प्राचीन भारतीय और पुरातत्व इतिहास >> बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-4 प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 10
होयसल राजवंश
(Hoysala Dynasty)
प्रश्न- होयसल कौन थे? इस वंश के प्रारम्भिक राजाओं का नामोल्लेख करते हुए इनके राजनीतिक क्रियाकलापों का उल्लेख कीजिए।
अथवा
होयसल राजवंश के राजनीतिक इतिहास एवं इसकी उपलब्धियों का वर्णन कीजिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. द्वारसमुद्र के होयसल राजवंश का संक्षिप्त इतिहास बताइए।
2. होयसल नरेश विनयादित्य की उपलब्धियों को बताइए।
3. होयसल शासक विष्णुवर्द्धन के विषय में आप क्या जानते हैं?
4. नरसिंहदेव प्रथम की विजयों का मूल्यांकन कीजिए।
5. बल्लाल द्वितीय के विषय में बताइए।
6. नरसिंह द्वितीय पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
7. होयसल नरेश सोमेश्वर अथवा सोविदेव के विषय में बताइए।
8. होयसल राजवंश का अन्तिम शासक कौन था?
9. होयसलों के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर-
द्वारसमुद्र का होयसल राजवंश
ईसा की दसवीं शताब्दी में होयसल राजवंश का इतिहास हमारे समक्ष उभरकर सामने आता है। होयसलों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में ठोस ऐतिहासिक साक्ष्य उपलब्ध नहीं हो सके हैं, परन्तु होयसल अभिलेखों में साल अथवा शाल को इस वंश का प्रथम शक्तिशाली पुरुष कहा गया है। होयसल नरेशों ने अभिलेखों में अपने को यदु का वंशज घोषित करते हुए चन्द्रवंशी क्षत्रिय बताया है। इस वंश के राजाओं ने अपने को यादव या 'द्वारावती पुरवराधीश्वर' से अलंकृत किया है। इस प्रकार होयसल यादवों की एक शाखा थे जो अपने को चन्द्रवंशी मानते थे। वे गङ्गवाड़ि के पश्चिम में चालुक्य नरेशों के सामन्त के रूप में शासन करते थे। उनका राज्य चालुक्य तथा चोल साम्राज्यों के बीच एक मध्यस्थ राज्य था। इनकी प्राथमिक राजधानी वेलूर थी जो बाद में द्वारसमुद्र ( हालेविड ) स्थानान्तरित हो गई थी।
प्रारम्भिक शासक
साल अथवा शाल - साल को होयसल राजवंश का प्रथम पुरुष कहा गया है। उसने होयसल राजवंश की स्थापना की। तत्कालीन अभिलेखों में उसे 'यदुवंशोज्ज्वलतिलक' कहा गया है। वेलूर से प्राप्त एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि अरकेल्ल नामक किसी सामन्त का पौत्र पोयसल (होयसल ) मारुग था, सम्भवतः अनुश्रुतियों में इसे ही साल अथवा शाल कहा गया हो।
साल ने 1006 ई. में कावेरी के दक्षिणी तट पर स्थित कलवर में चोलं सामंत अपरमेय से युद्ध किया। यद्यपि इस युद्ध में साल सफल तो नहीं हो सका किन्तु अपरमेय की घायल होने के बाद मृत्यु हो गई। साल की अन्य विजयों में गंगवाड़ि की विजय विशेष उल्लेखनीय है। विद्वानों का अनुमान है कि उसने 1047 ई. तक वेलूर पर अपना शासन बनाये रखा।
विनयादित्य (1047-1098 ई.) - विनयादित्य होयसल राजगद्दी पर 1047 ई. में आसीन हुआ। वह महापराक्रमी था। परवर्ती होयसल नरेश विष्णुवर्धन के 1137 ई. के अभिलेख से उसके राज्य- क्षेत्र का ज्ञान होता है। इस अभिलेख के अनुसार उसके राज्य की सीमा कोंकण, आलवखेड़ा, वैयलनाड़, व्रलयखेड़ा, तलकाड एवं साविमलै जनपदों द्वारा निर्धारित समझी जा सकती है। यही गंगवाड़ि राज्य की सही सीमा थी जिस पर अधिकार स्थापित करने के लिए उस समय चालुक्यों एवं चोलों में युद्ध छिड़ा हुआ था। गंगवाड़ि प्रदेश पर होयसलों की सत्ता को बनाये रखने में चालुक्यों का भी दूर का हित सम्मिलित था क्योंकि तत्कालीन चालुक्य नरेश विक्रमादित्य की दृष्टि में विनयादित्य की भूमिका मात्र एक सामन्त शासक से अधिक न थी।
विनयादित्य की बहन का विवाह चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम से हुआ था, अतः 1074 ई. तक चालुक्यों की ओर से होयसलों को कोई भय नहीं था। परन्तु सोमेश्वर प्रथम की मृत्यु के पश्चात् 1076 ई. से होयसलों एवं चालुक्यों के सम्बन्धों में कटुता आ गई। इसकी पुष्टि इस घटना से होती है कि जब परमार नरेश जगदेव ने होयसलनाडु पर आक्रमण किया तो चालुक्यों ने उसे द्वारसमुद्र को आक्रान्त करने के लिए उत्साहित किया। चालुक्य नरेश ने इस युद्ध में होयसलों की सहायता नहीं की। फिर भी विनायादित्य के दो पौत्रों बल्लाल तथा विष्णुवर्द्धन ने बड़ी वीरता से परमारों को होयसलनाडु से बाहर खदेड़ दिया। इस प्रकार विनयादित्य ने 1098 ई. तक शासन किया तथा उसकी मृत्यु के बाद एरेयंग होसल- राजगद्दी पर बैठा।
एरेयंग (1098-1102 ई.) - विनयादित्य की मृत्यु के बाद उसका पुत्र एरेयंग 60 वर्ष की आयु में होयसल - राजगद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता विनयादित्य के शासनकाल में ही युवराज के रूप में अनेक उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। उसके समय के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि उसने 1069 ई. से 1076 ई. के बीच सेनानायक के रूप में पश्चिमी चालुक्यों के परम्परागत शत्रु परमारों की राजधानी धारा को नष्ट कर दिया था। इतना ही नहीं उसने चोलों के विरुद्ध अभियान करके उनके सैनिक - शिवर को भी विनष्ट किया था । एरेयंग की मृत्यु 1102 ई. में हुई। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र बल्लाल प्रथम को होयसल वंश की राजगद्दी प्राप्त हुई।
बल्लाल प्रथम (1102-1108 ई.) - बल्लाल प्रथम ने 1102 ई. में होयसल राज्य की बागडोर संभाली। वह एक महात्वाकांक्षी तथा योग्य शासक था। उसे अपने भाई विष्णुवर्द्धन का पूर्ण सहयोग प्राप्त था।
बल्लाल प्रथम ने अपने किशोरावस्था में ही परमारों द्वारा होयसलों के विरुद्ध चलाये गये अभियान को विफल कर दिया था। उसने अपने भाई विष्णुवर्द्धन के सहयोग से छंगालव राज्य को आक्रान्त किया। उसने नोलम्बवाडि के पाण्ड्यों के विरुद्ध भी अभियान किया जिसमें पाण्ड्य नरेश को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इसके पश्चात् बल्लाल प्रथम ने तुंगभद्रा नदी पार कर उत्तरी एवं पश्चिमी भागों के चालुक्य शासित जनपदों पर आक्रमण किया तथा वहाँ से अपार सम्पत्ति अपहृत की। परन्तु वहाँ से वापस लौटते समय चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ के सामन्त ने होयसलों को परास्त कर दिया तथा अपने शेष शासन काल में बल्लाल प्रथम चालुक्यों के प्रति निष्ठावान बने रहने के लिये विवश रहा। 1108 ई. में वह निस्संतान ही मर गया। बल्लाल प्रथम का कोई पुत्र न होने के कारण उसके भाई विष्णुवर्द्धन अथवा बिट्टिग को होयसल राजगद्दी पर बैठाया गया।
विष्णुवर्द्धन अथवा बिट्टिग ( 1108-1142 ई.) - विष्णुवर्द्धन एक महत्वाकांक्षी शासक था। अपने शासनकाल में उसके द्वारा चलाये गये सभी युद्ध अभियान पूर्ण रूप से सफल रहे। उसने चालुक्य राज्य को जीतकर अपनी शक्ति का विस्तार प्रारम्भ कर दिया। उसने धरवार के बंकापुर में अपने को सुदृढ़ कर लिया तथा अपनी राजधानी द्वारसमुद्र को अपने पुत्र की अधीनता में छोड़ दिया। प्रारम्भ में वह जैन मतानुयायी था बाद में उसने रामानुज के प्रभाव से वैष्णव धर्म अपना लिया।
1135-36 ई. में विष्णुवर्द्धन को लगातार कई स्थानों पर कदम्बों के साथ युद्ध करना पढ़ा। इस बीच उसे एक बार कदम्बों से पराजित हो जाने के फलस्वरूप अपनी राजधानी बंकापुर भी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा था। इधर उसके योग्य पुत्र बल्लाल की मृत्यु हो जाने से भी होयसल राज्य कमजोर हो गया था। विष्णुवर्द्धन आन्तरिक एवं बाह्य संकटों से अकेला जूझता रहा और 1142 ई. में दिवंगत हो गया। विष्णुवर्द्धन की मृत्यु के समय उसकी पटरानी लक्ष्मी महादेवी से उत्पन्न तथा उत्तराधिकारी नरसिंहदेव प्रथम की उम्र मात्र 8 वर्ष की थी।
नरसिंहदेव प्रथम (1142-1173 ई.) - जिन विपरीत परिस्थितियों में बालक नरसिंहदेव प्रथम को गद्दी पर बैठाया गया, वह उसकी शक्ति और सामर्थ्य को देखते हुए उचित न था; क्योंकि वह उस समय बहुत अल्प आयु का था। उसके समय में कल्चुरि सरदार बिज्जल ने होयसलों पर आक्रमण कर दिया तथा बनवासी को छीनकर अपने अधिकार में कर लिया। नरसिंह ने 1173 ई. तक शासन किया।
बल्लाल द्वितीय ( 1173-1223 ई.) - नरसिंहदेव प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र बल्लाल द्वितीय होयसल राजवंश का अत्यन्त महत्वाकांक्षी राजा हुआ। उसने होयसल राज्य का आगे विस्तार किया। उसका चालुक्य शासकों से भी युद्ध हुआ। वस्तुतः उसी के समय में होयसल चालुक्यों की अधीनता से अपने को पूर्णतया मुक्त कर सके।
1190 में वीर बल्लाल ने चालुक्य नरेश सोमेश्वर चतुर्थ तथा उसके सेनापति ब्रह्म को अन्तिम रूप से परास्त किया जिससे चालुक्य शक्ति का विनाश हो गया। तत्पश्चात् बल्लाल ने यादव शासक भिल्लम के साथ कई युद्ध किये। अन्त में 1191 ई. में उसने गडम के निकट भिल्लम को पराजित किया तथा कृष्णा नदी तक के भू-भाग पर अपना अधिकार कर लिया। परन्तु 1210 ई. में यादव वंश के सिंहन ने पुनः बल्लाल को पराजित कर उन प्रदेशों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
नरसिंह द्वितीय ( 1220-1235 ई.) - बल्लाल द्वितीय के बाद उसका पुत्र नरसिंह द्वितीय राजसिंहासन पर आसीन हुआ। राजगद्दी प्राप्ति के बाद उसने सर्वप्रथम शक्तिशाली देवगिरि के यादवों के विरुद्ध अभियान किया। इस युद्ध के क्या परिणाम हुए, इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। तत्कालीन लेखों से ज्ञात होता है कि नरसिंह द्वितीय ने अपने पौरुष के बल पर 1231 ई. में राजराज तृतीय को पुनः चोल राज सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया। उसने पाण्डयों को पराजित करके उरैयूर एवं तंजौर को तो मुक्त कराया ही, साथ ही साथ श्रीरंगम तक उन्हें खदेड़ कर उनसे कर एवं भेंट भी प्राप्त किया।
नरसिंह द्वितीय ने सम्भवतः 1235 ई. तक शासन किया। इसके पश्चात् 1236 ई. में उसका पुत्र सोमेश्वर होयसल - राजगद्दी पर आसीन हुआ।
सोमेश्वर अथवा सोविदेव (1236 - 1262 ई.) - सोमेश्वर का शासनकाल अति संकट की परिस्थितियों में रहा। उसके राज्य के उत्तरी भाग पर पारम्परिक शत्रुओं का दबाव बढ़ता गया। इधर तुंगभद्र की घाटी में देवगिरि के यादवों ने पुनः उत्पाद मचाना प्रारम्भ कर दिया। उसके समय की कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं होती, परन्तु होयसल अभिलेखों में सोनेश्वर को 'पाण्डयकुल संरक्षण दक्षदक्षिभुजा' विरुद से अलंकृत कहा गया है।
सोमेश्वर ने चोलों द्वारा पाण्ड्यों को आक्रान्त किये जाने पर चोलों के विरुद्ध पाण्डयों का साथ दिया। इसी कारण उसे उक्त उपाधि से अलंकृत किया गया था। 1251 ई. में जटावर्मन सुन्दरपाण्ड्य के राजा बनते ही पाण्ड्व- हयोसल का मैत्री सम्बन्ध टूट गया। पाण्डयों ने होयसलों पर आक्रमण करके न केवल उनसे कावेरी घाटी को मुक्त करा लिया बल्कि उनके महान सेनानायक सिंहण और होयसल नरेश सोमेश्वर की भी हत्या कर दी।
नरसिंह तृतीय (1262- 1291 ई.) - सोमेश्वर तृतीय ने अपने शासन के अन्तिम समय में ही अपने साम्राज्य को दो भागों में बाँटकर उसे अपने दोनों पुत्रोंनरसिंह तृतीय तथा रामनाथ का बाँट दिया था। इस बँटवारे में कर्नाटक प्रदेश का राज्यक्षेत्र नरसिंह तृतीय को तथा तमिलनाडु का राज्यक्षेत्र रामनाथ को मिला।
1279 ई. में पाण्ड्यों ने रामनाथ को पराजित कर तमिल क्षेत्र पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। पराजित रामनाथ ने सत्ता के लोभ में अपने सौतेले भाई नरसिंह तृतीय को आक्रान्त करना प्रारम्भ कर दिया जिसमें उसे कुछ सफलता भी प्राप्त हुई। नरसिंह तृतीय अपने शासनकाल के अन्तिम समय तक आन्तरिक एवं बाह्य पक्ष की विपरीत परिस्थितियों से जूझता रहा और अन्ततः 1291-92 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
बल्लाल तृतीय (1291 1343 ई.) - होयसल राजवंश का अन्तिम शासक नरसिंह तृतीय का पुत्र वीर बल्लाल तृतीय हुआ। उसके शासनकाल में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने होयसल राज्य पर आक्रमण किया। वीर बल्लाल पराजित हुआ तथा उसने अलाउद्दीन को वार्षिक कर देना स्वीकार कर लिया। उसने मलिक काफूर को अतुल सम्पत्ति उपहारस्वरूप प्रदान की। बल्लाल तृतीय अलाउद्दीन के करद के रूप में शासन करता रहा। इसके बाद होयसलों की स्वतन्त्रतता का अन्त हो गया।
अनुश्रुतियों के अनुसार यद्यपि बल्लाल तृतीय के बाद बल्लाल चतुर्थ ने होयसलों के भूक्षेत्रों को सुरक्षित रखने का भरसक प्रयास किया परन्तु वह अपनी योजनाओं में सफल न हो सका। फलस्वरूप लगभग 400 वर्षों पुराना इस राजवंश का इतिहास समाप्त हो गया।
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