बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञानसरल प्रश्नोत्तर समूह
|
5 पाठक हैं |
बीए सेमेस्टर-4 राजनीति विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 18
थॉमस हिल ग्रीन
(Thomas Hill Green)
इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध आदर्शवादी विचारक ग्रीन का जन्म 6 अप्रैल, 1836 ई को यार्कशायर जिले में हुआ। उनके पिता इंग्लैण्ड के चर्च के पादरी और इंजीलवादी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। ग्रीन पर अपने पिता के तीव्र धार्मिक उत्साह और नैतिकता का बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। 14 वर्ष की आयु तक घर पर शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रीन को रगवी के विद्यालय में भेजा गया। पाँच वर्ष तक यहाँ शिक्षा पाने के बाद ग्रीन 1855 ई. में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रविष्ट हुए और उन्होंने अपना शेष जीवन इसी संस्था में व्यतीत किया।
ग्रीन को 1860 ई. में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के बेलिमोल कॉलेज में अनुसन्धान तथा अध्यापन कार्य करने के लिए चुना गया। ग्रीन का मुख्य योगदान यह था कि उसने जॉन लॉक (1632-1704) के प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धान्त और जेरेमी बेन्थम (1748-1832) के उपयोगितावाद (Utilitarianism) का खण्डन करते हुए नैतिक आधार पर उदारवाद (Liberalism) का पुनर्निर्माण किया और इस तरह कल्याणकारी राज्य की संकल्पना को बढ़ावा दिया। 18 वर्ष बाद इसी विश्वविद्यालय में उसे नैतिक दर्शन का प्रोफेसर बना दिया गया। प्रोफेसर के रूप में उन्होंने अपने विद्यार्थियों पर अमिट प्रभाव डाला और ग्रीन की मृत्यु के बाद उसके विद्यार्थियों ने ही उनके द्वारा दिए गये व्याख्यानों को पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवा कर गुरु की कीर्ति और प्रभाव को चरम शिखर पर पहुँचाया। 1880 से 1920 तक ग्रीन के राजनीति दर्शन ने ग्रेट ब्रिटेन में विश्वविद्यालय शिक्षा और सार्वजनिक नीति को जितना प्रभावित किया, उतना जॉन स्टुआर्ट मिल (1773-1836) के उपयोगितावाद ने भी नहीं किया। अध्ययन अध्यापन के साथ ग्रीन व्यवहारिक राजनीति तथा सार्वजनिक मामलों में काफी भाग लेते थे। वे कई वर्ष तक ऑक्सफोर्ड की नगर परिषद् के सदस्य रहे और उन्होंने उदार दल के चुनाव आन्दोलन में भी भाग लिया। उन्होंने शिक्षा प्रसार तथा महानिषेध के आन्दोलन में भी भाग लिया और वे शराब के व्यापार पर शासन की ओर से नियन्त्रण स्थापित करने की बात पर बल देते रहे। ग्रीन अत्यन्त गम्भीर स्वभाव के व्यक्ति थे । सन् 1882 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया।
थॉमस हिल ग्रीन के महत्वपूर्ण कथन
राज्य की शक्ति या प्रभुसत्ता मनुष्यों के नैतिक अधिकारों को लागू करने का साधन मात्र है।
राज्य का आधार इच्छा है, न कि शक्ति।
मानव का परम लक्ष्य परमात्मा का आत्मदर्शन करना है।
राज्य का वास्तविक आधार साधिकार शक्ति ही हो सकता है। निराधिकार शक्ति को
अधिक-से-अधिक राज्य का अस्थायी आधार ही माना जा सकता है।
युद्ध की स्थिति राज्य की सर्वशक्तिमान का द्योतक नहीं है।
राज्य का कार्य नैतिक जीवन के मार्ग की बाधाओं को बाधित करना है।'
जिस प्रकार राज्य के कुछ नैतिक उद्देश्य होते हैं, उसी प्रकार दण्ड के भी उद्देश्य नैतिक होने चाहिए।
राज्य को समाज में ऐसी परिस्थितियाँ बनानी चाहिए जिससे नैतिकता का पूर्ण विकास हो सके।
महत्वपूर्ण पुस्तकें
उदार व्यवस्थापन और अनुबन्ध की स्वतन्त्रता (Liberal Legislation and Freedom of Contract)
राजनीतिक दायित्व के सिद्धान्त पर व्याख्यान (Lectures on the Principles of Political Obligation)
इंग्लैण्ड की क्रान्ति पर व्याख्यान (Lectures on English Revolution)
नैतिकता का प्राक्कथन (Prolegomana to Ethics)
|