बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला बीए सेमेस्टर-4 चित्रकलासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 4
पाश्चात्य कला में सौन्दर्यशास्त्र की अवधारणा
(प्राचीन यूनानी सौन्दर्यशास्त्र, पाश्चात्य)
[Concept of Aesthetics in Western, Art
(Ancient Greek Aesthetics, Western)]
प्रश्न- सौन्दर्य के सम्बन्ध में पाश्चात्य दार्शनिकों के क्या विचार हैं?
उत्तर -
सौन्दर्य के पाश्चात्य विचार
(The Views of Western Philosopher about Beauty)-
सौन्दर्यशास्त्र का वर्तमान स्वरूप भारत में यूरोप के अनुकरण पर विकसित हुआ है। यूरोप में इसे "एस्थेटिक्स" कहा जाता है। पश्चिमी देशों में भी यह एक व्यवस्थित शास्त्र के रूप में इसकी स्थापना, अधिक प्राचीन नहीं है। ऐस्थेटिक्स 'शब्द' यूनानी भाषा के ऐस्थिटिकोस जिसका अर्थ है इन्द्रिय बोध अथवा वस्तु बोध का प्रत्यक्षानुभव। इसी से ऐस्थेटिक शब्द का विकास हुआ जिसका अर्थ वामगार्तन के अनुसार "वस्तुबोध का विज्ञान था, वस्तुबोध अर्थात् जो शब्दों में पूर्णरूप से अप्रकटनीय है। किन्तु हीगल ने इसे ललित कलाओं का दर्शन माना।
सामान्य रूप से आज इसका सम्बन्ध रस सौन्दर्य से माना जाता है जो कला अथवा प्रकृति में है। माध्यमों के अनुसार कला का विश्लेषण, मानव व्यवहार में कलाओं का स्थान आदि इसके अध्ययन का विषय हैं। कलात्मक मूल्य, उनका सत्य तथा शिव से सम्बन्ध और सौन्दर्यानुभूति की समस्याओं आदि का इस शास्त्र के अर्न्तगत विचार किया जाता है।
आरम्भ में सौन्दर्यशास्त्र, दर्शनशास्त्र का ही एक अंग था। इसे तत्व दर्शन, आचारशास्त्र तथा मनोविज्ञान ने प्रभावित किया और इसका स्वरूप विकसित होता गया। सन् 1750 ई. में जर्मन विद्वान वामगार्तन ने इसे दर्शनशास्त्र की ही एक शाखा 'ऐस्थेटिक्स' के रूप में माना जिसमें कला तथा प्रकृति के सौन्दर्य के स्वरूप का अध्ययन किया जाता है। उनकी विचारधारा अन्य पूर्ववर्ती मान्यताओं से भी प्रभावित थी। उन्होंने लीवमिज के ही अनुसार इसे 'वस्तुबोध अथवा इन्द्रिय ज्ञान का विज्ञान' कहकर परिभाषित किया और अन्य शास्त्रों से इसे भिन्न बताते हुए कहा कि इन्द्रियों के ज्ञान का विषय सौन्दर्य है। यह तर्कशास्त्र से भिन्न है क्योंकि तर्क का लक्ष्य सत्य है। वामगार्तन ने कला सिद्धान्त तथा सौन्दर्य सिद्धान्त को एक ही माना, यद्यपि उनके पूर्व तथा पश्चात् के अनेक विद्वान दोनों को अलग-अलग ही मानते हैं। हीगल ने इसे कलाओं का शास्त्र माना जबकि बोसाके इसे सौन्दर्य का शास्त्र मानते हैं। सभी कलाओं से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार सौन्दर्यशास्त्र काव्यशास्त्र की तुलना में अधिक व्यापक है। काव्यशास्त्र में सौन्दर्यशास्त्र की सभी विशेषताएँ समाहित नहीं की जा सकती हैं।
यूनानी रोमन सौन्दर्य दर्शन
भूमिका - यूरोप की सभ्यता, कला, संस्कृति ज्ञान और विज्ञान की परम्पराएँ प्राचीन यूनान से आरम्भ हुई थीं। प्राचीन यूनान में अनेक प्रसिद्ध दार्शनिक, विचारक, कलाकार तथा कवि हो गये हैं किन्तु उन सबमें प्लेटो तथा अरस्तू का नाम सौन्दर्य से सम्बन्धित विचारों की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण है। प्लेटो से पूर्व यूनान में कला के सौन्दर्य का विचार सत्य, अनुकृति और शुद्धीकरण की दृष्टि से आरम्भ हो चुका था। कुछ दार्शनिकों ने कलाओं को असत्य से सम्बन्धित माना। जेनोफेनीज ने यूनानी कवियों होमर तथा इलियाड पर अपने-अपने काव्यों में देवताओं को चोरी, व्यभिचार तथा धूर्तता में संलग्न दिखाया है। चूँकि देवताओं में दुर्गण नहीं हो सकते। अतः इन कवियों ने गलत दर्शाया है। प्राचीन यूनान में अनुकृति का सिद्धान्त भी प्रचलित हो चुका था।
(1) प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात (Socrates) समय (469-399 ई. पू.) - सुकरात मूर्तिकार के पुत्र थे। प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात ने कहा कि अनुकृति का गत्यर्म अच्छी बातों की अनुकृति है। यह सिद्धान्त डेमोक्रिटस में विद्यमान था। सुकरात ने अनुकृति के सिद्धान्त का उल्लेख करने वाली अनुकृति को अच्छा न मानकर उसमें सौन्दर्य का सम्मिश्रण आवश्यक मानते थे क्योंकि कलाकार अनेक वस्तु के सुन्दर सुंदर अशों का चयन करके उनके आधार पर ही किसी सुंदर कृति की रचना करता है। वस्तुओं के बाहरी रूपों व अतिरिक्त सुख-दुख आदि जो मानसिक दशाएँ हैं, कलां में उनकी भी अनुकृति करनी चाहिए। गोरजियास नामक दार्शनिक ने यह भी कहा कि अनुकृति का अर्थ मूल के समान प्रतिकृति (नकल) बनाना नहीं है। उन्होंने सर्वाधिक अनुकरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया। किन्तु सुकरात ने उसके स्थान पर वरेण्य (अच्छे और स्वीकार्य) अनुकरण को महत्व दिया। शुद्धीकरण का सिद्धान्त भी पायथागोरस के अनुयायियों में प्रचलित था जो संगीत और गणित के अनुशीलन से आत्मा का शुद्धीकरण मानते थे। सुकरात ने भी सौन्दर्य को कल्याणकारी माना था। इन्हीं बिखरे हुए विचारों के आधार पर आगे चलकर प्लेटो तथा अरस्तू के सिद्धान्त विकसित हुए।
(2) प्रसिद्ध दार्शनिक (प्लेटो 427 - 347 ई.पू.) (Plato - 427 - 347 A.D.) -
प्लेटो का सौन्दर्य - सिद्धान्त दर्शन के सिद्धान्तों पर आधारित है। उनके अनुसार एक लोक ज्ञप्ति अथवा प्रत्यय (आइडिया) का है, दूसरा भौतिक (मैटर) से सम्बन्धित है। पहला यथार्थ है और दूसरा लोक पहले लोक का ही प्रतिबिम्ब है, अतः अयथार्थ है। पहला सत्य, अनश्वर तथा अपरिवर्तनशील है, दूसरा असत्य, नश्वर और परिवर्तनशील है।
ज्ञप्तियां अथवा प्रत्यय वस्तुओं के सार तत्व हैं। भौतिक वस्तुएं जिन्हें हम विशेष कह सकते हैं उनके आवश्यक सामान्य गुणों का संग्रहीत रूप ही ज्ञप्ति अथवा प्रत्यय है। जैसे हमने संसार में अनेक अश्वों को देखकर उनकी अश्व-गत विशेषताओं के आधार पर मन में एक ज्ञप्ति अथवा प्रत्यय को स्थिर किया, जो अश्व है। अश्व का यह प्रत्यय संसार के किसी भी अश्व से पूरी तरह मिलता नहीं है, फिर भी सामान्य रूप में सभी अश्वों के समान है। अतः ज्ञप्तियाँ सामान्य स्वरूप हैं, शाश्वत हैं। विशेष या लौकिक वस्तुएँ इन्हीं ज्ञप्तियों अथवा प्रत्ययों की प्रतिबिम्ब मात्र एवम् अपूर्ण प्रतिकृतियाँ मात्र हैं।
सभी प्रत्यय व्यवस्थित, संगठित और तर्क-संगत हैं जो चरम प्रत्यय शिव (ईश्वर) में सन्निहित हैं। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। भूत तत्व के सम्पर्क में आने पर कोई प्रत्यय अनेक विशेष रूप धारण कर लेता है। ये अनके विशेष वस्तुएँ मिलकर एक सामान्य वर्ग बनाती हैं। इस प्रकार प्रत्यय प्रधानतत्व है और सभी वस्तुओं का कारण है।
प्लेटो का जन्म एथीनियम वंश में हुआ था। आरम्भिक सुदृढ़ शिक्षा - दीक्षा प्राप्त करने के पश्चात् बौद्धिक उत्सुकता के युवाकाल में प्लेटो को सुकरात जैसे बुद्धिवादी गुरू मिले। प्लेटो में दर्शन की अवतारणा सुकरात जैसे महामानव के आदर्श जीवन के कारण हुई।
प्लेटो की कला व साहित्य सम्बन्धी धारणाएं उनके द्वारा रचित ईआन (Ion), क्रेटिलुस (Cratylus), प्रोटोगोरस (Protogoras), गॉरगियाज (Gorgias), सिम्पोजियम (Symoposium), रिपब्लिक (Republic), फेड़डरुस (Phaedrus), फिलेबुस (Philebus) तथा लॉज (Laws) इत्यादि ग्रन्थों में प्राप्त होती हैं।
प्लेटो के सौन्दर्य एवं कला सम्बन्धी विचार उनकी तत्व मीमांसा से सम्बन्धित हैं । तत्व मीमांसा वह दार्शनिक चिन्तन है, जिसमें परमसत्ता की खोज की जाती है। तत्व मीमांसा के अनुसार अन्तिम तत्व नित्य, स्थाई एवं अपरिवर्तनशील है जो सभी वस्तुओं तथा घटनाओं का आधारभूत सार है। प्लेटो एक दार्शनिक, सत्य के उपासक तथा तर्क- पसंद व्यक्ति थे। वे केवल बौद्धिक आनन्द को ही स्वीकार करते थे। इन्द्रिय आनन्द को नहीं। प्लेटो के अनुसार, सत्य वह है जिससे समाज और व्यक्ति के नैतिक व आध्यात्मिक जीवन को बल मिले। सत्य वह है जिससे जो कूटस्थनित्य, शाश्वत, स्वनिर्भर तथा निर्पेक्ष हो। आभास वह है जो देशकाल में रहकर सीमित, परिवर्तनशील, सापेक्ष तथा आकस्मिक हो।
इस रूप में साधारणतः वास्तविक वस्तुएँ आभास कहीं जाएँगी क्योंकि वे सापेक्ष एवं परिवर्तनशील हैं। इन्हें हम परम सत्ता नहीं कह सकते क्योंकि ये नाशवान हैं जबकि सत्य अमर होता है। इस तथ्य को समझाने हेतु प्लेटो के दर्शन में दो परिभाषित शब्द प्रत्यय व विशेष मिलते हैं, जिन पर उनका सम्पूर्ण दर्शन आधारित है। भूततत्व निश्चेष्ट, जड़ तथा अप्रधान हैं प्रत्यय को केवल आंशिक रूप से ही प्रकट करने में सक्षम है अतएव यह भूत तत्व ही अपूर्णताओं, परिवर्तनों तथा बुराइयों का कारण हैं। आत्मा में प्रत्यय का संचार रहता है। जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है तो वस्तुओं का इन्द्रियबोध इन प्रत्ययों को केवल जाग्रत करने में सहायता करता है। ज्ञान तीन प्रकार का है-
(1) प्रत्यय - मूलक - यह तर्क विधि से प्राप्त किया जा सकता है। इसकी सहायता से आत्मा को प्रत्ययों का साक्षात्कार करने में सहायता मिलती है।
(2) इन्द्रिय - बोध - मूलक - इससे केवल विशेष वस्तुओं के बाह्य स्वरूप को ही जाना जा सकता है, यथार्थ को नहीं।
(3) अभिमत - यह व्यक्ति के अपने विश्वास तथा प्रलोभनों पर आधारित रहता है अतः यह भी यथार्थ से दूर रहता है।
आत्मा की तीन विशेषताएँ हैं-
(1) यह स्वयं गतिमान है और शरीर का भी संचालन करती है।
(2) इसमें काम की मूल प्रेरणा है जो निम्न धरातल पर इन्द्रिक प्रेम की ओर आकर्षित होती है परन्तु यथार्थ सौन्दर्य और जिनसे आकर्षित होने पर यह अपने मूल निवास स्थान को लौट जाती है।
(3) यह मिश्रित और जटिल है क्योंकि इसकी रचना मन और भूत तत्व, भेद और अभेद, खण्डता और अखण्डता तथा तर्क पूर्ण और तर्कहीन को मिलाकर हुई है।
(3) अरस्तू (Aristotle) (384-322 ई.पू.) - अरस्तू का जन्म एशिया माइनर की कैल्किदिस नामक यूनानी बस्ती के स्टैजिरा नामक स्थान पर ईसा से 385 अथवा 384 वर्ष पूर्व हुआ था। इनके पिता के पूर्वजों का सम्बन्ध यूनान से था तथा मां एशिया माइनर से सम्बन्धित थीं। ये सत्य का अन्वेषण करने वाले दार्शनिक तथा भौतिक संसार का निरीक्षण करने वाले वैज्ञानिक थे। इनके साहित्य से चिन्तन का ही नहीं वरन् अरस्तू के समय तक के यूनानी चिन्तन के सभी सूत्रों का पता चलता है। ये प्रथम पाश्चात्य विचारक थे। जिन्होंने भौतिक जगत सम्बन्धी अध्ययनों एवं मानवीय अध्ययनों की सीमाएँ निर्धारित करने का प्रयत्न किया था और विभिन्न विषयों के अन्तर्गत ऐतिहासिक विधि का अनुसरण करते हुए अपने विचार व्यक्त किये थे।
प्लेटो के समय तक जितने विचार-सूत्र एकत्र हुए थे, अरस्तू ने उन सबकी व्याख्या की। धार्मिक भावनाओं को अरस्तू ने अनावश्यक महत्व नहीं दिया। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व का समर्थन किया किन्तु ईश्वर के विवेचन का क्षेत्र भी निश्चित कर दिया। अरस्तू के चिन्तन में यूनानी दर्शन का चरर्मोत्कर्ष प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि अरस्तू ने लगभग छः ग्रन्थों की रचना की, जिनमें काव्यशास्त्र (Poetics) तथा अलंकारशास्त्र (Rhetoric )) एवं राजनीतिशास्त्र (Politics) ही अस्तित्व में है।
अरस्तू का प्रसिद्ध ग्रन्थ काव्य शास्त्र है। इसमें उन्होंने कला तथा सौन्दर्य के सम्बन्ध में यूनान के अनुकृति, नैतिकता, शुद्धीकरण आदि के परम्परा से चले आते हुए सिद्धान्तों की अपने ढंग से व्याख्या की है। अरस्तू के अनुसार प्रकृति केवल बाहर से दिखाई देने वाली वस्तु न होकर सृजनात्मक शक्ति है जो ब्रह्माण्डीय नियम के रूप में व्याप्त है। कला प्रकृति की सीधी अनुकृति न करके उसकी पद्धति की ही अनुकृति करती है। प्रकृति की सर्वश्रेष्ठ कृति मनुष्य है किन्तु वह अपूर्ण है।
अनुकृति प्रायः तीन वस्तुओं की होती है नैतिक गुण, भाव तथा क्रियाएँ। कला में मानव जीवन, इसकी मानसिक प्रक्रिया, आध्यात्मिक गति तथा आन्तरिक अनुभूति से उत्पन्न होने वाली क्रियाओं, एक शब्द में उसकी आत्मा का प्रतिबिम्ब उतारा जाता है। अरस्तू ने वास्तुकला को ललित कला नहीं माना है।
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