बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 23
रोजा लक्जम्बर्ग
(Rosa Luxemburg)
रोजा लक्ज़मबर्ग (1871-1919) बीसवीं शताब्दी के आरम्भ की पोलिश समाजवादी क्रांतिकारी महिला थी जिसे क्रांतिकारी मार्क्सवाद (Revolutionary Marxism) की मूल प्रवर्तक माना जाता । उन दिनों पोलिश राष्ट्रवाद (Polish Nationalism) वहाँ के मार्क्सवादियों का लोकप्रिय विषय था और वह 1863 के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संगठन (First International) की स्थापना का तात्कालिक कारण भी था। परन्तु रोजा लक्ज़ेमबर्ग को मार्क्सवाद की मूल मान्यताओं में गहरा विश्वास था, अतः वह किसी भी तरह के राष्ट्रवाद के विरुद्ध थी। अपने इस विश्वास के कारण उसने राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की नीति का भी विरोध किया जो लेनिन (1870-1924) की देन थी।
साम्यवादी दल की भूमिका
रोजा ने सैद्धान्तिक मार्क्सवाद (Theoretical Marxism) में आस्था रखते हुए 'जन-इच्छा' (Will of the People) को सम्मान देने की माँग की। उसे लोकतंत्र (Democracy) और स्वतंत्रता (Liberty) के सिद्धान्तों में अडिग विश्वास था।
स्वयं लेनिन ने यह स्वीकार किया था कि सोवियत समाजवादी लोकतंत्र और एक व्यक्ति के शासन या अधिनायतंत्र में कोई अंतर्विरोध नहीं है। कभी-कभी अधिनायक एक वर्ग की इच्छा का सर्वोत्तम प्रतिनिधित्व करता है और कभी-कभी उसकी प्रबल आवश्यकता अनुभव की जाती है। लेनिन की इस स्वीकारोधिक और उसकी कार्य-प्रणाली को देखते हुए यह सिद्ध हो जाता है कि रोजा लक्ज़ेमबर्ग की आलोचना में बहुत दम था। रोज़ा के अनुसार, समाजवाद (Socialism) का अर्थ सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक जीवन में पूरी जनता की खुली और बराबर की साझेदारी है। उसने यह तर्क दिया कि यदि यह साझेदारी नहीं रहेगी तो समाजवाद दर्जन भर बुद्धिजीवियों के आदेशों का समुच्चय बनकर रह जाएगा। यदि अनुभवों का आदान-प्रदान नए शासन के इने-गिने उच्चाधिकारियों तक सीमित रहेगा तो भ्रष्टाचार (Corruption) अवश्यंभावी है।
रोजा ने चेतावनी दी कि यदि समाज में लोकतंत्र का दमन कर दिया जाएगा तो दान में भी लोकतंत्र नहीं रहेगा; सर्वहारा के अधिनायकतंत्र (Dictatorship of the Proletariat) का परिणाम होगा- समाज का उत्पीड़न।
सुधार और क्रांति
रोजा लक्ज़मबर्ग ने अपनी आरम्भिक कृति 'सोशल रिफॉर्म और रिवोल्यूशन ?' (सामाजिक सुधार या क्रांति ?) (1899) के अंतर्गत इस दृष्टिकोण का खण्डन किया कि समाजवाद को पूँजीवाद के भीतर सामाजिक सुधारों की लम्बी श्रृंखला के सहारे धीरे-धीरे स्थापित किया जा सकता है। उसने तर्क दिया का कामगार आन्दोलन (Workers Movement) को मजदूर संघ (Trade Union) और संसदीय गतिविधि (Parliamentary Activity) के माध्यम से सुधारों के लिए संघर्ष अवश्य करना चाहिए, परन्तु यह सारा प्रयत्न पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों (Capitalist Productive Relations) का अंत करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा। सर्वहारा का अंतिम लक्ष्य (Ultimate Goa) क्रांति है जिसके लिए राजनीतिक शक्ति पर विजय प्राप्त करना सर्वथा आवश्यक है। पूँजीवादी व्यवस्था के संकट (Crisis) और अंतर्विरोधों (Contradictions) को केवल सुधारों के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता।
रोजा ने अपनी सबसे महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक कृति 'द एक्युमुलेशन ऑफ कैपीटल' (पूँजी संचय) (1913) के अंतर्गत पूँजीवाद के पतन (Breakdown of Capitalism) की भविष्यवाणी की।
जब पूँजीवाद अपने विस्तार की चरम सीमा पर पहुँच जाएगा, और उसे आगे बढ़ने का रास्ता नहीं मिलेगा, तब वह टूट जाएगा।
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