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प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2745
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- राजराज प्रथम कौन था? उसके शासन काल की राजनैतिक विजयों/ उपलब्धियों को विस्तारपूर्वक बताइए।

अथवा
चोल शासक राजराज प्रथम के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का वर्णन कीजिए।
अथवा
राजा राजराज का इतिहास लिखिए।
अथवा
राजराज प्रथम की राजनीतिक उपलब्धियों का विवरण दीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. राजराज प्रथम के विषय में से आप क्या जानते हैं?
2. राजराज प्रथम के पूर्वी भारत पर आक्रमण का उल्लेख कीजिए।
3. चोल शासकों में राजराज प्रथम के व्यक्तित्व का उल्लेख कीजिए।
4. राजराज प्रथम की उपलब्धियों का मूल्यांकन कीजिए।

उत्तर-

चोल नरेश राजराज प्रथम (985-1014 ई.)

चोल साम्राज्य की महत्ता का वास्तविक संस्थापक परान्तक द्वितीय का पुत्र अरिमोलिवर्मन था जो 985 ई. के मध्य 'राजराज' के नाम से चोल राजगद्दी पर बैठा। नीलकंठ शास्त्री के मतानुसार, वह एक शक्तिशाली शासक होने के साथ-साथ कूटनीतिज्ञ भी था। उसने चोल साम्राज्य पर तीस वर्ष तक शासन किया, जिसे इस राजवंश का सर्वाधिक रचनात्मक काल माना जा सकता है।

राजनीतिक विजयें या उपलब्धियाँ

चोल नरेश राजराज प्रथम ने अपने शासनकाल के आरम्भिक आठ वर्षों तक चोल साम्राज्य को शक्तिशाली और वैभव सम्पन्न बनाने के लिये कठिन प्रयास किये। डॉ. वी. वेंकय्या के अनुसार, "उसने (राजराज प्रथम) अपने शासन-कार्य को संभालने के बाद आठ वर्ष तक कोई महत्वपूर्ण सामरिक अभियान न करके केवल चोल राज्य की आन्तरिक स्थिति को मजबूत किया।'

राजराज प्रथम ने अपना सामरिक अभियान अपने शासन के नवें वर्ष अर्थात् 994 ई. में आरम्भ किया जो 1002 ई. तक चलता रहा। उसके समय के तंजौर अभिलेख की आरम्भिक पंक्तियों में उसके द्वारा किये गये सामरिक अभियानों का क्रमिक वर्णन प्राप्त होता है। वस्तुतः वह एक साम्राज्यवादी शासक था जिसने अपनी कई विजयों के फलस्वरूप चोल राज्य को विशाल साम्राज्य में परिणत कर दिया।

केरल, पाण्ड्य तथा लंका (सिंहल) राज्यों पर विजय - राजराज प्रथम ने दक्षिण में केरल, पाण्ड्य तथा सिंहल राज्यों के विरुद्ध अभियान किया। उसने सबसे पहले केरल पर आक्रमण कर वहाँ के राजा रविवर्मा को कांडलूर ( त्रिवेन्द्रम) में परास्त किया तथा 'काण्डलूर शालैकलमरूत' की उपाधि ग्रहण की। इसके बाद उसका पाण्ड्य राज्य पर आक्रमण हुआ। यहाँ का राजा अमरभुजंग था। राजाराज ने अमरभुजंग को पराजित कर बन्दी बना लिया, उसकी राजधानी मदुरा को जीत लिया तथा विलिन्द के दुर्ग पर अपना अधिकार कर लिया। केरल तथा पाण्ड्य राज्यों की जीतने के पश्चात् राजराज प्रथम ने लंका ( सिंहल ) की ओर ध्यान दिया। यहाँ का शासक महिन्द ( महेन्द्र ) पंचम था। वह केरल तथा पाण्ड्य शासकों का मित्र था तथा उसने राजराज के विरुद्ध केरल नरेश भास्करवर्मा का साथ दिया था। राजराज प्रथम ने अपने युद्ध अभियान को आगे बढ़ाते हुए सिंहल पर चढ़ाई की और सिंहल नरेश महिन्द पंचम को पराजित कर दिया। इस प्रकार सिंहल द्वीप के उत्तरी भाग पर राजराज प्रथम का अधिकार हो गया। सिंहल पर अधिकार करने के बाद राजराज ने वहाँ अपना एक प्रान्त स्थापित किया।

राजराज ने उपरोक्त प्रदेशों पर सम्भवतः 989-993 ई. के बीच विजय प्राप्त की थी।

वेंगी पर विजय - चालुक्यों की एक शाखा का राज्य पूर्वी दक्षिणापथ में था। उसकी राजधानी वेंगी थी। 973 ई. के लगभग चोडभीम ने वेंगी के राजा दानार्णव की हत्या कर दी। दानार्णव के दोनों पुत्र चोल नरेश की शरण में आये। चोल नरेश राजराज ने उनका स्वागत किया और अपनी पुत्री कुन्दवाँ देवी का विवाह दानार्णव के छोटे पुत्र से कर दिया। उसने दानार्णव के सबसे बड़े पुत्र शक्तिवर्मन प्रथम को आश्वासन दिया कि वह वेंगी उसे दिलायेगा और उसने वेंगी पर आक्रमण किया और चोडभीम को सिंहासनाच्युत करके शक्तिवर्मन प्रथम को वहाँ का राजा बनाया। इस प्रकार वेंगी उसके प्रभाव में हो गयी।

पश्चिमी चालुक्यों से युद्ध - चालुक्यों की पश्चिमी शाखा का राजा सत्याश्रय था। राजराज का बढ़ता हुआ प्रभाव उसके लिए असाध्य था। उसने 1006 ई. में वेंगी पर आक्रमण करके उसके कुछ प्रदेशों को हथिया लिया। राजराज ने सोचा कि यदि वह सत्याश्रय का दमन करेगा तो उसके राज्य पर ही आक्रमण कर देगा। अतएव उसने अपने पुत्र राजेन्द्र को सत्याश्रय पर आक्रमण करने के लिए भेजा। राजेन्द्र चालुक्यों के राज्य में घुस गया और विभिन्न भागों को नष्ट-भ्रष्ट करता हुआ उनकी राजधानी मान्यखेट पहुँचा। उसकी सेना ने मान्यखेट को खूब लूटा और स्त्रियों, ब्राह्मणों और बच्चों से भी बड़ी निर्दयतापूर्वक व्यवहार किया।

विवश होकर सत्याश्रय को वेंगी छोड़नी पड़ी परन्तु जब तक वह मान्यखेट पहुँचा तब तक चोल सेना लूटपाट कर बहुत सा धन बटोर कर स्वदेश पहुँच चुकी थी।

कलिंग एवं अन्य द्वीपों पर विजय - राजराज ने कलिंग पर आक्रमण करके उसे भी अपने राज्य में मिला लिया। साथ ही उसने मालद्वीप पर अन्य कुछ द्वीपों पर भी विजय प्राप्त की।

साम्राज्य की सीमा - राजराज की विजयों के विषय में तंजौर अभिलेख से जानकारी मिलती है। इस अभिलेख के अनुसार उसने कन्दलपुर सलाई में जहाजों को नष्ट किया और महान युद्धों में विजय प्राप्त करके वेगुनादु, गंगवाड़, चाडिममवडी, नोलम्बवडी, कुदामलईनाडु, कोल्लम्, कलिंगन, बर्बर शक्ति वालों, सिंहलों के प्रदेश, इलामण्डलम् साढ़े सात लक्ष इरतुपद्दी और समुद्र के 1200 प्राचीन द्वीपों को पराजित किया तथा सैलियों के गौरव को उस समय नष्ट किया जब वे बहुत शक्तिशाली थे और सर्वत्र पूजा करने योग्य हो गये थे।

प्रशासकीय योग्यता - राजराज महान शासक भी था। उसने स्थानीय स्वशासन को महत्व प्रदान किया और भूमि की नाप करवाई। इस आशंका से कि कहीं उसके पुत्रों में उत्तराधिकार का युद्ध न हो उसने अपने पुत्र राजेन्द्र को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इसके साथ ही उसने राजेन्द्र को प्रशासकीय कार्यों में पूर्ण रूप से प्रशिक्षित कर दिया।

शैव धर्मानुयायी - राजराज शैव धर्म का अनुयायी था। उसने तंजौर में राजराजेश्वर का मन्दिर बनवाया और शिवपाद शेखर की उपाधि धारण की। यद्यपि वह शिव का उपासक था, परन्तु अन्य धर्मों एवं मतों से उसका विरोध नहीं था। उसने विष्णु के भी कई मन्दिर बनवाये। कहा जाता है कि 'नेग-पटम' में बौद्ध विहार बनाने में उसने सहायता प्रदान की थी और तंजौर के 'राजराजेश्वर मन्दिर में भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ बनवायी थीं।

मूल्यांकन - इस प्रकार हम देखते हैं कि राजराज चोल वंश का एक अत्यन्त प्रतिभाशाली सम्राट था। उसे 'राजराज महान के नाम से पुकारा जाता है। उसने चोल वंश के खोये हुए वैभव को प्राप्त किया और चोल शक्ति उसके शासनकाल में दक्षिण भारत की सबसे बड़ी शक्ति बन गयी। वह महान साम्राज्य निर्माता था। उसके विषय में के. एन. शास्त्री ने लिखा है कि "उसके शासनकाल के तीस वर्ष चोल साम्राज्यवाद के निर्माण काल थे। उत्तराधिकार में मिला हुआ अपेक्षाकृत छोटा राज्य जो कि राष्ट्रकूट आक्रमण के प्रभाव से मुश्किल से मुक्ति पा रहा था, उसके नेतृत्व में आकर एक अत्यन्त विस्तृत और सुदृढ़ साम्राज्य में परिवर्तित हो गया जिसका प्रशासन अत्यन्त दक्ष और संगठित था जो आर्थिक स्रोतों में समृद्धशाली था।'

राजराज केवल चोल साम्राज्य निर्माता ही नहीं था वरन् एक कुशल प्रशासक भी था। धार्मिक दृष्टि से वह सहिष्णु था और कला का पारखी था। उसने अनेक विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया था। उसका मूल्यांकन करते हुए एक इतिहासकार ने लिखा हैं कि "राजराज दक्षिण भारत के महानतम सम्राटों में से एक प्रसिद्ध विजेता, एक साम्राज्य निर्माता, एक योग्य प्रशासक, एक पवित्र एवं सहिष्णु व्यक्ति, कला और विद्या का सबसे अधिक एक सुशील व्यक्तित्व का था।'

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