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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2741
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी - सरल प्रश्नोत्तर

 

अध्याय - 2 
अनुवाद का सामाजिक- सांस्कृतिक सन्दर्भ

 

अनुवाद वही प्रासंगिक और उपयोगी माना जाता है, जो अनूदित होने वाली कृति के कथ्य के सम्पूर्ण परिदृश्य को बेबाकीपन और तटस्थ ईमानदारी के साथ खोले और बयाँ करे, क्योंकि अनुवाद ही लक्ष्य और स्रोत भाषाओं के बीच संवाद सेतु का कार्य करता है। श्रेष्ठ अनुवाद स्रोत भाषा के भावों के विकिरण को अपने भीतर अक्स कर लेता है। आज के पर्यावरण, सूचना क्रांति, सामाजिक, सांस्कृतिक, मानविकी एवं तकनीकी - औद्योगिकी के क्षेत्र में विश्व फलक पर पल-पल बहुविधि परिवर्तन हो रहे हैं। घृणा और एतराज के सामाजिक शिराजे में ढेरों साजिशें सुनामी लहरों की तरह अपने भीतर संपूर्ण सामाजिक अच्छाइयों को बेखौफ लील रही हैं। अतः ऐसी स्थिति में उन साजिशों को जानने, उनसे बचने के लिए अनुवाद बहुत जरूरी उपकरण सिद्ध हुआ है।

 

लेकिन यह अनुवाद यदि अधकचरा, जटिल, कर्कश, सपाट और सतहे ढंग से किया जाय तो इसका कुफल होगा कि अनुवाद के चरित्र पर खतरा तो पैदा होगा ही, विश्वसनीयता का संकट भी पैदा होगा, अन्यथा क्या कारण है कि तकनीकी शब्दावलियों के उपलब्ध होने के बाद भी जुदा- जुदा तजुर्बे में किए गए अनुवादों में न शिल्प का चमत्कार ही पैदा हो पाता है और न विलक्षण कौंध ही अनुवाद को पठनीय बना पा रही है। मानविकी, समाज शास्त्रीय और सांस्कृतिक विषयों का सीधा रिश्ता मुख्य रूप से शिक्षण संबंधी जरूरतों से होता है, पर समाज विज्ञान-अर्थात् इतिहास, अर्थशास्त्र, मानविकी आदि विषयों से सम्बन्धित एक तो पारिभाषिक शब्दावलियों का टोटा और अकाल है, दूसरे, यदि इन विषयों से संबंधित शब्दावलियाँ चटपट गढ़ी भी जा रही हैं तो इनके सहारे किया गया अनुवाद नौसिखिए और कच्चेपन का शिकार हो जाता है।

 

अनुभव बताता है कि प्रौद्योगिकी, तकनीकी और वैज्ञानिक अनुवादों के सापेक्ष समाज - विज्ञान और मानविकी विषयों से सम्बन्धित किए गए अनुवाद काफी विश्वसनीय और लोकप्रिय होते हैं। अतः इस विषय में जरूरत आज इस बात की है कि मानविकी और समाज विज्ञान से सम्बन्धित नये शब्दों को गढ़ा जाय। यह प्रयास यदि सरकारी-गैर सरकारी दोनों स्तरों पर हो तो श्लाघनीय है। यहाँ कुछ लोगों को आपत्ति हो सकती है कि नए शब्दों के गढ़ाव से कार्य की गति बाधित होगी, सो उनकी जगह उपयोगी शब्दों की तलाश हो सकती है। इससे भाषा का सांस्कृतिक गठन सुरक्षित रहेगा। यदि हो सके तो देशज शब्दों का प्रयोग हो, बल्कि पुस्तकों, ग्रंथालयों और पारिभाषिक शब्दावलियों की जगह गली-मुहल्लों में प्रचलित प्रयुक्त शब्दों का भी प्रयोग हो तो बहुत अनर्थ नहीं होगा ।

 

विषय का कोई भी मानव समाज शायद ही अपने को हर दृष्टि से पूर्ण मानता हो । संस्कृति, शिक्षा, तकनीकी, प्रौद्योगिकी, ज्ञान-विज्ञान आदि अनेक कोणों पर कहीं-न-कहीं वह अपने में खालीपन अवश्य महसूस करता है। हर समाज के मन में अपने से हटकर दूसरे समाज की आशा, आकांक्षा, मनस्ताप, टूटन, संत्रास, अफसुर्दगी, सौंदर्य बोध, संवेदनाओं, समस्याओं, संघर्ष क्षमता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सामाजिक बिखराव, जीवन-पद्धति, सभ्यता तथा साहित्यिक हैसियत आदि को जानने की इच्छा बनी रहती है। यही जिज्ञासा एक समाज को दूसरे समाज के निकट ले आती है। जब तक समाज दूसरे समाज के निकट पहुँचता है तो एक-दूसरे को समझने-परखने की गरज़ और जरूरत के कारण ही जन्मती है, अनुवाद की आवश्यकता, जिसका उद्देश्य होता है, भाषा, संस्कृति और साहित्य की समृद्धि के साथ-साथ एक-दूसरे को जानना और इस प्रकार पारस्परिक अवबोध के सहारे एक-दूसरे के निकट आना । इस अनुवाद के माध्यम से ही एक समाज दूसरे समाज से अपना तादात्म्य तथा पारस्परिकता तय कर पाता है।

 

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