बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत बीए सेमेस्टर-4 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
|
0 5 पाठक हैं |
बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 3
छन्द (वृत्तरत्नाकर से अधोलिखित छन्द) : अनुष्टुप्,
आर्या, वंशस्थ, द्रुतविलम्बित, भुजङ्गप्रयात, बसन्ततिलका,
इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति, मालिनी, मन्दाक्रान्ता,
शिखरिणी, शार्दूलविक्रीडित एवं स्रग्धरा
'छन्द' शब्द के मूल में 'छवि' धातु है। इस छंदि के कई अर्थ होते हैं। 'छवि संवरणे' के अनुसार 'छदि' धातु का प्रयोग छिपने के अर्थ में है। 'निघण्टु' में 'छन्द' धातु का भी उल्लेख हुआ है। जिसका अर्थ बन्धन से है। एक अन्य स्थल पर छन्द शब्द का अर्थ आच्छादन बताया गया है - 'छन्दासि आच्छादनात् ' आच्छादित करने के कारण छन्द कहा गया है। सायण ने छन्द शब्द को स्पष्ट करते हुए बताया है - 'अपमृत्यं वारयितुं आच्छादयति इति छन्दः' अर्थात् कवि और उसकी कृति को जो अपमृत्यु से बचाता है, वह छन्द है। किन्तु दूसरे सन्दर्भ में कवि की सम्पूर्ण भावनाओं एवं अभिव्यक्तियों ने आच्छादन को छन्द कहते हैं।
छन्द को अनेक रूपों में परिभाषित करने की चेष्टा की गयी है। आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने परिभाषित करते हुए बताया है - "छोटी-छोटी सार्थक ध्वनियों के प्रवाहपूर्ण सामंजस्य का नाम छन्द है।"
अक्षर उसकी संख्या, मात्रा आदि छन्द के अस्थायी आद्यान है। वस्तुतः आचार्य शुक्ल 'प्रवाहपूर्ण सामंजस्य' शब्द द्वारा सम्भवतया उसके एक विशिष्ट तत्व की ओर संकेत करना चाह रहे हैं वह है, 'त्रय तत्व'। अक्षर एवं मात्राभिधान आदि लय के अनिवार्य उपकरण न होकर सामयिक तत्व हैं। समयानुकूल लय काव्य भाषा में अनेक आधानों को अपने ऊपर धारण करता है - ये आधान युगीन होते हैं। काव्य विधान के लिए उपयुक्त शब्दों की लयमुक्त व्यवस्था का नाम ही छन्द है। अमरकोश में लय को परिभाषित करते हुए बताया गया है - 'लयः साम्यम्' अर्थात् रचना के बाह्य एवं अन्तर्वती अन्विति का नाम लय है। यहीं नहीं, यह भी बताया गया है कि 'लयाधारो छन्दः" छन्द लयाश्रित होता है। एक अन्य स्थल पर कहा गया है - 'पादन्यासो लयमनुगतः' अर्थात् छन्द का प्रत्येक चरण लय में परिभाषित होता है। लय ही छन्द का प्राण है। भारतीय वाङ्मय के साथ छन्द का इतिहास जुड़ा है। ऋग्वेद दशम् मण्डल के पुरुष सूक्त में निर्दिष्ट किया गया है कि पुरुष से ही छन्द, ऋक् एवं यजु एवं सामवेदों की उत्पत्ति हुई है-
'छन्दसि जज्ञिदे तस्मात् यजुस्तस्माद्जायत्'
|