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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2741
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी - सरल प्रश्नोत्तर

 

स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

 

 

 

भारतीय मनीषियों ने भी प्राचीन काल से ही अनुवाद के अपने महत्त्वपूर्ण सृजनकर्म से इस विधा की ऊसर-बांगर जमीन को तोड़ा है। अनुवाद का दीपक संस्कृत काल में ही जल चुका था।

 

महाभारत, भागवत, पुराण, सत्यनारायण कथा, हितोपदेश, वैद्यक, नीतिग्रंथ, ज्योतिष, आदि के प्रौढ़-परिपक्व अनुवाद इस देश में बहुत पहले ही हो चुके थे।

 

ऋग्वेद और जेन्दोवेस्ता की कुछ पंक्तियाँ थोड़े से ध्वन्यात्मक परिवर्तन से लगभग एक हो जाती हैं। कुछ वैदिक छंदों या अंशों के अनुवाद लौकिक संस्कृत में मिलते हैं।

 

महाभारत के पूर्ण-अपूर्ण अंशों के अनुवादकों में- देवीदास, छत्रकवि, कुलपति मिश्र तथा गोकुलनाथ, भागवत के पुरानी हिन्दी के अनुवादकों में- गोपीनाथ, नंददास, चतुरदास, पदुमन, कृपाराम, बालकृष्ण, रसखान, भूपति, भीष्म, मक्खन लाल, तथा अंगद शास्त्री आदि,, पुराण में कई पुराणों के हिन्दी अनुवादकों में- लखराज, परमदास, भगवानदास, निरंजनी, शिवसागर, दलेल सिंह, भिखारी तथा दुर्गा प्रसाद आदि, इसी तरह पंचतंत्र के अनुवादकों में- अमर सिंह, कृष्ण भट्ट, देवीलाल तथा पोल्हावन, हितोपदेश के अनुवादकों में- पदुमन दास, वंशीधर, जयसिंह दास, छविनाथ, लल्लू लाल कवि, आदि सत्यनारायण कथा के अनुवादकों में- गंगाधर शास्त्री, ईश्वर नाथ, रामप्रसाद गूजर तथा गणेशदीन, वैद्यक ग्रन्थों के अनुवादकों में- पुरुषोत्तम, चेतसिंह, भगवान बाबू राम पाण्डेय, दरियाव सिंह, ठाकुर प्रसाद, मदन पाल, शेख मुहम्मद आदि ज्योतिष ग्रंथों के अनुवादकों में- लालचन्द, छाजू राम द्विवेदी, गुलाब दास, अखैराम, चन्द्रमणि, वासुदेव सनाढ्य, दत्तराम, टीका राम, इसी तरह नीति ग्रंथों के अनुवादकों में- देवीदास, व्यास, भवानी दास, गोपाल, नैन चन्द, तथा श्रीलाल आदि सुप्रसिद्ध हैं।

 

अश्वघोष, भास, कालिदास, श्रीहर्ष, आदि के हिन्दी अनुवाद भी उच्च स्तर के उपलब्ध होते हैं। प्राकृत अंशों की ढेरों संस्कृत छायाएँ भी मिलती हैं। आर्यासप्तशती तथा अमरूशतक के भी श्रेष्ठ अनुवाद किए गए हैं।

 

पालि के कुछ ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया गया था। संस्कृत के वाल्मीकि रामायण, मेघदूत, अभिज्ञान शाकुंतल आदि के छायानुवाद प्राकृत अपभ्रंश की कृतियों में महावीर चरित्र, पउम चरिउ, भविसयत्त कहा, सुदंसण चरिउ, में आसानी से प्राप्त हो जाते हैं।

 

अपभ्रंश की कुछ कृतियों के अनुवाद तिब्बती भाषा में भी प्राप्त हुए हैं।

 

सिद्धों तथा नाथों की अनेक पंक्तियों में संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश की छाया मिलेगी। विद्यापति, सूरदास, तुलसी, बिहारी, आदि कवियों की रचनाओं में पूर्व रचनाकारों की भाव साम्यता या छायानुवाद सहज रूप में प्राप्त होता है।

 

मम्मट कहते हैं- नीवीं प्रति प्रणिहिते तु करे प्रियेण। सख्यः शयामि यदि किंचदपि स्मरामि।। तो इसे विद्यापति इस प्रकार कहते हैं-जब निबि बध खसाओल कान। तोहर सपथ हम किछु जदि जान।।

 

ईसा से लगभग तीन हजार वर्ष पूर्व असीरिया के राजा सैरगोन द्वारा अपने देश के बहुभाषा भाषी समाज में अपने वीरतापूर्ण कार्यों की घोषणा के साथ अनुवाद का शुभारंभ हुआ।

 

इस राजा ने अपनी घोषणाओं को अपने देश की कई भाषाओं में अनुवाद करवाया था। ठीक इसी तरह, बेबीलोन के शासक हम्मूरबी ने तकरीबन इक्कीस सौ वर्ष ईसवी पूर्व के आसपास कुछ अनुवाद करवाया था।

 

चौथी-पाँचवीं सदी में यहूदियों ने धर्मशास्त्र सम्बन्धी अनुवाद हिब्रू से आर्मेइक भाषा में कराया किन्तु विश्व का प्रामाणिक अनुवाद रोजेटापत्थर पर दूसरी सदी में उत्कीर्ण माना जाता है।

 

पश्चिम यानी यूनान में अनुवाद की व्यवस्थित परम्परा शुरू होती है। दूसरी-तीसरी सदी से सुप्रसिद्ध ग्रंथ बाइबिल की पुरानी पोथी की भाषा हिब्रू है। मिस्र तथा एलेक्सैदिया के यूनानी तथा भाषा भाषी यहूदियों के लिए उक्त ग्रंथ का अनुवाद किया गया।

 

अरब में भी अनुवाद कर्म की सुदीर्घ परम्परा का पता चलता है। वस्तुतः अरब देश साहित्य, कला, ज्ञान-विज्ञान का बहुत पहले से ही प्रेमी रहा है। संयोग से अरब का पुराना रिश्ता भारत से था।

 

इन अरबों ने भारतीय ब्राह्मणों की सहायता से 8वीं-9वीं तथा 10वीं शती के आसपास भारतीय संगीत, ज्योतिष, गणित, रेखागणित, सर्पशास्त्र, खगोल विज्ञान, चिकित्सा, तर्कशास्त्र, नीतिशास्त्र, रसायन तरह ग्रीक में भी ढेरों धार्मिक ग्रन्थों के अनुवाद हुए।

 

बेदे ने 375 ई. में जॉन के गास्पल का अनुवाद किया। सीरियाई से अरबी, यूनानी से सीरियाई तथा अरबी से लैटिन में भी अनुवाद हुए। अनुवाद की यह धारा स्पेन, फ्रांस तथा जर्मनी में प्रभूत मात्रा में वही।

 

बाइबिल के अनुवाद फ्रांसीसी, अंग्रेजी डच, चेक, जर्मन में भी हुए। मार्टिन लूथर इस समय के महत्वपूर्ण अनुवादकों में से हैं। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लूथर द्वारा किये गये बाइबिल के अनुवाद का जर्मन भाषा पर बहुत गहरा असर हुआ।

 

लूथर के ही समकालीन फ्रांसीसी विचारक एतौने दोले भी प्रमुख अनुवादकों में से थे। 16वीं शताब्दी में कैसिओवेरो वे रीना ने बाइबिल का सुप्रसिद्ध अनुवाद स्पैनिश भाषा में किया। फ्रांस के बैतेक्स भी कुशल अनुवादक माने जाते हैं। इसी तरह प्रसिद्ध भाषा शास्त्री श्लेगेल तथा हर्डर भी जाने माने अनुवादकों में से हैं।

 

आज 'अनुवाद' शब्द से जो अर्थ लिया जाता है, उसका अर्थ प्राचीन समय में थोड़ा-सा भिन्न था। किन्तु जहाँ तक 'अनुवाद' शब्द के प्रयोग का सम्बन्ध है, यह बहुत प्राचीन समय में ही व्यवहार में प्रयुक्त होता रहा है।

 

अंग्रेजी में 'अनुवाद' का समतुल्य 'Translation' शब्द है जो अंग्रेजी के Translate' शब्द का संज्ञा रूप है। 'Translate' शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन शब्द 'Translaturn' से हुई है जो Trans + latum' से मिलकर बना है। यहाँ Trans' का अर्थ है- "Across" अर्थात् 'उस पार' या 'दूसरी ओर' तथा 'latum' का अर्थ है 'to carry' अर्थात् 'ले जाना'।

 

इस प्रकार 'Translation' का अर्थ है- दूसरी ओर ले जाना। यह 'दूसरी ओर ले जाना' की संकल्पना भाषिक पाठ से सम्बद्ध है। इस प्रकार, एक भाषा के कथ्य को दूसरी भाषा के कथ्य में प्रस्तुत करना Translation' है।

 

संस्कृत में 'अनुवाद' शब्द से अभिप्राय 'पुनःकथन' अर्थात् 'पुनरुक्ति' से लिया गया है। पाणिनि के अष्टाध्यायी में 'अनुवाद' शब्द का प्रयोग 'अनुवादे चरणानाम्' के अर्थ में हुआ है। शब्दार्थ चिंतामणि में 'अनुवाद' शब्द का अर्थ इस प्रकार दिया गया है- 'प्राप्तस्य पुनः कथने'। न्यायसूत्र के वाचस्पति मिश्र के भास्य में 'अनुवाद' का अर्थ 'शीघ्रतरगमनोपदेशवद्भ्यासान्नविशेष' बताया गया है।

 

भर्तृहरि ने 'अनुवाद' का अर्थ- 'आवृत्तिरनुवादोवा' बताया है। इन सभी वाक्यांशों में 'अनुवाद' शब्द का अर्थ 'दुहराना', 'कहना', 'पुनः कथन', 'आवृत्ति', 'ज्ञात बात को फिर से कहना' आदि के रूप में ध्वनित हुआ है अर्थात् 'अनुवाद' का अर्थ एक भाषा में किसी के द्वारा कही गई बात का किसी दूसरी भाषा में पुनः कथन है।

 

हिन्दी में प्रयुक्त होने वाला 'अनुवाद शब्द, 'अनुवादः' शब्द का तत्सम रूप है। 'अनुवाद' शब्द संस्कृत की 'वद्' धातु में 'घ' प्रत्यय एवं 'अनु' उपसर्ग लगने से बना है। 'अनु' उपसर्ग पीछे, बाद में आदि अर्थों का सूचक है। जबकि संस्कृत की 'वद्' धातु में 'घ' प्रत्यय लगने से निर्मित 'वाद' का अर्थ है-कथन, विचार-विमर्श, बोलना, भाषण आदि। इस प्रकार अनुवाद शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है-'अनुकथन' या किसी के द्वारा कहने के बाद उसी बात को दोबारा अधिक स्पष्ट करते हुए कहना अथवा पुनः कथन अथवा पुनरुक्ति। चूँकि पीछे बोलने में भाषा रूपांतरित हो जाती है, और इस प्रकार पहले की कही हुई बात का अनुवाद हो जाता है।

 

कालिका प्रसाद द्वारा संपादित 'बृहत् कोश' में अनुवाद के अर्थ हैं-फिर से कहना, व्याख्या या समर्थन रूप में पुनरुक्ति, समर्थन, अपशब्द, उल्था, भाषांतर।

 

भार्गव हिन्दी शब्दकोश में अनुवाद का अर्थ दिया है-पुनरुल्लेख, दोहराव, अनुकरण, निंदा, भाषांतर आदि। जबकि डॉ. रसाल द्वारा संपादित 'भाषा शब्दकोश' में अनुवाद से अभिप्राय है-वाक्य का वह भेद जिसमें कही बात का फिर-फिर कथन हो। इस प्रकार संस्कृत की 'अनुवाद' शब्द 'किसी एक भाषा में कही गई बात को बोलचाल की प्रचलित भाषा में कहना' के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इसे 'भाषा करना' अथवा 'भाषा में कहना' कहा जाता था।

 

'अनुवाद' शब्द के कोशगत अर्थ, भारतीय एवं पाश्चात्य परिप्रेक्ष्य में 'अनुवाद' शब्द की व्याख्या अनुवाद का सीमित तथा व्यापक संदर्भ, 'अनुवाद' सम्बन्धी आक्षेपात्मक विचार, इसके महत्त्व को रेखांकित करने वाले विचार एवं आदि विविध पक्ष अनुवाद के विभिन्न आयामों को कमोबेश स्पष्ट तथा समग्र रूप में अभिव्यक्त करते हैं।

 

जहाँ तक अनुवाद के निश्चित स्वरूप का सम्बन्ध है, इसके स्वरूप को समझने-समझाने के लिए देश-विदेश के अनेक विद्वानों ने अपने निजी अनुभवों के आधार पर 'अनुवाद' को परिभाषित किया है। लेकिन देखा जाए तो आज तक कोई भी ऐसी परिभाषा नहीं कही जा सकती जिससे 'अनुवाद' का निश्चित स्वरूप स्पष्ट होता हो।

 

आज तक किसी भी परिभाषा को अंतिम अथवा निर्विवाद परिभाषा कहलाने का श्रेय हासिल नही हुआ है। लेकिन, फिर भी इतना तो अवश्य ही है कि अनुवाद के अर्थ के द्योतक विचारों-परिभाषाओं का सर्वेक्षण किया जाए तो अनुवाद सम्बन्धी विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य विवेचन के अनुशीलन एवं परिशीलन के बाद अनुवाद सम्बन्धी परिभाषाएँ - अनुवाद के स्वरूप सहित उसके विभिन्न आयामों को अभिव्यक्त करती हैं।

 

अनुवाद सम्बन्धी विभिन्न भारतीय एवं पाश्चात्य विवेचन के इन विविध पक्षों के आधार पर अनुवाद को परिभाषित करते समय परोक्षरूप में अनुवाद के स्वरूप पर भी चर्चा हो ही जाती है। अतः अनुवाद के स्वरूप को समझने के लिए विभिन्न पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों की परिभाषाओं में व्यक्त किए गए विचारों को समझना-परखना आवश्यक है।

 

भारतीय विद्वानों में प्रसिद्ध भाषाविद् डॉ. भोलानाथ तिवारी ने अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार दी है- "भाषा ध्वन्यात्मक प्रतीकों की व्यवस्था है और अनुवाद है इन्हीं प्रतीकों का प्रतिस्थापन अर्थात् एक भाषा के स्थान पर दूसरी भाषा के निकटतम समतुल्य और सहज प्रतीकों का प्रयोग।”

 

इसी संदर्भ में सविख्यात अनुवाद चिंतक डॉ. सुरेश सिंहल अनुवाद की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि-" एक भाषा में व्यक्त विचारों अथवा भावों को यथासंभव समतुल्य एवं सहज अभिव्यक्ति द्वारा कथ्य और शैली के स्तर पर दूसरी भाषा में पुनः सृजित एवं संप्रेषित करना अनुवाद है।"

 

प्रसिद्ध अनुवादशास्त्री डॉ. पूरनचन्द टण्डन अनुवाद की परिभाषा इस प्रकार देते हैं-"एक भाषा से दूसरी भाषा में प्रस्तुतीकरण की प्रणाली अनुवाद कहलाती है। यह ऐसी कला है जिसमें एक भिन्न पृष्ठभूमि वाले पाठक के लिए किसी रचना का किसी और भाषा में भाषांतरण होता है।"

 

"विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी अनुवाद की परिभाषाओं का विवेचन-विश्लेषण करने पर अनुवाद की प्रकृति एवं उसके स्वरूप-निर्धारण के संदर्भ में एक मूलभूत सूत्र उभर कर सामने आता है कि अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा के विभिन्न स्तरों पर समतुल्यता की खोज करता है।

 

यह अनुवाद की विडम्बना ही है कि दोनों भाषाओं में यह समतुल्यता की खोज प्रायः एक असफल प्रयास सिद्ध होता है क्योंकि प्रत्येक स्तर पर अनुवाद की कठिन समस्याएँ अनुवादक के सामने आ आ कर अनुवाद को कठिन से कठिनतर बना देती हैं। यहाँ डॉ. सुरेश सिंहल के विचार उल्लेखनीय हैं, “अनुवाद में पूर्णरूपेण समतुल्यता कभी असंभव तो कभी कठिन उद्देश्य प्रतीत होती है, क्योंकि स्रोतभाषा अपने स्वभाव और प्रकृति में लक्ष्य भाषा से कई स्तरों पर भिन्न होती है।

 

वैसे भी अनुवाद-प्रक्रिया में अनुवादक के लिए कुछ छोड़ना और कुछ जोड़ना यथास्थिति आवश्यक हो जाता है। इसलिए यह प्रतिपादित किया गया कि समतुल्यता अपनी संपूर्णता में तो कभी संभव नहीं हो पाती और सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद में तो कदापि नहीं। सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद में केवल भाषा और भाव के संप्रेषण पर ही जोर नहीं दिया ॐ जाता, बल्कि उसके कलात्मक रूप-स्वरूप को भी सहेजा-सँवारा जाता है।

 

कलात्मकता में बिम्ब, प्रतीक, अलंकार, मुहावरे, लोकोक्तियाँ, सांस्कृतिक एवं दार्शनिक शब्दावली आदि शामिल होते हैं और ये सभी तत्त्व अनुवादक से सृजनात्मकता की पुरजोर माँग करते हैं।

 

केवल समतुल्यता अथवा पर्यायों की खोज के आधार पर अनुवाद की परिभाषा देना सर्वथा उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत नहीं होता। अनुवाद करते समय अनुवादक यदि रूपात्मक समतुल्य इकाइयों को ही ध्यान में रखता है तो यह सफल अनुवाद की कोटि में नहीं आ सकता और यदि वह रूपात्मक समतुल्य इकाइयों की अपेक्षा केवल संप्रेषणीयता को महत्त्व देता है तो भी उसे पूरी तरह सफल अनुवाद नहीं कहा जा सकता।

 

कैटफर्ड ने - अपनी एक परिभाषा में समतुल्यता के सिद्धान्त को यह कहकर स्पष्ट किया है कि अनुवाद में समतुल्यता तभी संभव है जब स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा ऐसी संप्रेषणपरक स्थितियों में समान स्तर पर जुड़ी हों जिनका सम्बन्ध मूल रचना के भाव और शैली से हो। अतः अनुवाद में समतुल्यता की खोज दोनों भाषाओं में निर्जीव पर्यायों की खोज न होकर सजीव पर्यायों की खोज है।

 

अनुवाद के विविध प्रकार निम्नलिखित है-

 

(अ) गद्य-पद्य के आधार पर-

1. गद्यानुवाद,
2. पद्यानुवाद,
3. मुक्त छंदानुवाद।

(ब) साहित्यिक विधा के आधार पर-

1. काव्यानुवाद,
2. नाटकानुवाद,
3. कथानुवाद 

(स) विषय के आधार पर-

1. पत्रकारिता,
2. नाटकानुवाद,
3. कथानुवाद,
4. कार्यालयी अनुवाद,
5. वाणिज्यिक अनुवाद,
6. ललित साहित्य का अनुवाद,
7. गणित साहित्य का अनुवाद,
8. धार्मिक साहित्य का अनुवाद,
9. विधि साहित्य का अनुवाद,
10. ऐतिहासिक साहित्य का अनुवाद।

(द) अनुवाद की प्रकृति के आधार पर-

(1) मूलनिष्ठ अनुवाद,
(2) मूलमुक्त अनुवाद,
(3) सारानुवाद,
(4) व्याख्यानुवाद,
(5) छायानुवाद,
(6) शब्दानुवाद,
(7) भावानुवाद,
(8) वार्तानुवाद या आंशु अनुवाद,
(9) रूपान्तरण अनुवाद,
(10) आदर्श अनुवाद।

एक अच्छे अनुवादक के गुण, दायित्व और अपेक्षाएँ निम्नलिखित हैं-

 

(i) लक्ष्य भाषा और श्रोत भाषा की जानकारी उत्तम अनुवाद और अनुवादक के लिए प्रसिद्ध।

 

(ii) मूल रचना की वस्तु की जानकारी श्रेष्ठ अनुवादक और अनुवाद के लिए बुनियादी शर्त है।

(iii) मूल पाठ तथा अनूदित पाठ में समानता अपरिहार्य ।
(iv) कथ्य और कथन प्रणाली अर्थात् शैली समतुल्यता का बोध।
(v) विशिष्ट मेधा और मनोयोग का होना आवश्यक ।
(vi) अनुवाद विद्या का ज्ञान अनुवाद और अनुवादक के लिए हितकर।
(vii) व्याकरणिक बोध अनिवार्य शर्त है।

(viii) अनुवाद में प्रामाणिकता और मौलिकता का चटक रंग काबिले गौर।

 

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