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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- चोलों के अन्तर्गत 'ग्राम-प्रशासन पर एक निबन्ध लिखिए।

अथवा
चोलकालीन ग्राम- प्रशासन की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
अथवा
चोलों के अधीन स्थानीय प्रशासन पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
अथवा
चोलों की स्थानीय स्वशासन प्रणाली पर प्रकाश डालिए।
अथवा
चोल कालीन स्थानीय प्रशासन पर प्रकाश डालिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. चोलों के प्रशासन में उर नामक संस्था का उल्लेख कीजिए।
2. चोलों के प्रशासन में सभा व महासभा का वर्णन कीजिए।

उत्तर-

चोलकालीन ग्राम-प्रशासन

चोलकालीन प्रशासन की विशेषताओं में सबसे प्रमुख विशेषता उनका ग्राम-प्रशासन था जिसमें प्रबल केन्द्रीय नियंत्रण के साथ-साथ बहुत मात्रा में स्वायत्तता भी थीं। उत्तर मेरुर से प्राप्त 919 तथा 939 ई. के दो लेखों के आधार पर हम ग्राम सभा की कार्यकारिणी समितियों की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण प्राप्त करते हैं। हर ग्राम में अपनी सभा होती थी जो प्रायः केन्द्रीय नियंत्रण से मुक्त होकर स्वतन्त्र रूप से ग्राम- प्रशासन का संचालन करती थी। इस उद्देश्य से उसे व्यापक अधिकार प्राप्त थे।

ग्रामों में मुख्यतः दो प्रकार की संस्थाएँ कार्य कर रही थीं-

1. उर - इसका अर्थ 'पुर' से है। यह गाँव और नगर दोनों के लिए प्रयुक्त होता था। कुछ लेखों में 'उराय- इशैन्दु-उरोम्' अर्थात् ग्रामवासी उर के रूप में मिले, उल्लिखित मिलता है। इससे यह प्रकट होता है कि उर की बैठकों में सभी ग्रामवासी सम्मिलित होते थे और यह सामान्य मनुष्यों की संस्था थी । उर की कार्यसमिति को आतुंगणम् अथवा 'गणम्' कहा जाता था। ऐसा लगता है कि कुछ सभाओं के लिए एक ही कार्यसमिति होती थी जो सभी विषयों की देख-रेख करने के लिए उत्तरदायी थी। कहीं-कहीं एक ही ग्राम में दो उर संगठन कार्य करते थे।

2. सभा एवं महासभा - ये अग्रहार ग्रामों में होती थी। ऐसे ग्रामों को 'ब्रह्मदेय' अथवा 'मंगलम् भी कहा गया है। अग्रहार ग्रामों में मुख्यतः विद्वान ब्राह्मण निवास करते थे। मुख्य रूप से सभाएँ अपनी समितियों के माध्यम से कार्य करती थीं। इन्हें 'वारियम' की संज्ञा दी गयी। तमिल में इसका अर्थ 'आय' तथा कन्नड़ में कड़ी माँग है। एक लेख में सभा की कार्यसमिति को 'वरणम्' कहा गया है। सभा द्वारा किसी कार्य विशेष के लिए नियुक्त व्यक्तियों को 'वारियर' कहा जाता था। मन्दिर का प्रबन्ध करने तथा कहीं देवदान भूमि का प्रामाणिक विवरण देने और उसकी सीमा लिखने का कार्य वारियम् को दिया जाता था। ज्ञात होता है कि जब शुचीन्द्रम के मूलपरुडे ने मन्दिर का प्रबन्ध छोड़ दिया तो सभा ने इस कार्य के लिए दो वारियरों को नियुक्त किया। कांची तथा मद्रास क्षेत्रों में ऐसी सभाएँ थीं। कभी-कभी ये दोनों ही संस्थाएँ एक ही ग्राम में कार्य करती थीं। जिन स्थानों में पहले से कोई बस्ती होती थी तथा वे बाद में ब्राह्मणों को दान में दिये जाते थे वहाँ उर तथा सभा साथ-साथ कार्य करती थीं। ऐसे गाँव के मूल निवासी उर में मिलते थे जबकि नया आने वाला ब्राह्मण अपनी सभा गठित कर लेता था। कहीं-कहीं सभी वयस्क पुरुष इसके सदस्य होते थे जबकि कुछ स्थानों में यह एक निर्वाचित संस्था थी। ऐसी स्थिति में इसके सदस्यों का चुनाव ग्रामवासियों द्वारा किया जाता था।

परान्तक प्रथम कालीन दो अभिलेखों से समिति के सदस्यों के निर्वाचन के सम्बन्ध में भी कुछ सूचनाएँ मिलती हैं। तद्नुसार समिति के सदस्यों को चुनने के लिए प्रत्येक गाँव को 30 वार्डों में बाँटा जाता था। प्रत्येक वार्ड में एक-एक व्यक्ति का चुनाव लाटरी निकाल कर किया जाता था। प्रत्येक उम्मीदवार का नाम अलग-अलग पत्रों पर लिखकर एक बर्तन में रखा जाता था। उन्हें हिलाकर मिला दिया जाता था। इसके बाद किसी अबोध बालक से एक पत्र उठाने को कहा जाता था। बच्चा जिस व्यक्ति के नाम का पत्र उठा लेता था, वह समित का सदस्य बन जाता था। इस प्रकार कुल 30 व्यक्ति चुने जाते थे जिन्हें विभिन्न समितियों में रखा जाता था। ऐसी व्यवस्था थी कि केवल वह व्यक्ति ही नया सदस्य चुना जाता था जो पिछले तीन वर्षों से किसी समिति का सदस्य नहीं रहा है।

महासभा को 'पेरुगुरि, इसके सदस्य को 'पेरुमक्कल तथा समिति के सदस्यों को 'वारियप्पेरुमक्कल' कहा जाता था। ग्राम सभा को राज्य के प्रायः सभी अधिकार मिले हुए थे। उसके पास सामूहिक सम्पत्ति होती थी। यह सम्पत्ति जनहित में बेची जा सकती थी। ग्राम सभा न्याय दिलाने का भी कार्य करती थी। सभा को ग्रामवासियों पर कर लगाने, वसूलने तथा उनसे बेगार लेने का भी अधिकार था। अकाल अथवा संकट के समय यह ग्रामवासियों की उदरतापूर्वक मदद करती थी। ग्रामवासियों के स्वास्थ्य, जीवन एवं सम्पत्ति की रक्षा करना भी ग्राम सभा का कर्त्तव्य था। इस प्रकार ग्राम सभा के अधिकार विस्तृत एवं व्यापक थे। ग्राम सभा के आय-व्यय का निरीक्षण समय-समय पर केन्द्रीय पदाधिकारी किया करते थे। यदि राज्य कोई ऐसा नियम बनाता जो किसी ग्राम की स्थिति को प्रभावित करता था तो वह नियम ग्राम सभा की स्वीकृति से ही होता था।

ग्राम सभा के अतिरिक्त गाँव में अनेक समुदाय और निगम होते थे जो सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक प्रकृति के थे। इनका अधिकार क्षेत्र किसी कार्य विशेष तक ही सीमित होता था। समुदायों पर ग्राम सभा का ही नियंत्रण होता था। समुदायों के सदस्य सभा के भी सदस्य थे। विभिन्न समुदायों में झगड़ा होने पर ग्राम सभा ही फैसला करती थी। धर्म के आधार पर बने हुए समुदायों की संख्या अधिक थी जो अपने- अपने स्थानों में मन्दिरों का प्रबन्ध करते थे। इसके बाद मन्दिर प्रबन्ध का कार्य पुनः महासभा ने ले लिया। शैव पुजारियों को 'शिव ब्राह्मण तथा वैष्णव पुजारियों को 'वेखानस' कहा जाता था। इनके कुछ संगठन इस प्रकार मिलते हैं अल-नालिगै शिव ब्राह्मणर, पति-पाद मूलत्तर, तिरुवुण्णलिगैक कणप्पैरुमक्कल, तिरु- वुण्णलिगै- सभै आदि। गाँव को शेरियों, सड़कों और खण्डों में बाँटा गया था। प्रत्येक 'शेरि' में एक समुदाय होता था जिसकी जिम्मेदारी में अनेक प्रकार के कार्य होते थे। प्रत्येक 'शेरि' का प्रतिनिधि ग्राम सभा की प्रबन्ध समिति में होता था। उत्तम चोल के समय दो शेरियों को उरगम के मन्दिर का प्रबन्ध करने का काम सौंपा गया था। विभिन्न समुदायों में आपसी सम्बन्ध सद्भाव पर आधारित होते थे तथा उनका नियमन करने के लिए किसी सरकार अथवा कानून की व्यवस्था नहीं समझी गयी थी। स्थानीय सभाएँ और समुदाय आपसी मेल-मिलाप एवं सहयोग के वातावरण में कार्य करते थे। धर्म तथा प्राचीन परम्परायें इन्हें आपस में जोड़ने का काम करती थीं। आयु, विद्वत्ता, सम्पत्ति तथा जन्म के आधार पर सभाओं तथा समुदायों के नेतृत्व का निर्धारण किया जाता था। अधिकांश लेखों में व्यापारिक क्षेत्र के लिए 'नगरम' का प्रयोग हुआ है। इनका नामकरण प्रायः इनके निवास स्थान के आधार पर ही किया गया था। इनका कार्य व्यापार-व्यवसाय को प्रोत्साहन देना था। पेशेवर जातियों ने भी निजी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अपने-अपने समुदायों का गठन कर लिया था। ये सभी ग्राम सभा के नियंत्रण में कार्य करते थे। इस प्राकर स्थानीय प्रशासन की दृष्टि से चोल काल महत्वपूर्ण था, जो गाँव, नगर तथा मण्डल की सभाओं द्वारा संचालित होता था। वास्तव में प्रत्येक गाँव एक लघु गणतन्त्र ही था जिसे अपने कार्यों में स्वायत्तता मिली हुई थी।

इस प्रकार स्थानीय प्रशासन चोलकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी जो गाँव, नगर, तथा मण्डल की सभाओं द्वारा संचालित होता था। प्रशासन की अपनी महत्वपूर्ण विशेषताएँ थीं तथा तत्कालीन ग्रामों की स्वायत्तता आज के ग्रामों की स्वायत्तता से किसी प्रकार कम न थी और उसका प्रबन्ध आधुनिक युग से भी उत्तम था।

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