बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के मूल आधार से आप क्या मानते हैं और क्यों?
अथवा
सांस्कृतिक परम्परायें सौन्दर्य-सम्बन्धी अवधारणाओं को कैसे प्रभावित करती हैं? भारतीय सन्दर्भ में उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
अथवा
सौन्दर्यशास्त्र की भारतीय परम्परा पर एक समीक्षात्मक लेख लिखिए।
अथवा
सौन्दर्य का भारतीय दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर-
परिचय - सौन्दर्यशास्त्र भारतीय दर्शन में नया शब्द है, भारत में इस नाम 'सौन्दर्यशास्त्र' जैसा कोई अंग या कोई शास्त्र नहीं बना और न ही प्राचीन शास्त्रों में कहीं इसका उल्लेख मिलता है।
सौन्दर्यशास्त्र शब्द अंग्रजी के 'एस्थेटिक्स' के पर्याय के रूप में सम्मुख आया। पश्चिमी विचारधारा में भी 'एस्थेटिक्स' अपेक्षाकृत नवीन शब्द है इसका आधुनिक अर्थ में प्रयोग वॉमगार्टेन ने पहली बार अठ्ठारहवीं शताब्दी में किया। उन्होंने अपने समय तक के सम्पूर्ण कला और सौन्दर्य सम्बन्धी विचारों को संकलित व संगठित किया। उन्होंने सौन्दर्यशास्त्र को एक स्वतंत्र विज्ञान बनाने की घोषणा की। इसे दर्शनशास्त्र की नई शाखा माना गया - कला व सौन्दर्य का दर्शन।
प्रस्तुत सौन्दर्यशास्त्र की सामग्री व विषय - वस्तु प्राचीन भारतीय ग्रन्थों आदि में प्राप्त होती है, जो कई नाम व रूपों में है, जैसे- नाट्यशास्त्र, अंलकार, रस सिद्धान्त इत्यादि। स्पष्ट है कि जो विषय आधुनिक काल में 'सौन्दर्यशास्त्र' के रूप में महत्वपूर्ण स्थान बना चुका है उसमें ये सभी समाहित हैं।
सौन्दर्यशास्त्र को अब भी दर्शनशास्त्र का अंग माना जाता है। दर्शनशास्त्र का मुख्य उद्देश्य सत्यं, शिवम्, सुन्दरं है। सौन्दर्यशास्त्र वह अध्ययन है जो सुन्दरता और कला सम्बन्धी नियम और सिद्धान्त बनाने की चेष्टा करता है।
ये सिद्धान्त सार्वभौमिक सार्वकालिक होते हैं जो प्रत्येक देश प्रत्येक काल के लिये समान रूप से मान्य हों, परन्तु फिर भी क्षेत्रीय विशेषतायें आ जाती हैं। इसका मुख्य कारण है कि प्रत्येक देश की अपनी परम्परायें हैं। किसी भी देश की सौन्दर्य सम्बन्धी अवधारणाऐं कुछ प्रमुख स्रोतों से जन्म लेती हैं और विकसित होती हैं। इन धारणाओं के प्रमुख स्रोत निम्नलिखित हैं-
(1) भारतीय सांस्कृतिक परम्पराऐं,
(2) भारतीय धर्म और दर्शन,
(3) भारतीय वाङ्मय-प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थ,
(4) भारत में रसः शास्त्र, नाट्यशास्त्र की परम्परा।
(1) भारतीय सांस्कृतिक परम्पराऐं - परम्परायें सामाजिक भौगोलिक कारणों से बनती हैं इनमें जीवन-शैली, रीति-रिवाज, लोक गाथायें एवं पौराणिक कथा आदि का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
(2) भारतीय धर्म और दर्शन - इसमें धर्मों की विविधता है किन्तु किसी ने कला सौन्दर्य सम्बन्धी प्रश्न नहीं उठाये। मन्दिर, मठ, स्तूपों, का वास्तु-शिल्प, मूर्तिकला, साज-सज्जा सभी में कला का उपयोग हुआ। धर्म का दृष्टिकोण कलाओं के प्रति यद्यपि उदासीन ही रहा, परन्तु कला ने योगदान दिया। भारतीय कला वास्तव में दर्शन से उपजी और दर्शन से ही जुड़ी रही है।
(3) भारतीय वाङ्गमय प्राचीन शास्त्रीय ग्रन्थ - भारतीय सौन्दर्यशास्त्र सम्बन्धी विचार अनेक प्राचीन ग्रन्थों, वेदों और उपनिषदों से पुराणों में स्पष्ट दृष्टव्य हैं, यहाँ भारतीय परम्परा में कला और विशेष रूप से चित्रकला का कुछ परिचय दिया जा रहा है, वे निम्नलिखित हैं -
(अ) वात्स्यायन का कामसूत्र - लगभग 600 ई.पू. से 200 ई.पू. तक
(ब) चित्रसूत्र (विष्णु धर्मोत्तर पुराण - लगभग 5वीं शताब्दी)
(स) नग्नजित का चित्र लक्षण लगभग पूर्व मध्यकाल
(द) सोमेश्वर-मानसोल्लास - लगभग 12वीं शताब्दी।
(अ) वात्स्यायन का कामसूत्र - (ललगभग 600 ई.पू. - 200 ई.पू. तक) कामसूत्र की रचना 600 ई.पू. में हुई थी, वात्स्यायन का दृष्टिकोण पूरी तरह वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ रहा। इसमें 64 कलाओं का उल्लेख किया गया है। इस वर्णन की निम्नलिखित विशेषतायें हैं।
कामसूत्र में 64 कलायें मानी गई हैं, इसमें ललित कलाओं में प्रमुख काव्य, संगीत, (गाय वाद्य) नृत्य, आलेख (चित्रकला) और वास्तु हैं।
शिल्प को आलेख और वास्तु से लिया गया है।
वात्स्यायन ने कलाओं के कुछ प्रयोजन बताये, ये निम्न हैं-
जीवन का उपयोग या आनन्द उठाना।
जीवन के चार पुरुषार्थ (लक्ष्यों) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में से काम की सिद्धि।
नगर, गोष्ठी, राजसभा आदि में मान-सम्मान पाना (व्यवहार कुशलता)।
प्रियजन की प्राप्ति।
सुखपूर्वक जीवनयापन चाहे परिस्थितियां प्रतिकूल ही क्यों न हों।
11वीं शताब्दी में वात्स्यायन के कामसूत्र की टीका यशोधर पंडित ने जयमंगला नाम से की।
टीकाकार यशोधर पंडित जयपुर के महाराज जयसिंह प्रथम के राज पंडित थे। इन्होंने कला के छः अंग का परिचय दिया।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण - (लगभग 5वीं शताब्दी) भारतीय पुराणों का उद्देश्य गूढ़ तत्वों को सरल भाषा में कथाओं के रूप में जनसाधारण तक पहुँचाना था। जीवन के प्रायः सभी पक्षों, सामाजिक, राजनैतिक, ऐतिहासिक आदि की चर्चा पुराणों में की गई है। चित्रकला का विस्तृत विवेचन निम्न पुराणों में मिलता है-
अग्निपुराण
मत्स्य पुराण
स्कन्ध पुराण
विष्णु धर्मोत्तर पुराण इत्यादि
(ब) चित्रसूत्र - यह नौ अध्याय में चित्रसूत्र' नामक प्रकरण है। इसमें भारतीय चित्रकला की व्यापकता एवं प्राचीन परम्पराओं की जानकारी दी गई है। इसके कई अनुवाद किये गये। डॉ. स्टैला क्रेमिश का पहला अनुवाद जो पूर्ण नहीं था। दूसरा अनुवाद डॉ. कुमार स्वामी और तीसरा प्रिय बालाशाह का है।
चित्रसूत्रम् की विशेषतायें - चित्रसूत्रम् की निम्नलिखित विशेषतायें हैं -
इसमें मूर्तिकला, चित्रकला और वास्तुकला तीनों का विवेचन है।
इसमें नृत्य व संगीत का भी वर्णन है।
इन नौ अध्यायों में चित्रों के शारीरिक लक्षण, अंकन विधान का तात्विक, सैद्धान्तिक एवं विस्तृत विवेचन है।
इसमें चित्रकला की उत्पत्ति दैवीय बताई गई है।
नृत्यकला और चित्रकला में समानता बताई गई है, ये चिन्तन, भाव और अंग संचालन में हैं। यहाँ नृत्य तांडव की हस्त-मुद्रायें, चित्रकला में भी दृष्टव्य हैं।
सम्पूर्ण चित्रसूत्र नौ अध्यायों में विभक्त है-
(1) आयाम वर्णन
(2) प्रमाण वर्णन
(3) सामान्य मान वर्णन
(4) क्षयवृद्धि
(5) वर्तना (बर्तमा)
(6) श्रृंगार आदि भाव कथन
(7) प्रतिमा लक्षण वर्णन
(8) रंग व्यतिकर
(9) रूप - निर्माण।
ये चित्रकला से सम्बन्धित में गति और रसमयता को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। चित्र की गति छन्द है। चित्र की रसमयता उसका प्राण है।
(स) नग्नजित् - चित्रलक्षण - (पूर्व मध्यकाल) - यह मध्यकाल की रचना मानी जाती है। यह ग्रन्थ तीन अध्यायों में है। इसके मंगलाचरण में कहा गया है कि यह विश्वकर्मा और नग्नजित् द्वारा निर्धारित लक्षणों का संग्रह है। प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेख के अनुसार नग्नजित् गांधार प्रदेश के राजा थे। चित्रलक्षण में चित्रकला का जो स्वरूप दिया है, वह गांधार शिल्प के लक्षणों से मिलता है।
चित्रलक्षण के प्रथम अध्याय में चित्रकला की उत्पत्ति के विषय में बताया गया कि राजा नग्नजित् सृष्टि के प्रथम चित्रकार और चित्रकला के आचार्य माने गये।
चित्रलक्षण की विशेषतायें - चित्रलक्षण की निम्नलिखित विशेषतायें हैं-
इसमें चित्रकला का कल्याणकारी रूप सामने आता है।
चित्रकला की उत्पत्ति दैवीय मानी गई, पर संसार की कल्याण कामना से हुई।
चित्रकला विधान विस्तार से दिया गया - प्रकृति, स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षियों के चित्र बनाने की रीतियां बताई गई हैं।
भाव प्रधान चित्रों की सराहना की गई है। इन भाव प्रधान चित्रों में छवियों के आन्तरिक व्यापार को उचित रूप से अंकित करने की वैज्ञानिक रीतियाँ भी बताई गई हैं।
(द) सोमेश्वर - मानसोल्लास अभिलषितार्थ चिन्तामणि (12वीं शताब्दी) - सोमेश्वर चालुक्य राजा विक्रमादित्य द्वितीय के पुत्र थे। 12वीं शताब्दी में इन्होंने मानसोल्लास नामक ग्रन्थ की रचना की। यह विश्वकोषात्मक ग्रन्थ है। इसमें चित्रकला का वर्णन बहुत से शास्त्र के साथ आया है। वह राज्यव्यवस्था गणित, ज्योतिषशास्त्र, काव्यशास्त्र, संगीत, आयुर्वेद, वास्तुकला इत्यादि सभी इसमें समाहित हैं।
मानसोल्लास की तीसरी विश्रान्ति के प्रथम अध्याय में चित्रकला का विवेचन है। इसमें चित्रकला को क्रमबद्ध रूप से बताया गया है। इस पर विष्णु धर्मोत्तर पुराण का प्रभाव भी स्पष्ट है। फिर भी युग के अनुसार परिवर्तन की मौलिकता भी है। यहाँ चित्र विधान के कुछ अंग बताये गये, "जो निम्नवत् हैं-
1. चित्र का स्वरूप
2. चित्र भित्ति
3. लेखनी-लेखन
4. शुद्ध वर्ण
5. मिश्र वर्ण
6. चित्र वर्ण
7. पशु सूत्रलक्षण
8. ताल लक्षण
9. तिर्यकमान लक्षण
10. सामान्य चित्र प्रक्रिया।
भोज समरांगण सूत्रधार (पूर्व मध्यकाल) - यह पूर्व मध्यकाल का ग्रन्थ है जिसके रचनाकार राजा भोज माने जाते हैं। राजा भोज एक यशस्वी सम्राट होने के अतिरिक्त विद्वानों के अनुरागी और स्वयं बड़े लेखक थे। इनके लिखे 34 ग्रन्थ अब तक प्राप्त हुये। ये ज्योतिष, योगशास्त्र, शिल्पशास्त्र आदि पर लिखे गये।
शिल्पशास्त्र के दो ग्रन्थ हैं -
(1) समरांगण सूत्रधार
(2) युक्ति कल्पतरू।
समरांगण सूत्रधार के 84 अध्याय हैं, इसकी सामग्री 7 वर्गों में विभक्त है। ये निम्नलिखित हैं-
(1) प्राथमिक
(2) पुर प्रवेश
(3) भावन निवेश
(4) प्रसाद निवेश
(5) प्रतिमा निर्माण
(6) यंत्र घटना
(7) चित्रकर्म।
चित्रकर्म चित्रकला सम्बन्धी है, इसके 6 अध्याय इस प्रकार हैं-
(1) चित्रों उद्देश्य
(2) भूमि बन्धन
(3) लेप्य कर्मादि
(4) अण्डक प्रमाण
(5) मनोत्पत्ति
(6) रस-दृष्टि लक्षण।
(4) भारत में रसशास्त्र, नाट्यशास्त्र आदि की परम्परा - स्पष्ट है कि भारत में कला की समृद्ध परम्पराएं रहीं हैं। वात्स्यायन के कामसूत्र (600 ई.पू.) से लेकर भरतमुनि के नाट्यशास्त्र (5-6 शताब्दी ईस्वी) तक कलाओं का विकास पर्याप्त रूप से कई क्षेत्रों में हो चुका था।
भरतमुनि ने अपने ग्रन्थ नाट्यशास्त्र में कला के विभिन्न स्वरूपों को समाहित किया, जिनमें काव्य, संगीत, नृत्य, अभिनय, स्थापत्य, चित्र इत्यादि का मनोहारी संगम है। उन्होंने कला का केवल उल्लेख ही नहीं बल्कि विस्तार भी किया। जैसे प्रयोजन, विधि एवं प्रस्तुतीकरण और प्रभाव का व्यवस्थित वर्णन कर अनूठा संगम प्रस्तुत किया।
भरतमुनि के 'नाट्यशास्त्र' ने सम्पूर्ण संसार के कलादर्शन को महत्वपूर्ण क्रान्तिकारी, सिद्धान्त दिया। इस सिद्धान्त ने नये आयाम प्रतिष्ठित किए। यह सिद्धान्त "रस - सिद्धान्त है। यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है। यह भाव और रस पर आधारित है। रस के सूत्र से कलाकार और रसिक के मन के भावों का जो आदान-प्रदान है वही कला की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है, कला इस प्रकार भावों को रंस के माध्यम से सम्प्रेषित करने का साधन है। नाट्यशास्त्र का प्रभाव कला के सभी क्षेत्रों पर पड़ा।
संस्कृति, साहित्य की सभी विधाओं, काव्य आदि पर रस का गहरा प्रभाव है। भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की परम्परा यहीं से आरम्भ हुई। भावानुकीर्तनम् संस्कृत शब्द है। भावानुकीर्तनम् अर्थात् भावों का अनुकरण - कला, चाहे वह काव्य हो, दृश्य कला हो, वह संसार की घटनाओं का उससे उत्पन्न भावों का, अनुकीर्तन, अनुकरण या पुररुत्पादन करता है, उनके केन्द्र में मानव जीवन की कुछ भावनायें रहती हैं। अभिनव गुप्त का साधारणीकरण का सिद्धान्त इसी धारणा की परिणति है। इस सिद्धान्त का तत्व यह है कि रस वस्तु या पदार्थ का गुण नहीं वरन् रसिक के हृदय की अनुभूति है।
रस की निष्पप्ति संगीत, नृत्य, नाटक, चित्र एवं मूर्ति सभी से सम्भव है। जहाँ भाव है. वहाँ रस है 'यह एक सामान्य मान्यता सभी भारतीय कलाओं का आधार है। सामान्यतः रस सिद्धान्त भारतीय मनीषियों द्वारा निर्मित और विकसित सौन्दर्यशास्त्र है।
इस प्रकार भारतीय संस्कृति, धर्म दर्शन, इतिहास व साहित्य की मूल धारणाएं मिलकर भारतीय सौन्दर्यशास्त्र की नवीन अवधारणाओं का उद्गम हैं। यहीं से नवीन अवधारणाएं जन्मी एवं विकसित हुई।
भारतीय स्रोतों के अनुसार कला के अनिवार्य तत्व - कला में आवश्यक तत्व निम्नलिखित हैं-
(1) छन्दमय कुशलता।
(2) कलाओं के विकास के साथ-साथ उनमें नित-नवीन सिद्धिता जुड़ती गई जैसे 'कल्पना के आधार।
(3) आध्यात्मिक तथा सृजनशील मन की इच्छा को पूर्ण करने वाली क्रिया।
(4) मानव की पूर्णत्व को व्यक्त करने की अपूर्ण चेष्टा।
(5) आध्यात्मिक से भौतिक, भौतिक से पुनः आध्यात्मिक पर जाने का साधन (उदाहरण - मन में प्रभु की कल्पना से मूर्ति गढ़ना, मूर्ति से फिर प्रभु का ध्यान)।
(6) कला एक ऐसी रचना या निर्माण है जो इच्छा पूर्ति करे और सुख दे।
(7) कला जड़ (सामग्री रंग, पत्थर इत्यादि) से चेतना की ओर और चेतना से जड़ की ओर प्रवृत्त है। कलाकार जड़ सामग्री से अपनी चेतना का चित्र उकेरता है, परन्तु कलाकार की चेतना के बिना से जड़ है - मूर्ति पत्थर ही तो है। मूर्ति पत्थर ही तो है।
(8) कला जड़ और चेतन में पुरुष और प्रकृति में सामजस्य लाने का प्रयास है।
भारत में कला मुख्य रूप से दैनिक जीवन की आवश्यकता पूर्ति से सम्बद्ध रही है, यहाँ शिल्प (क्राफ्ट) और ललित कलाएं (फाइन आर्ट्स) दोनों ही किसी न किसी रूप में इस उद्देश्य की पूर्ति करती हैं, कुछ कलाएं कुशलता की कारीगरी का प्रमाण देती हैं- इन्हें शिल्प कह सकते हैं, दूसरी ओर वे कलायें हैं जिनका उद्देश्य रस की निष्पत्ति है जैसे - काव्य, चित्र, नाटक। दोनों का ही जीवन में महत्वपूर्ण स्थान व उद्देश्य है। एक का व्यावहारिक ज्ञान और दूसरे का आनन्द की प्राप्ति।
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