बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 4
भ्रष्टाचार
(Corruption)
लोक जीवन में भ्रष्टाचार सामाजिक विघटन की एक ऐसी अभिव्यक्ति है। जो सम्पूर्ण सार्वजनिक जीवन के व्यवहार प्रतिमानों में उत्पन्न होने वाली विसंगति को स्पष्ट करती है। भ्रष्टाचार भारत की एक जटिल और गम्भीर समस्या है। यदि इसे राष्ट्रीय संकट की प्रमुख कारण माने तो अतिशयोक्ति न होगी। भ्रष्टाचार से राष्ट्र को बहुत क्षति हुई है। इससे सार्वजनिक जीवन में सड़ांध ही नहीं फैली वरन् राष्ट्रीय चरित्र का भी ह्रास हुआ है। यह जीवन के हर क्षेत्र में व्याप्त है, वह चाहे आर्थिक क्षेत्र हो या राजनीतिक, धार्मिक हो या शैक्षिक, औद्योगिक हो या व्यापारिक, खेलकूद हो या मनोरंजन। न इससे सरकारी क्षेत्र और न गैर-सरकारी, न सार्वजनिक क्षेत्र छूटा है और न व्यक्तिगत। सच तो यह है कि भ्रष्टाचार हमारे जीवन का सामान्य लक्षण हो गया है। आज हम इसे बुरा न समझकर इसके सहने व स्वीकार करने के आदी हो गए हैं। इसके निराकरण के लिए शोर बहुत किया जाता है। समितियों, संगठनों व आयोगों की नियुक्तियाँ हुई हैं। सरकार ने भ्रष्टाचार के क्षेत्र में विस्तार ही हुआ है। 'मर्ज बढ़ता गया ज्यों - ज्यों दवा की कथन भ्रष्टाचार के सन्दर्भ में सही और सटीक है।
इस प्रकार भ्रष्टाचार अवैधानिक तथा अनुचित रूप से व्यक्तिगत लाभ कमाना है। इसमें समाज और समुदाय के हितों की हानि होती है, पद का दुरुपयोग किया जाता है तथा कर्त्तव्य की अवहेलना की जाती है। भ्रष्टाचार किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं वरन् वह राजनीतिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक, व्यावसायिक आदि सभी क्षेत्रों में मिलता है। देश के स्वतन्त्र होने के बाद इसके क्षेत्र में बहुत विस्तार हुआ है। साधारण रूप से भ्रष्टाचार का तात्पर्य अनैतिक आचारों तथा व्यवहारों से समझा जाता है।
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