प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- दक्षिण-पूर्व एशिया पर भारतीय बौद्ध संस्कृति के प्रभाव की विवेचना कीजिए।
अथवा
दक्षिण पूर्वी एशिया में बौद्ध धर्म का उद्भव एवं विकास
अथवा
दक्षिण-पूर्व एशिया में बौद्ध धर्म पर प्रकाश डालिये।
उत्तर-
अशोक के शासनकाल से ही बौद्ध भिक्षु विदेशों में बौद्ध धर्म का प्रसार करने में तत्पर थे। उनके इस प्रयासों के फलस्वरूप बौद्ध धर्म श्रीलंका, ब्रह्मा, चीन, जापान, कोरिया तथा मध्य एशिया में फैल गया परन्तु कट्टर ब्राह्मण या सनातन धर्म भी नहीं पिछड़ा। सुदूर पूर्व में तथा पूर्वी द्वीपसमूहों में इसका भी उतना ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव पाया गया है। पूर्वी द्वीपसमूह को हमारे साहित्य में सुवर्ण भूमि कहा गया है। इसमें मलाया, अनाम, कम्बोडिया, सुमात्रा, जावा, बाली, बोर्नियो आदि सम्मिलित हैं।
भारतीय संस्कृति का प्रसार क्षेत्र
विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रचार का संक्षेप में अग्रांकित है। इसे निम्नलिखित वर्गों में विभक्त किया जा सकता हैं -
(1) मध्य एशिया खोतान, पूर्वी तुर्किस्तान तथा अफगानिस्तान
(2) श्रीलंका
(3) सुदूर भारत
(4) पूर्वी द्वीपसमूह
(5) चीन, जापान तथा कोरिया
(6) तिब्बत।
1. मध्य एशिया - इतिहास के प्रारम्भ काल से ही मध्य एशिया अनेक संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं तथा विभिन्न लोगों का घर रहा है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी में यहाँ गान्धार से बौद्ध धर्म की लहर आयी। इस प्रदेश की उपद्रवशील प्रकृति के कारण किसी भी विषय में ठीक तौर से अनुसन्धान नहीं किया जा सकता, परन्तु बहुत-से अन्वेषकों ने यहाँ परिभ्रमण कर अपने अनुसन्धानों में कुछ सफलता पायी है। उन्होंने यहाँ अनेक बौद्ध स्तूप, विहार, गुफाएँ, मूर्तियाँ, चित्र, प्राचीन ग्रन्थों की हस्तलिपियाँ तथा अन्य प्राचीन वस्तुएँ पायी हैं। इस बात का उल्लेख कर देना यहाँ बहुत आवश्यक है कि कनिष्क के राजकवि अश्वघोष के कुछ नाटक यहीं पाये गये हैं। इन नाटकों की हस्तलिपियाँ दूसरी शताब्दी की हैं, अतः भारतीय हस्तलिपियों में ये सबसे प्राचीन हैं। दूसरे हस्तलिखित ग्रन्थों में बौद्ध ग्रन्थों तथा चिकित्सा - विज्ञान के कुछ ग्रन्थों का उल्लेख किया जा सकता है। सर आरल स्टाइन की खोजों से हमारे ज्ञान की बहुत कुछ वृद्धि हुई है।
2. अफगानिस्तान - अफगानिस्तान का प्रदेश वैदिक काल से ही राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत का अंग माना जाता था। कालान्तर में अफगानिस्तान में भी बौद्ध धर्म का प्रसार हुआ। अफगानिस्तान में होनेवाले उत्खनन में भारतीय संस्कृति के अवशेष चिह्न जैसे— स्तूप, विहार, मूर्तियाँ तथा प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ आदि उपलब्ध हुए हैं। चीनी यात्रियों यथा — फाह्यान और ह्वेनसांग के विवरणों से यह पता चलता है कि जिस समय वे लोग इन प्रदेशों से होते हुए भारत आये थे, उस समय यहाँ बौद्ध धर्म प्रचलित था। मध्य युग से सुबुक्तगीन के आक्रमण के पूर्व काबुल घाटी में हिन्दू धर्म प्रचलित था। अलबरूनी के अनुसार ईरान, खुरासान, सीरिया तथा इराक आदि देशों में इस्लाम आगमन के पूर्व बौद्ध धर्म था।
3. श्रीलंका - अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उस समय से यह शनैः-शनैः अनेक शासकों के संरक्षण में बढ़ता रहा। अनुराधापुर तथा उसके पास का प्रदेश बौद्ध धर्म का केन्द्र हो गया। सबसे प्रसिद्ध मठ महाविहार था जो आगे चलकर इस प्रदेश की एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक संस्था हो गयी। बौद्ध धर्म के इतिहास में श्रीलंका का विशेष महत्त्व है, क्योंकि यहीं पर सबसे प्राचीन स्थविरवाद सम्प्रदाय के त्रिपिटक का पालि संस्करण पाया गया है। मध्यकाल में ब्रह्मा तथा स्याम को भी श्रीलंका ने बौद्ध धर्म का अनुयायी बना लिया।
4. ब्रह्मा - ब्रह्मा सम्भवतः उन देशों में हैं, जहाँ अशोक ने अपने प्रचारकों को भेजा था। ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में ही यहाँ पर दक्षिणी भारत की वर्णमाला का प्रयोग होने लगा। ब्राह्मण धर्म का यहाँ के लोगों में प्रचार था। ब्रह्मा के विभिन्न भागों में विष्णु की अनेक मूर्तियाँ पायी गयी हैं।
13वीं शताब्दी में श्रीलंका निवासियों ने यहाँ पर श्रीलंका के बौद्ध धर्म तथा पालि धर्म ग्रन्थों का प्रचार किया।
5. स्याम - सम्भवतः यहाँ पर बौद्ध धर्म ब्रह्मा से आया, परन्तु बाद में श्रीलंका के धर्म का रूप ही सर्वमान्य हो गया। यहाँ की राजसभाओं की अनेक प्रणालियों में भारतीय प्रभाव की स्पष्ट छाप दिखायी पड़ती है।
स्याम ने हिन्दू नामों और उपाधियों को अपना लिया। वहाँ के स्थानों, नगरों, लोगों और राजाओं के नाम और विरुद् आज भी भारतीय प्रभाव के अनेक अवशिष्ट चिह्न प्रकट करते हैं। स्याम की आधुनिक शब्दावली में संस्कृत और पालि के अनेक शब्द हैं। त्रिपिटक, वेद और स्मृति-ग्रन्थों का वहाँ अध्ययन किया जाता था। आज भी स्याम में भारत की अनेक सामाजिक प्रथाओं, पर्वों आदि का प्रचलन है।
6. हिन्दचीन - इस प्रायद्वीप के दक्षिण-पूर्व में चम्पा तथा दक्षिण में कम्बोज इत्यादि हिन्दू राज्य थे। संस्कृत सभ्यजनों की भाषा थी तथा भारतीय लिपि का ही प्रयोग होता था। महाकाव्य यहाँ पर बहुत ही लोकप्रिय हो गये थे। विष्णु तथा शिव ही देश भर के निवासियों के देवता थे। परन्तु यहाँ पर बौद्ध धर्म का भी थोड़ा-बहुत प्रचार था। इस उपनिवेश में इन सब भारतीय आदर्शों के फैलाने का श्रेय दक्षिणात्यों को मिलना चाहिए। कम्बोडिया में अंगकोरवाट में 9वीं शताब्दी के अन्त में एक विशाल विष्णु का मन्दिर बनाया गया, जो आज भारतीय संस्कृति का स्मारक है। कम्बुज को हिन्दी में 'कम्बोडिया' और चीनी भाषा में 'फूनान' कहा जाता है। इस राज्य की स्थापना कौटिल्य नामक ब्राह्मण ने की थी। डॉ. रामप्रसाद त्रिपाठी के अनुसार, "इस राज्य का संस्थापक कम्बु था। यशोवर्मन प्रथम और सूर्यवर्मन द्वितीय इस राज्य के सबसे अधिक शक्तिशाली शासक थे। कम्बुज पर भारतीय सभ्यता-संस्कृति का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यहाँ पर सबसे पहले शैव धर्म का प्रचार हुआ। शिव की पूजा शिवमूर्ति तथा शिवलिंग दोनों रूपों में की जाती थी। शिव के साथ उनकी पत्नी की भी पूजा की जाती थी, जिन्हें उमा, भवानी, गौरी आदि नामों से पुकारा जाता था। "
इस मन्दिर में बहुत-से बुर्ज और शिखर हैं। एक युरोपीय विद्वान् लिखता है कि यह अद्भुत इमारत मानवीय मस्तिष्क की एक अनुपम उपज है। ऐसी सुन्दर तथा आकर्षक इमारत चीन में कहीं देखने में नहीं आती। अंगकोरवाट के पास ही बायौन का प्रसिद्ध मन्दिर है। यह भी कला का एक अद्भुत नमूना है।
अनाम - चम्पा ही वह सुदूरतम प्रदेश है, जहाँ तक भारतीय पहुँच पाये थे। चम्पा के उत्तर में अनाम था, जहाँ पर भारत द्वारा नहीं, वरन् चीन द्वारा बौद्ध धर्म फैला। यहाँ भी भारतीय सभ्यता- संस्कृति का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ था।
पूर्वी द्वीपसमूह - पूर्वी द्वीपसमूह 'हिन्दू द्वीप' के नाम से पुकारा जाता है। इस नाम की सत्यता का पता तब चलता है, जब वहाँ पर भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण प्रभाव दिखता है। भारतीय लिपि, भारतीय शिलालेख, भारतीय देवताओं की मूर्तियाँ तथा भारतीय संस्थाएँ एवं पुराण इन सबसे पता चलता है कि ये द्वीपसमूह पूर्णरूप से भारत के अधिकार में थे। यहाँ के देशी निवासियों ने भारतीय संस्कृति तथा सभ्यता को इतना अपना लिया, जैसे कि रामायण तथा महाभारत के नायक इन्हीं के देश में हुए हों। बाली द्वीप के निवासी अब भी हिन्दू हैं। वे भारतीय देवताओं की पूजा करते, जाति प्रथा तथा हिन्दू पंचाग को मानते हैं।
जावा की कला - जावा के बोरोबुदूर के स्तूप को संसार का एक आश्चर्य ठीक ही कहा गया है। यद्यपि इसके निर्माण की पृष्ठभूमि में प्रेरणा भारतीय ही थी, परन्तु यह स्तूप भारतीय स्तूपों से बिलकुल ही भिन्न है। यह संसार की आठवीं अद्भुत चीज कही गयी है। लम्बाई-चौड़ाई में 400 वर्ग फीट है। इसकी मूर्तियाँ और पत्थर की खुदाई भारतीय - जावा कला के उत्तम नमूने हैं। इस स्तूप में अनेक बौद्ध चित्र बने हुए हैं, जो यदि पास-पास रखकर फैला दिये जायँ तो सम्भवतः तीन मील लम्बे हों। प्राभवनन में अनेक रामायण के चित्र मिलते हैं, जिनमें बहुत-से जावा के निवासियों की कल्पनाकृतियाँ हैं। अनेक अन्य स्मारक जावा की कला-प्रणाली में ही पाये गये हैं, जिनसे पता चलता है कि भारतीय प्रभाव में देशी कला बिलकुल ही लुप्त नहीं हो गयी थी। ऐसा कहा जाता है कि हिन्दू - जावा काल के धार्मिक स्मारक ही जावा निवासियों की सर्वोत्कृष्ट कलाकृतियाँ हैं, जिन्हें हिन्दू प्रेरणा से उन्होंने बनाया था। ये भारतीय कला के आदर्श पल्लव काल के हैं। जावा में संस्कृत भाषा में लिखे हुए अनेक शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इनमें से चार लेख 5वीं सदी के मध्य भाग के हैं, जिन्हें तारुमा राज्य के शासक पूर्णवर्मा ने 431 ई. में उत्कीर्ण कराया था।
शैलेन्द्र वंश - 7वीं सदी में सुमात्रा (सुवर्ण द्वीप) के शैलेन्द्रवंशीय राजाओं ने जावा को जीतकर अपने श्रीविजय साम्राज्य में मिला लिया था। इस वंश के राजा बौद्ध मतावलम्बी थे। इन राजाओं ने बौद्ध विहार व चैत्यों का निर्माण कराया था।
चीन - सम्राट् मिंग टी के शासनकाल में 62ई. में चीन में बौद्ध धर्म मान लिया गया। चीनी तथा भारतीय दोनों ही देशों के विद्वानों ने महायान सम्प्रदाय की बौद्ध पुस्तकों का चीनी में अनुवाद करना प्रारम्भ कर दिया। अनेक चीनी यात्री भारत में आये, जिनमें से प्रथम फाह्यान था। ह्वेनसांग के पर्यटन से बहुत अंश तक भारत एवं चीन में घनिष्ठता हो गयी। ऐसा कहा जाता है कि ह्वेनसांग के चीन लौट जाने के बाद 30 ही वर्ष में 60 और चीनी बौद्ध धर्म सीखने तथा तीर्थ-यात्राओं के भ्रमण के लिए भारत आये। बौद्ध धर्म कोरिया में 372 ई. में चीन द्वारा फैला, जहाँ से वह जापान में प्रचलित हो गया।
तिब्बत - बौद्ध प्रचारकों का पहला दल तिब्बत में 640 ई. में पहुँचा। एक शताब्दी पश्चात् एक भारतीय भिक्षु पद्मसम्भव ने वहाँ एक प्रकार के बौद्ध धर्म का प्रचार किया जो आगे चलकर लामा मत में बदल गया। तिब्बत के बौद्ध धर्म में दैविक शक्तियों को प्राप्त करने के लिये जादू-टोना तथा तान्त्रिक धर्म पर जोर दिया जाता है। यह बौद्ध मत के वज्रयान सम्प्रदाय का घर बन गया, जो तान्त्रिक धर्म से बहुत-कुछ मिलता है। बंगाल निवासी अतिस दीपांकर (980-1053 ई.) ने नेपाल तथा तिब्बत का परिभ्रमण किया और इन देशों में बौद्ध धर्म के अध्ययन पर बल दिया। बहुत-से पालि और संस्कृत के ग्रन्थों का अनुवाद किया गया।
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