बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 24
विकास के मुद्दे
(Issues of Development)
संस्थाओं को अपने लक्ष्य की पूर्ति करने हेतु विभिन्न प्रकार की उभरती हुई सामाजिक, न्यायिक, आर्थिक, पर्यावरणीय तथा अन्य प्रकार की चुनौतियों को ध्यान में रखना होता है और इन्हीं चुनौतियों अथवा मुद्दों को सुलझाने हेतु ना नहीं सिर्फ संस्थाओं को प्रायोगिक प्रबंधन कार्यकुशलता की आवश्यकता होती है। बल्कि सम्बन्धित विषयों में उचित जानकारी तथा संवेदनशीलता की भी आवश्यकता है तथा ये जरूरी है। आपने कुछ शब्दों का उच्चारण अवश्य सुना होगा, जैसे सामाजिक-राजनैतिक कारक, और साथ ही पर्यावरणीय कारक और हम सभी इन्हीं जटिल तथा मुश्किल वातावरण में रहते हैं तथा इन्हें ही सरल बनाना सभी गैर-सरकारी संस्थाओं का उद्देश्य होता है तथा उनके लिए महत्वपूर्ण कार्य करने का क्षेत्र भी गैर-सरकारी संस्थाएँ जोकि सामुदायिक विकास हेतु विभिन्न समुदायों से जुड़कर कार्यरत हैं वो सिर्फ वहाँ रहने वाले निवासी के साथ ही नहीं जुड़ी हुई हैं बल्कि उनसे संबंधित कई तरह / प्रकार के अन्य कारणों से भी जुड़ी हुई हैं। स्थानीय समुदायों के आयाम बहुआगामी होते हैं, जिनका अध्ययन, न्यायिक तथा स्थानीय सरकारी कारणों को भी सुनना, देखना तथा उसके पीछे चलना भी आवश्यक है।
आज की सामाजिक जरूरत के हिसाब से जहाँ मानव अधिकार तथा लैंगिक मुद्दों को सबसे ज्यादा अहमियत दी जा रही है, वहाँ अन्य कारणों के साथ इन्हें भी नेता तथा उनके सहयोगी स्रोतों की भी जानकारी क्षेत्रीय कार्य हेतु आवश्यक होती है, जिससे की वो जटिल परिस्थितियों तथा समस्याओं तथा मुद्दों को आसानी से समझ जाएं तथा उनको सुलझाने हेतु जल्दी से जल्दी आवश्यक निर्णयों को लेकर कार्य सम्पादित करेंगे।
गरीबी का नाम जब भी हमारे सामने आता है या ये शब्द जब भी हम सुनते हैं तो हमारा अंदाज तथा अनुमान रुपया, पैसा, जमीन, जायदाद तथा शायद व्यक्ति विशेष की (डिग्री) शिक्षा होता है और . इन्हीं से हम व्यक्ति गरीब है या अमीर इसे परिभाषित भी करते हैं। परन्तु हम यहाँ गरीबी के कुछ अन्य तथा विभिन्न प्रकार के आयामों पर भी नजर डालेंगे, जिससे हमें 'गरीबी' शब्द की परिभाषा तथा अर्थ समझने में आसानी हो सके। गरीबी को हमेशा 'रुपये पैसे की औकात' के तर्ज पर आँका जाता था। हाँ आज भी वर्ल्ड बैंक गरीबी को हरेक दिन की एक व्यक्ति की आय के स्तर को नाप कर जानी जाये या फिर उसके पूरे परिवार की महीने की आय को।
सन् 1990 में और भी विकास के मुद्दे तथा अवधारणाएँ उभर कर सामने आयीं। धनविहीन लोग किस तरह से अपने आपको देखते तथा परिभाषित करते हैं या उनकी राय में 'गरीबी' का क्या अर्थ है इस बात को ज्यादा महत्व दिया गया और एक सर्वसुविधा सम्पन्नता का न होना ही गरीबी के रूप में पर्याय माना गया है।
पर्यावरणीय विकास के विश्व आयोग ने क्रमिक विकास तथा सुचारु रूप से चलने वाले विकास की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा है "विकास का अर्थ उन आवश्यकताओं की पूर्ति है जो वर्तमान में योग्यता सम्बन्धी समझौते जोकि आने वाली पीढ़ी की आवश्यकता पूर्ति में बगैर हानि या अवरोध पहुँचाए हों आज के समाज को पृथ्वी पर मौजूद सभी स्रोतों का उपयोग उचित प्रकार से करें, ना कि कभी खत्म न होने वाली सुविधाओं के रूप में। क्यूंकि आने वाली पीढ़ी को भी उन्हीं बातों को सोचना होगा जो वर्तमान में हैं आज तथा कल की आने वाली क्रियाओं, प्राकृतिक संपदाओं तथा स्रोतों हेतु मदद की जाने वाली प्रक्रियाओं के सामंजस्य हेतु इन्हीं नैसर्गिक सम्बन्धों द्वारा हम उम्मीद करते हैं कि जिन सुविधाओं का आज हम उपभोग कर रहे हैं वही विकास के रूप में आने वाली पीढ़ी को उनका जीवन और बेहतर करने में सहायक हो सके ताकि उनके जीवन का स्तर ऊँचा हो सके। भारत में ज्यादातर कम धनवान जनता गाँवों में निवास करती है और मुख्य रूप से नैसर्गिक उपायों पर अपने जीवनयापन हेतु निर्भर रहती है। हमारे भारत में ज्यादातर निर्धनता गाँवों में पायी जाती है और उनका जीवनयापन नैसर्गिक सुविधाओं तथा स्रोतों पर ही आधारित रहता है। देश की 60 प्रतिशत आबादी या कहा जाये मजदूर, खेती-बाड़ी, मछली पालन तथा जंगलों के भरोसे अपने जीवनयापन को बाध्य रहते हैं। और इन्हीं स्रोतों का क्रमश: कम होते जाना गरीबी को और बढ़ाने में सहायक है। संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम का एक दस्तावेज जिसका शीर्षक "गरीबी तथा पर्यावरणीय सम्बन्ध के अनुसार 100 लाख लोगों की आबादी जंगलों के आसपास रहती है, 275 लाख की आबादी जिनके लिए जंगल ही ऐसा स्रोत है। जिससे जलाने की लकड़ी, भूसा चारा आदि के सहारे लोग अपना गुजारा/जीवनयापन करते हैं और आर्थिक कार्यों को परिणाम देते हैं। साथ ही इमारती लकड़ियों को जोड़ना और जमा करना विशेषकर के औरतों के कार्य हैं। ज्यादातर समुद्री तटों तथा तटीय प्रदेशों में मछली से जुड़े हुए व्यवसाय ही जीवनयापन का माध्यम हैं तथा वही पोषण के लिए भी जिम्मेदार हैं।
भारत में मुख्यतः क्रमिक एवं सुचारु रूप से होने वाले विकास के अन्तर्गत सिर्फ पर्यावरणीय विकास को ही महत्व नहीं दिया गया बल्कि आर्थिक, पर्यावरणीय तथा सामाजिक नीतियों को भी ध्यान में रखा गया। इन तीन के अलावा संस्कृति विभिन्नता को भी चौथी नीति के अन्तर्गत रखा गया। अतएव हम कह सकते हैं कि 'विकास' शब्द का अर्थ सिर्फ आर्थिक विकास न होकर एक भावनात्मक, बौद्धिक, नैतिक तथा ईश्वरीय महत्ता को समझने के विकास से भी है, और ये एक बहुआयामी तथा सम्पूर्ण विकास से सम्बन्धित है।
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