बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
|
5 पाठक हैं |
बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 8
रस की अवधारणा एवं नाट्यशास्त्र
(Concept of Rasas and Natyashastra)
प्रश्न- भरतमुनि के रस - सिद्धान्त पर प्रकाश डालिए।
अथवा
नाट्यशास्त्र में रस निष्पत्ति के विषय में लिखिए।
उत्तर-
[Rasa Propounded : Bhartmuni (Ist Century)]
रस सिद्धान्त के प्रवर्तक आचार्य भरतमुनि माने जाते हैं। भरत का नाटयशास्त्र ( प्रथम शताब्दी ई. पू.) पूर्वाचार्यों की रस विषयक उपलब्धियों को अपने में संजोये हुए है। भरतमुनि ने रस को अथर्ववेद से गृहीत माना है। प्रत्येक अवधारणा का मूल वेद से सम्बद्ध करने की भारतीय विशेषता एवं परम्परा रही है। भरत ने दुहिण, सदाशिव बह्मा आदि भरत वृद्ध, तण्डु, नंदि, नंदिकेश्वर, वासुकि, शिलालिन् दत्रिल, कृशाश्व, वात्स्य आदि नाट्याचार्यों एवं रसाचार्या के नाम लिए हैं। भरत ने नाट्यशास्त्र के पष्ठ एवं सप्तम् अध्यायों में रस का सांगोपांग वर्णन किया है। ये नाटक को वाङ्मय का श्रेष्ठ रूप मानकर उसका प्राण रस को मानते हैं। इनके अनुसार कोई भी नाट्यांग रस के बिना नहीं चल सकता। 'नाट्यशास्त्र में रस के अवयव रस की प्रक्रिया, रस संख्या, रस के अधिकारी, रस का स्वरूप एवं रसों के पारस्परिक सम्बन्ध, वर्ण एवं देवता का विशद विवेचन है। रस के वर्णों का विवेचन करते हुए भरतमुनि ने कहा कि श्रृंगार का श्याम, हास्य का श्वेत, करूण का कपोत, रौद्र का रक्त, वीर का गौर, भयानक का काला, वीभत्स का नील एवं अद्भुत का पीला रंग होता है।
श्रृंगार के देवता विष्णु, हास्य के प्रथम, रौद्र के रूद्र, करूण के भय, वीभत्स के 'महाकाल, भयानक के काल, वीर के महेन्द्र व अद्भुत के ब्रह्म हैं।
भरतमुनि ने मुख्यतः यह विवेचन नाट्य रस के रूप में किया है तथा वे यह भी मानते हैं कि नाट्य की परिणति रस है । उन्होंने रस को काव्य या नाटक का सारभूत तत्व माना है तथा इसी के आधार पर परवर्ती आचार्यों ने इसे काव्य की आत्मा कहा है। नाट्यशास्त्र में इन्होंने नाट्य के व्याज से नृत्य, संगीत, मण्डप, रचना, चित्र आदि कलाओं की विस्तृत विवेचना की है। इससे प्रतीत होता है कि भरतमुनि ने सम्पूर्ण कलाओं के सन्दर्भ में रस निरुपण किया है।
भरतमुनि से पूर्व रस की दो परम्पराएँ थीं - एक तो दुहिण जिसमें आठ रस माने गये और दूसरी वासुकि की, जो शान्त नामक एक नवम् रस भी मानते थे। भरतमुनि ने दुहिण द्वारा समर्थित आठ रसों को मान्यता देकर 8 स्थायी 33 व्यभिचारी एवं 8 सात्विक भावों का निरुपण किया है। इन्होंने अन्य भावों के साथ स्थायी भाव का सम्बन्ध राजा व उसके सहचरों जैसा माना है। कवि के आन्तरिक भावों या मानसिक आवेगों को भाव कहा है। भरत के नाट्यशास्त्र में कहा कलात्मक रूप की अन्तिम आस्वादन योग्य गया है कि नाटक की आत्मा रस है। यह भावों के स्थिति है।
भरत के अनुसार वाचिक, आंगिक एवं सात्विक अभिनयों द्वारा सामाजिक हृदय काव्यार्थ का भामन कराने वाले को, भाव कहते हैं। भरत में विभाग को रस का कारण मानकर, नादय में वाचिक, आंगिक तथा सात्विक अभिनय का विशेषतः ज्ञान कराने वाले तत्व को विभाव कहां है। इन्होंने सात्विक भावों को भी भाव की संज्ञा दी है।
संस्कृत भाषा में 'रस' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों से किया गया है। यह वह गुण है जिसका ज्ञान हमको स्वाद प्राप्त करने वाली इन्द्रिय (जिल्हा) से होता है। इस अर्थ में रस छः प्रकार का होता है - मधुर, अम्ल, लवणे, तिक्त, कषाय, तथा चरपरा। इस प्रकार इसका अर्थ स्वाद है।
आयुर्वेद में इसका अर्थ वह श्वेत द्रव पदार्थ से है जो पाचन क्रिया की सहायता से उत्पन्न होता है और सम्पूर्ण शरीर का पोषण करता है। वनस्पतियों में भी जो द्रव पदार्थ पौधों की पुष्टि करता है यह रस है। फलों तथा फूल आदि में से इसी द्रव को निकाला जाता है जिसे रस कहते हैं। धातुओं के लवण, पारे, अर्क, गंध तथा जीवन के सार की अनुभूति को भी रस कहा जाता है।
कलाओं के प्रसंग में रस अभिव्यजनीय वस्तु होता है। सहृदय व्यक्ति का हृदय इसका आस्वादन करता है। अतः यह स्वादनीय भी कहलाता है। भरत ने नृत्य, संगीत तथा नाटक के सन्दर्भ में रस की विशेष व्याख्या की है। उनके मतानुसार विविध प्रकार के नृत्य विविध रसों की अभिव्यक्ति करते हैं। नृत्य के साथ गाये जाने वाले गीत के सूक्ष्म स्वर उसको व्यक्त करने में सफल हो जाते हैं जिसको काव्य-भाषा भी व्यक्त नहीं कर सकती। यह नृत्य भी रसाभिव्यक्ति का एक साधन है।
भरत में रस की ऐसी परिभाषा दी, जो काल के प्रवाह की गति को तोड़कर आज भी उसी रूप में सम्मानित है। विभिन्न प्रकार के भावों एवं अभिनयों द्वारा किये गये वाचिक, आगिक, तथा सात्विक अभिनयों से युक्त स्थायी भावों का सामाजिक आनंद प्राप्त करते हैं। इन्होंने रसास्वाद की लौकिक स्वाद के अनुरूप मानकर उसकी तुलना व्यंजना के आस्थाद से की है। भरत का रस-निरुपण दर्शन-निर्पेक्ष एवं व्यावहारिक भित्ति पर आधारित है। इस के विभिन्न अंगों का विवेचन आधुनिक मनोविज्ञान की प्रक्रिया से साम्यता रखता है। इनकी रस-मीमांसा दार्शनिक न होकर नीतिशास्त्रीय सिद्धान्तों के अनुकूल है और उसमें लौकिकता एवं सामाजिकता के बीज . विद्यमान हैं। इनके विवेचन में दार्शनिक पूर्वाग्रह दिखाई नहीं पड़ता, जबकि परवती रस-मीमांसा दार्शनिक मान्यताओं पर ही आधारित है। इन्होंने पाक- रस के समान नाट्य रस की व्याख्या कर वस्तुवादी दृष्टिकोण अपनाया है।
रस के सम्पूर्ण विवेचन का आधार भरतमुनि द्वारा प्रतिपावित यह सूत्र है-
'तत्र विभवानुभावव्यभिचारिसंयोगात्र सनिव्यत्तिः'
अर्थात विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारी भावों के संयोग से रस-मिष्यत्ति होती है।
इस सूत्र में मूलतः रस की निष्पत्ति का आख्यान है स्वरूप का नहीं। उसके स्वरूप विवेचन भी इसी में निहित है और आगे चलकर इसी के आधार पर इसके स्वरूप का पल्लवन हुआ, किन्तु यह रस सम्बन्धी सूत्र अस्पष्ट है कि उसके वास्तविक आकार के सम्बन्ध में कोई भी कल्पना नहीं की जा सकती। इस सूत्र को समझने के लिये भाव, विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भावों को समझना आवश्यक है क्योंकि रस के मूल आधार स्थायी भाव है और विभाव, अनुभाव तथा व्यभिचारी भाव स्थायी भाव को रस की अवस्था तक पहुँचाने में सहायक होते हैं।
भाव - मर्ग के विचारों को भाव कहते हैं।
ये घाणी, अंग रचना एवं अनुभूति के द्वारा, काव्य के अर्थ को बताते हैं। (भावन कराते हैं) इसलिए इन्हें भाव कहते हैं। भाव रस से स्वतन्त्र नहीं है तथा न ही भावों के बिना रस की स्थिति है। ये एक-दूसरे को प्रकाशित करते हैं। ये स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों द्वारा उदीप्त होकर रस रूप में परिणत होते हैं। भावों के दो प्रकार बताये गये हैं-
स्थायी भाव - नाटक में किसी व्यक्ति से सम्बन्धित विशेष परिस्थितियाँ किसी भाव को उत्पन्न करती हैं। यह भाव किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए क्रमिक घटना चक्र का निर्माण करता है। उद्देश्य की प्राप्ति तक यह भाव स्थायी बना रहता है। इसलिये भरत ने इसे 'स्थायी भाव' कहा है। इसके साथ जो अन्य भाव लगे रहते हैं, ये संचारी कहे गये हैं किन्तु नाटक का अभिनेता (कलाकार) या दर्शक उन परिस्थितियों से सचमुच सम्बन्धित नहीं होता इसलिये मंच पर दिखायी जाने वाली परिस्थिति को विभाव कहते हैं। स्थायी भावों की संख्या भरतमुनि ने आठ मानी है। उनका परस्पर सम्बन्ध इस प्रकार है-
क्र.सं. | लक्षण | स्थायी भाष | रस | प्रतीक |
1. |
स्त्री-पुरुष प्रेम | रति | श्रंगार | श्याम |
2. |
हास्य प्रद कार्य | ह्रास | हास्य | श्वेत |
3. |
प्रिय से वियोग | शोक | शरुण | शपोत |
4. |
सत्कार्य का उत्साह | उत्साह | वीर | गौर |
5. |
पुष्ट बलन | क्रोध | रौद्र | रक्त |
6. |
घृणा | जुगुप्सा | बीभत्स | नील |
7. |
अभिष्ट की आशंका | भ्रम | भयानक | कृष्ण |
8. |
अलौकिकता | आश्चर्य | अनुभूत | पीत |
इन आठ स्थायी भावों के आधार पर ही आठ रस मानें हैं।
परवर्ती आचार्यों में नवाँ स्थायी भाव निर्वेद माना तथा उससे सम्बन्धित नवें शान्त रस की स्थापना की।
संचारी या व्यभिचारी भाव जो भाव हमारे ह्रदय में नित्य विद्यमान रहते हैं अर्थात, स्थायी रूप से निवास करते हैं, उन्हें स्थायी भाव कहा जाता है। परन्तु कुछ भाव ऐसे होते हैं जो केवल थोड़ी देर के लिए ही स्थायी भाव को पुष्ट करके सहायक के रूप से आते हैं तथा तुरन्त लुप्त भी हो जाते हैं। ये संचारी भाव हैं। संचारी शब्द का अर्थ है साथ-साथ चलना अर्थात संचरणशील होना। संचारी भाव स्थायी भावों के साथ संचारित होते हैं। एक ही संचारी भाव अनेक स्थायी भावों के साथ हो सकता है, इसलिए उन्हें व्यभिचारी भी कहा जाता था। उदाहरण के लिये, किसी को अपने प्रति अपशब्द कहते सुनकर क्रोध आता है। यह क्रोध स्थायी भाव भरतमुनि ने संचारी भावों की संख्या 88 मानी है।
विभाव विभाव का अर्थ है कारण सहदय में वासना या संस्कार रूप से मूलतः स्थित भावों को उद्बोधित करने वाले कारण, विभाव कहलाते हैं। आचार्य शुक्ल लिखते हैं, कि "विभाव अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयों के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव था संवेदना होती है।"
भरतमुनि ने लिखा है कि "विभाव बाणी व अंगों के आश्रित अनेक अर्थों का विभावन अर्थात अनुभव कराते हैं, अतः इन्हें विभाव की संज्ञा दी गयी है।"
आचार्य विश्वनाथ में विभावों की परिभाषा देते हुए लिखा है कि "लोक या संसार में रंति, हास, शोक आदि स्थायी भावों को जो जागृत कराने वाले होते हैं, वे जब काव्य या नाटक में वर्णित होते हैं तो विभाव कहलाते हैं।'
विभाव के दो भेद बताये गये हैं-
(i) आलम्बन विभाव - मानव हृदय में भावनाओं का प्रस्फुटन किसी बाह्य वस्तु-दृश्य तथा किसी परिस्थति विशेष की कल्पना द्वारा ही होता है, इसी प्रमुख कारण को काव्य में आलंबन कहते हैं। आलम्बन विभाव की परिभाषा इस प्रकार दी गयी है कि 'काव्य नाटक आदि में वर्णित जिन पात्रों का आलम्बन करके सामाजिक हृदय में स्थित स्थायी भाव, रस रूप में अभिव्यक्त होते हैं, उन्हें आलम्बन विभाव कहते हैं,
आलम्बन विभाव के दो भेद होते हैं- विषय तथा आश्रय।
जिस पात्र के प्रति किसी के भाव जागृत होते हैं वह 'विषय' है। जिस पात्र में भाव जागृत होते हैं वह 'आश्रय' है। उदाहरण पुष्प वाटिका के प्रंसग में सीता को देखकर, सीता के प्रति राम के हृदय में रति-भाव जागृत होता है। यहाँ सीता आलम्बन हैं। राम यहाँ पर आश्रय हैं। ये आलम्बन व आश्रय सहृदय के स्थायी भावों को रसावस्था तक पहुँचाने के कारण "आलम्बन विभाव' हैं।
(ii) उद्दीपन विभाव - स्थायी भाव को जागृत रखने में सहायक भूत कारण उद्दीपन विभाव कहलाते हैं। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार "जो रस को उद्दीप्त करके आस्वादन योग्य बनाते हैं तथा इस प्रकार उन्हें रसावस्था तक पहुँचाते हैं, वे उद्दीपन विभाव कहलाते हैं।' उदाहरण - वीर रस के स्थायी भाव उत्साह के लिए सामने खड़ा शत्रु आलम्बन विभाव है किन्तु शत्रु के साथ सेना, युद्ध के बाजे और शत्रु की दर्पोक्तियाँ, गर्जना तर्जना, शस्त्र-संचालन आदि उद्दीपन विभाव हैं। उद्दीपन विभाव भी दो प्रकार के हैं- (अ) आलम्बनगत अर्थात् आलम्बन की उक्तियाँ व चेष्टाएँ, एवं (ब) बाह्य अर्थात् वातावरण से सम्बन्धित वस्तुएँ प्राकृतिक दृश्यों की गणना भी इन्हीं के अन्तर्गत होती है।
अनुभाव - रति, शोक, हास आदि स्थायी भावों को प्रकाशित या व्यक्त करने वाली आश्रय की चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं, ये चेष्टाएँ भाव जागृति के उपरान्त आश्रय में उत्पन्न होती हैं, इसीलिए उन्हें "अनुभाव" कहा जाता है अर्थात् जो भावों का अनुगमन करें। आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है कि "आलम्बन उद्दीपन आदि अपने-अपने कारणों से उत्पन्न भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले लोक में जो कार्यरूप चेष्टाएँ होती हैं, वे ही काव्य या नाटक आदि में निबद्ध होकर अनुभाव कहलाती हैं।' विरह व्याकुल नायक द्वारा सिसकियाँ भरना, मिलन के भावावेश में अश्रु, स्वेद, रोमांच, अनुराग सहित देखना, क्रोध जागृत होने पर शस्त्र संचालन, कठोर वाणी, आँखों का लाल हो जाना आदि अनुभाव कहे जायेगें। अनुभव के चार भेद बताये हैं-
अ - आंगिक अनुभाव - आश्रय की शरीर सम्बन्धी चेष्टाएँ आंगिक अथवा कायिक अनुभाव कहलाती हैं, जैसे रति भाव के जागृत होने पर भू-विक्षेप, कटाक्ष आदि।
ब - वाचिक अनुभाव - प्रयत्नपूर्वक किये गये वाग्व्यापार को वाचिक अनुभाव कहते हैं। स आहार्य अनुभाव आरोपित या कृत्रिम वेष- रचना को आहार्य अनुभाव कहा जाता है।
द - सात्विक अनुभाव - स्थायी भाव के जागृत होने पर स्वाभाविक अकृत्रिम, अंग विकार को सात्विक अनुभाव कहते हैं।
इनके लिए आश्रय को कोई बाह्य चेष्टा नहीं करनी पड़ती, इसलिए ये अयत्नंज कहे जाते हैं। इनका उद्भव स्वतः ही होता है इन्हें रोका नहीं जा सकता। अयत्नज के आठ भेद हैं- स्तम्भ, कम्य, स्वर, भंग, वेवर्ण्य, अश्रु, स्वेद, रोमांच और प्रलय।
|