बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत बीए सेमेस्टर-4 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत - सरल प्रश्नोत्तर
स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य
सम्पूर्ण भारतीय छन्द इतिहास को 4 क्रमों में विभक्त करके देखा जा सकता है-
(i) अक्षर - विधान क्रम,
(ii) गण - विधान क्रम,
(iii) मात्रा - विधान क्रम,
(iv) लय- विधान क्रम।
ईसा पूर्व की शतियो में लिखे जाने वाले वैदिक साहित्य के छन्द 'अक्षर विधान' से प्रशासित थे।
छन्द के निम्नलिखित अंग हैं - याद या चरण, मात्रा और वर्ण, संख्या और क्रम, लघु और गुरु, गण, यति, गति, तुक।
छन्द में प्रायः चार चरण होते हैं। पहले और तीसरे चरण को विषम चरण तथा दूसरे और चौथे चरण को सम चरण कहा जाता है।
मात्रिक छन्द में मात्राओं को गिना जाता है और वार्णिक छन्द में वर्णों को।
दीर्घ स्वरों के उच्चारण में ह्रस्व स्वर की तुलना में दुगुना समय लगता है। ह्रस्व स्वर की एक मात्रा एवं दीर्घ स्वर की दो मात्राएं गिनी जाती हैं।
छन्द शास्त्र में लघु एवं गुरु में दोनों वर्णों के भेद हैं। ह्रस्व को लघु वर्ण एवं दीर्घ को गुरु वर्ण कहा जाता है।
अ, इ, उ एवं चन्द्र बिन्दु वाले वर्ण लघु गिने जाते हैं।
आ, ई, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ अनुस्वार, विसर्ग युक्त वर्ण गुरु होते हैं।
संयुक्त वर्ण के पूर्व का लघु वर्ण भी गुरु गिना जाता है।
मात्राओं एवं वर्णों की गणना को संख्या कहते हैं तथा लघु गुरु के स्थान निर्धारण को क्रम कहते हैं।
तीन वर्णों का एक गण होता है। वार्णिक छन्दों में गणों की गणना की जाती है। गणों की संख्या आठ है।
गणों को याद करने के लिए एक सूत्र है - 'यमातासजमानसलगा'।
यति का अर्थ विराम है, गति का अर्थ लय है और लुक् का अर्थ अन्तिम वर्णों की असृति है।
चरण के अन्त में तुकबन्दी के लिए समानोच्चारित शब्दों का प्रयोग होता है। जैसे - कन्त, अन्त, वन्त, वसन्त आदि
यदि छन्द में वर्णों एवं मात्राओं का सही ढंग से प्रयोग प्रत्येक चरण में हुआ हो तो उसमें स्वतः ही 'गति' आ जाती है।
सामान्यतः छन्द में मात्राओं या वर्णों की गणना की जाती है।
वार्णिक छन्द दो प्रकार के होते हैं- साधारण एवं दण्डक।
साधारण वे वार्णिक छन्द जिनमें 26 वर्ण तक के चरण होते हैं।
दण्ड 26 से अधिक वर्णों वाले चरण जिस वार्णिक छन्द में होते हैं उसे दण्डक कहा जाता है।
घनाक्षरी में 31 वर्ण होते हैं अतः यह दण्ड छन्द का उदाहरण है।
मात्राओं की गणना पर आधारित छन्द मात्रिक छन्द कहलाते हैं।
ह्रस्वस्वर लघु होते हैं। यहीं नहीं इन लघु स्वरों के संयोग से बने व्यंजन भी लघु माने जाते हैं - जैसे- अ, क, च, कि, क आदि।
संयुक्ताक्षर के पहले का वर्ण जिस पर बलाघात् नहीं पड़ता, लघु माना जाता है - जैसे हनुमन्त शब्द में 'म' लघु है।
चन्द्र बिन्दु मुक्त व्यंजन लघु माने जाते हैं जैसे सँगा में 'सँ' लघु हैं।
दीर्घ स्वर एवं उनके संयोग से निर्मित व्यंजन गुरु माने जाते हैं - जैसे- का, की, के, में, को आदि।
बलाघात् से प्रभावित लघु व्यंजन गुरु हो जाता है - यथा, गुरु - प्रसाद में 'गुरु' में 'रु' पर जोर देने पर लघु होते हुए भी दीर्घ होगा।
संयुक्ताक्षर में 'हलन्त्' के पूर्व का वर्ण दीर्घ होगा - जैसे - विष्णु। इसमें 'विष्णु' अर्थात् 'वि' दीर्घ है।
रेफ के पहले का लघुवर्ण गुरु हो जाता है - यथा - मर्म, चर्म, कर्म में म, च, क ये सभी गुरु हैं।
विसर्गान्त सभी गुरु होते हैं - जैसे - दुःख में 'ख' गुरु हैं।
लयात्मकता के लिए आधार उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित की उच्चारण विधि थी। अक्षर संख्या पर आधारित छन्द उच्चारण विधि से अनुशासित थे।
त्रिटुप = 4 चरण 11 अक्षर प्रति चरण 44 अक्षर।
विराज = 2 चरण- 10 अक्षर प्रति चरण 20 अक्षर।
आचार्य भरत के पूर्व से ही मात्राश्रित 'अति' छन्दों का प्रयोग मिलता है। इनमें 'लघु' एवं 'गुरु' मात्राओं (I, 5) का प्रयोग मिलता है। प्राकृत, अपभ्रंश काल में गणविधान प्रायः टूटने से लगे और अक्षरों का स्थान मात्राओं ने ले लिया।
छन्द के वाह्य आवरण अक्षर, रचना, गण, मात्रा विधान आदि पूरी तरह से टूटे।
किसी भी ध्वनि के उच्चारण में काल की लघुत्तम इकाई को मात्रा कहा जाता है। जैसे 'क' काल की लघुतम इकाई के कारण 'लघु' कहा गया है। इससे अधिक उच्चारण काव्य होने के कारण दीर्घ कहा जाता है। जैसे - आ।
वे वर्णिक छन्द जिनके प्रत्येक चरण की गण या अक्षर संख्या एक सी न हो विषम वर्णिक कहलाते हैं।
जिन वर्णिक छन्दों में दूसरे तथा चौथे एवं प्रथम तथा तृतीय चरणों में अक्षरों या गणों में समानता हो अर्थ सम वर्णिक कहलाते हैं।
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