बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत बीए सेमेस्टर-4 संस्कृतसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 संस्कृत - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 4
अलंकार : अनुप्रास, यमक, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा,
सन्देह, भ्रान्तिमान, दृष्टान्त, निदर्शना, विभावना
विशेषोक्ति, अर्थान्तरन्यास एवं समासोक्ति
अलंकारों की चर्चा अत्यन्त प्राचीन काल से होती आयी है। साहित्य ग्रन्थों, उपनिषदों निरुक्त तथा व्याकरण सूत्रों में भी अलंकारों का प्रभाव देखा जाता है। समस्त ग्रन्थों में अलंकार शब्द किसी अलंकार विशेष का वाचक मात्र है।
हरादिवदलङ्कारः सन्निवेशो मनोहरः॥
नाट्यशास्त्रकार भरतमुनि ने भी चार अलंकारों की चर्चा की है। इन सभी ग्रन्थों में अलंकार शब्द का सीमित अर्थ में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार के अर्थ का कारण अलंकार शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी है। 'अलंकरोति शब्दार्थान्निति' अथवा 'अलंक्रियते अनेन' अथवा 'अलंक्रियते अनेन' यह अलंकार शब्द की उत्पत्ति है। इन दोनों व्युत्पत्तियों में द्वितीय व्युत्पत्ति को काव्यशास्त्र के विद्वानों ने अधिक तर्कसंगत स्वीकार किया है।
किन्तु आचार्य दण्डी ने अलंकार शब्द की प्रथम व्युत्पत्ति को ही व्यापक दृष्टि से अपनाया है। उनकी दृष्टि में अलंकार वह तत्व है जो काव्य के समग्र - सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व करता है। आचार्य दण्डी के अनुसार काव्य में सौन्दर्य अलंकार से ही आता है, चाहे वह किसी भी प्रकार का सौन्दर्य क्यों न हो। उन्होंने कहा 'काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचस्रते अर्थात् मैं काव्य की शोभा बढ़ाने वाले अलंकारों का वर्णन कर रहा हूँ। उनके पश्चात् वामन ने अलंकार को सौन्दर्य का वाचक माना है। वामन के शब्दों में 'काव्यं ग्राह्यमलंकारात्, सौन्दर्यलंकारः।' अर्थात् अलंकार के ही कारण काव्य संग्राह्य हैं। सौन्दर्य को ही अलंकार कहते हैं। उन्होंने अपने आशय को स्पष्ट करते हुए कहा कि काव्यों के गुण को बढ़ाने वाले तत्व अलंकार तथा गुण में कोई अन्तर इसलिए नहीं स्वीकारना करना चाहिए कि दोनों काव्य के शोभाधारक तत्व हैं। यदि इन दोनों में अन्तर है तो केवल इतना ही कि काव्य के गुण काव्य में सौन्दर्य को उत्पन्न करते हैं और अलंकार उस शोभा को बढ़ाते हैं। अतएव दोनों में तत्वतः कोई भेद नहीं स्वीकार किया जाना चाहिए।
अलंकार सम्प्रदाय के जन्मदाता और प्राचीनतम् आलंकारिक मम्मट ने कहा कि 'वक्राभिधेय शब्दोक्तिरिष्टवाचामलंकृतिः' अर्थात् लोकोत्तर चमत्कार के जनक शब्दों के द्वारा अभिप्रेतार्थ को वक्र रीति को कहने का अलंकार कहते हैं, वह ही अलंकार है। किसी प्रकारान्तर से कहने में जो एक विच्छिन्ति विशेष की प्रतीति होती है, वह ही अलंकार है। अलंकारवादी आचार्य द्वारा काव्य में जीवातु तत्व के रूप में अलंकार को स्थापित किये जाने का विरोध ध्वनिवादी आचार्यों ने किया। आचार्य आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में कहा-
'विवक्षा तत्परत्वेनांगिरवेन कदाचन्।'
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