रकार गुलाबि द्रव्यों, व्यंजनों तथा औषधियों से षाड़वादि रस बनते हैं, उसी प्रकार विभिन्न भावों से संयुक्त होकर स्थायी भाव भी नाट्य-रस रूप को प्राप्त करते हैं।"

इनके आधार पर निष्पत्ति का अर्थ है- बनना या होना, स्वरूप को प्राप्त होना।

निष्पत्ति का शाब्दिक अर्थ है - निस+पव+गतौ+क्तिन अर्थात् निश्शेष रूप से स्थिति प्राप्त करने का भाव।

संयोग संयोग शब्द का अर्थ स्पष्ट करते हुए भरतमुनि ने लिखा है 'जिस प्रकार विविध विधि व्यंजनों से संस्कृत अन्न का उपयोग करते हुए प्रसन्नचित्त पुरुष रसों का आस्वादन करते हैं और हर्षादि का अनुभव करते हैं। यहाँ संयोग का अर्थ है स्थायी भावों के साथ सम्यक योग संगम। उदाहरण के लिए, नाट्य- रस भोज्य रस इवादि)।

स्थायी भाव - अन्न

विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी - द्रव्य, व्यंजन, औषधि।

रस की निष्पत्ति का भरत ने यही अर्थ स्वीकार किया है। रस ऐसा नूतन पदार्थ नहीं है जिसका पहले सर्वथा अभाव रहता हो। विभावादि से उपगत होकर स्थायी भाव ही रस बन जाते है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book