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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2741
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-4 हिन्दी - सरल प्रश्नोत्तर

 

अध्याय - 5
अनुवाद सैद्धान्तिकी-एक

 

आज विश्व के सभी देशों के लोगों के बीच अन्तः सम्प्रेषण की प्रक्रिया के रूप में अनुवाद का महत्त्व निर्विवाद है। भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में विभिन्न भाषाओं के परस्पर अनुवाद की तो आवश्यकता है ही, विश्व - भाषाओं से भी अनुवाद की अनिवार्यता है । आज संप्रेषण के साधनों के आविष्कारों के कारण दुनिया इतनी सिकुंड़ गयी है कि एक देश के लोग अन्य देशों के साहित्य एवं संस्कृति के बारे में जानने के लिए उत्सुक हैं। उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के इस दौर में एक दूसरे के साहित्य एवं संस्कृति को जानना समझना आज हमारी विवशता बन गई है। डॉ. सुरेश सिंहल के अनुसार, “अनुवाद आज एक सांस्कृतिक सेतु के रूप में उभरकर सामने आया है। आज की मानव संस्कृति में अनुवाद की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। दो भाषाओं के परस्पर अनुवाद में सांस्कृतिक आदान-प्रदान तो होता ही है, हमें एक दूसरे के नजदीक आने का अवसर भी मिलता है। अनुवाद मानव की मूलभूत एकता का, व्यक्ति चेतना एवं विश्व चेतना के अद्वैत का प्रत्यक्ष प्रमाण है। अतः अनुवाद एक अन्तः सम्प्रेषण की प्रक्रिया के रूप में महत्त्वपूर्ण कदम है जिससे मानव दूसरों की सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक आदि तत्त्वों की जानकारी प्राप्त कर सकता है। "

 

वित्त, वाणिज्य आदि से सम्बन्धित अनुवाद पर प्रकाश डालते हुए डॉ. चन्द्रपाल लिखते हैं कि वाणिज्य का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। इसके अंतर्गत पर्यटन, बैंकिंग, सरकारी विज्ञापनों की सामग्री व्यावसायिक पत्रों के प्रारूप, घोषणाएँ आदि प्रशासनिक दस्तावेजों का अनुवाद किया जाता है। सरकारी राजभाषा नीति के अनुसार वाणिज्यिक सूचनाओं को हिन्दी में भी प्रकाशित करना आवश्यक है। लाभ की दृष्टि से विज्ञापन के युग में उत्पादों की विशेषताओं को ग्राहक की भाषा में प्रचारित करना उपयोगी है, इसलिए वाणिज्य के क्षेत्र में भी अनुवाद के चरण अग्रसर हैं। फिर भी, वाणिज्य बीमा अर्थात् व्यावसायिक क्षेत्र के

 

अनुवाद से सम्बन्धित कुछ समस्याएँ और कुछ दुर्बलताएँ हैं, जिसकी ओर इशारा करते हुए अनुवाद-मर्मज्ञ डॉ. जी. गोपीनाथन कहते हैं कि व्यावसायिक क्षेत्र के विशिष्ट शब्द, अभिव्यक्तियाँ आदि अनुवादकों के लिए समस्याएँ उत्पन्न करती हैं। चूँकि प्रशासन और कानून से भी इसका सम्बन्ध है, इसलिए कुछ तो पारिभाषिक शब्दों का अनुवाद भी इसमें होता है। विज्ञापन के अतिरिक्त, व्यावसायिक पत्र सूचना सामग्री, निर्देश, उद्घोष, नामपट्ट तथा अन्य प्रशासनिक महत्त्व के कार्य भी इसमें समाहित हैं। बैंकों के राष्ट्रीयकरण के साथ ही जनभाषाओं के प्रयोग पर बल दिया जा रहा है और इस कारण से बैंकों में वाणिज्यानुवाद की संभावनाएँ बढ़ रही हैं। रेलवे आदि अन्य विभागों में भी वाणिज्यानुवाद का महत्त्व बढ़ता जा रहा है।

 

किसी भी तरह का वैज्ञानिक अनुसंधान हो, चाहे सूचना प्रौद्योगिकी हो, चिकित्सा सम्बन्धी अनुसंधान हो या पर्यावरण सम्बन्धी अध्ययन हो - इन सभी की जानकारी हमें अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अंग्रेजी में या अन्य विदेशी भाषाओं में लिखी पुस्तकों से ही प्राप्त होती है। जाहिर है, इन क्षेत्रों से सम्बन्धित जो अनुसंधित्सु इन विषयों को अपनी मातृभाषाओं में जानना - समझना चाहते हैं, उन्हें बिना अनुवाद के उक्त सामग्री उपलब्ध नहीं हो पाएगी।

 

विषय-वस्तु के आधार पर अनुवाद मुख्यतः दो प्रकार का माना जाता है- एक साहित्यिक अनुवाद और दूसरा साहित्येतर अनुवाद। पहले में साहित्य की विभिन्न विधाओं से सम्बन्धित सामग्री का अनुवाद किया जाता है और दूसरे में वैज्ञानिक एवं तकनीकी विषयों से सम्बन्धित सामग्री का अनुवाद किया जाता है। सामग्री की इस भिन्नता के कारण ही अनुवाद में भिन्नता होना जरूरी हो जाता है। यह भिन्नता उस सामग्री अथवा विषय की अनुवाद प्रक्रिया को भी प्रभावित करती है और उसके लक्ष्य भाषायी स्वरूप को भी । साहित्येत्तर विषयों के अनुवाद में विशिष्ट व्यावसायिक भाषा का व्यवहारिक और समुचित प्रयोग किया जाता है तो साहित्यिक विषयों के अनुवाद में भाषा की सृजनात्मक अभिव्यक्तियों का प्रयोग किया जाता है। साहित्येतर विषयों के अनुवाद में अनुवादक का काम अभ्यास, पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग और सपाटबयानी से चल जाता है, किन्तु साहित्यिक विषयों के अनुवाद में इतना ही काफी नहीं है। इसके अतिरिक्त अनुवादक में सृजनात्मक प्रतिभा का होना अनिवार्य होता है। साहित्येतर अनुवाद की प्रकृति आत्मपरक एवं सूक्ष्म होती है। साहित्येतर अनुवाद में प्रायः एकार्थक अभिव्यक्ति होती है और साहित्यिक अनुवाद में बहुअर्थक। पहले से असंश्लिष्ट तथा दूसरे में संश्लिष्ट अर्थछवियाँ इन दोनों प्रकार के अनुवाद की भिन्नता को दर्शाती हैं। पहले प्रकार के अनुवाद में कोशगत अर्थ तथा दूसरे प्रकार के अनुवाद में रचना के प्रसंगगत, संदर्भगत तथा सांस्कृतिक अर्थ की प्रधानता रहती है। इससे स्पष्ट है कि सभी प्रकार के विषयों का अनुवाद एक जैसा नहीं हो सकता । साहित्येतर अनुवाद की प्रक्रिया यदि सरल होती है तो साहित्यिक अनुवाद की जटिल । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि साहित्येतर अनुवाद प्रायः शब्दानुवाद होता है और साहित्यिक अनुवाद भावानुवाद एवं मुक्तानुवाद |

 

सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद की चर्चा करते हुए डॉ. सुरेश सिंहल कहते हैं कि 'सृजनात्मक साहित्य का अनुवाद अनिवार्यतः पुनःसृजन है।' यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें स्रोत भाषा के कथ्य और शैली को उसकी संपूर्ण अभिव्यंजनाओं सहित रखते हुए समानार्थक अथवा समतुल्य पर्यायों के माध्यम से पूरी ईमानदारी के साथ लक्ष्य भाषा में अवतरित किया जाता है। यह केवल शब्दों का प्रतिस्थापन मात्र नहीं है, बल्कि एक प्रकार का पुनः सृजन है जिसमें अनुवादक को कुछ जोड़ना और कुछ छोड़ना पड़ता है। इसमें अनुवादक को किसी दूसरे के भावबोध को अपना बनाकर लक्ष्य भाषा में सम्प्रेषित करना होता है, जबकि मूल लेखक का भावबोध उसका अपना होता है। जिस प्रकार सफल और सार्थक मौलिक लेखन के लिए गहन जीवनानुभूति और रसपूर्ण अभिव्यंजना-शक्ति आवश्यक होती है, उसी प्रकार सफल अनुवादक बनने के लिए ऐसी शक्ति का होना जरूरी होता है।

 

स्मरण रखने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य

 

प्रतिभा के बिना कोई भी अनुवादक, चाहे वह कितनी ही भाषाएँ क्यों न जानता हो, एक अच्छा अनुवादक नहीं बन सकता। मूल लेखक की भाँति उसे भी अपने लक्ष्य भाषा-भाषी समाज के लिए परकाया परिवेश करना पड़ता है, उसकी मनोभूमि तक पहुँचना पड़ता है।

 

किन्तु कोई भी अनुवादक सृजनात्मक प्रतिभा के बिना मूल लेखक की आत्मा में न तो उतर सकता है और न ही उसके भावों और विचारों को अपने समाज के पाठकों तक पहुँचा सकता है।

 

सफल अनुवादक में पुनः सृजन की यह क्षमता वैसी ही होती है जैसी की मूल लेखक में। अनूदित रचना ऐसी प्रतीत होनी चाहिए मानो मूल रचनाकार ने अपनी ही कृति को कालांतर में एक अन्य भाषा में पुनः सृजित किया हो ।

 

वास्तव में देखा जाए तो अनुवादक की भूमिका दोहरी होती है और उससे की जाने वाली यह दोहरी प्रत्याशा अनुवाद के कार्य को जटिल और श्रमसाध्य बना देती है । उसे मूल कृति के प्रति तो वफादार रहना ही होता है, साथ ही उसे अपने अनुवाद की भाषा में मूल रचनाकार के अनुभवों और अनुभूतियों को भी सहेजना सँवारना पड़ता है।

 

सफल अनुवाद के लिए अनुवादक को अपनी मातृभाषा में ही अनुवाद करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सफल अनुवाद की यह भी एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उसकी भाषा यथासंभव लोकभाषा के अधिकाधिक निकट हो। वह अपने समय की प्रचलित भाषा हो।

 

जहाँ तक हो सके वह किताबी न हो, अस्वाभाविक न हो और नीरस न हो।

 

सृजनात्मक साहित्य के अनुवाद में तो यह बात और भी आवश्यक हो जाती है, क्योंकि मौलिक लेखन प्रायः किताबी में भाषा में नहीं लिखा जाता। इसलिए अनुवादक को अनुवाद की भाषा के संदर्भ में शब्दों के पर्यायों का चयन करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए।

 

सफल अनुवाद में बोधगम्यता, सहजता, स्पष्टता, प्रवाहमयता और संप्रेषणीयता अनिवार्य गुण माने जाते हैं जिनका सम्बन्ध सीधे अनुवादक से होता है। अनुवादक स्वयं में एक सृजनात्मक प्रक्रिया है, किन्तु अनुवाद की सृजन शक्ति मूलपाठ की सीमाओं में बँधी हुई होती है जिसे मूलनिष्ठता की अनिवार्यता से जोड़ दिया जाता है। इसलिए अपनी व्यक्तिगत विशेषताओं के होते हुए उसे मूल का ध्यान तो रखना ही पड़ता है। अक्सर उसे लक्ष्य भाषा में एक विचार के लिए प्रस्तुत एक से अधिक पर्यायों में से एक का चुनाव करने का अधिकार है। पर्यायों का यह चुनाव अनुवादक के शैक्षिक, बौद्धिक और भाषिक स्तर पर निर्भर करते हैं और साथ ही उसकी रुचि और अभ्यास पर भी। उसे यह चुनाव लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुसार ही करना पड़ता है, वरना वह पाठक के लिए अस्पष्ट एवं असहज हो जाएगा।

 

वास्तव में सफल अनुवाद वही है जिसमें मूल के भाव और शैली को दूसरी भाषा में बिना किसी नुकसान के संप्रेषित किया जा सके अर्थात् जो बात हम कहना चाहते हैं वह दूसरे तक उसी अर्थ और लहजे में पहुँच जाए और अनुवाद पढ़ने के बाद उसका मूल पाठ पढ़ने की आवश्यकता न पड़े। यह पढ़ने में इतना सहज होना चाहिए कि उससे पाठक को आनन्द की अनुभूति हो । अनुवाद की पठनीयता के लिए उसका प्रवाहमयी होना जरूरी है। जरा भी बनावटीपन आया तो वह खटकने लगेगा। इसलिए शब्दार्थ और व्याकरण की दृष्टि से अशुद्ध न होने पर भी कभी-कभी ऐसा लगता है कि भाषा का बहाव रुक सा जाता है। पढ़ते-पढ़ते अचानक हम कहीं रुक से जाते हैं। सफल अनुवाद बहते पानी के समान होता है ।

 

अनुवाद को विज्ञान कहा जाए या कला, यह एक विवादास्पद विषय रहा है। अनुवाद को वैज्ञानिक दृष्टि से परखने पर यह ज्ञात होता है कि अनुवादक अनुवाद का वस्तुनिष्ठता, तर्कसम्मतता, निरपेक्षता, सटीकता, शुद्धता आदि तत्वों के आधार पर विश्लेषण एवं अध्ययन करता है। वह मूल कृति के सही अर्थ को समझकर अनुवाद करने की चेष्टा करता है। वह भाषा के नियमों का पालन करता है और अनुवाद - अध्ययन में अपने व्यक्तित्व, अपनी भावना और अपनी कल्पना को संश्लिष्ट नहीं करता।

 

यह सारी अनुवाद प्रक्रिया बौद्धिक होती है, क्योंकि वैज्ञानिक दृष्टि वाला अनुवादक एक तथ्यात्मक व्यक्ति होता है। एक वैज्ञानिक की भाँति ही अनुवादक भी शब्दकोश, विश्वकोश, व्याकरण-नियमावली आदि अनुवाद संबंधी औजारों का प्रयोग करता है। अनुवाद को विज्ञान की दृष्टि से परखने वाले अनुवादक अनुवाद की सटीकता एवं शुद्धता पर अधिक बल देते हैं।

 

अनुवाद को कला की दृष्टि से परखने पर हम पाते हैं कि ऐसे अनुवाद में अर्थ संश्लिष्ट होते हैं। सांकेतिक होते हैं और सूक्ष्म होते हैं और ऐसे अनुवाद में अर्थ भी सुनिश्चित नहीं होते । इसलिए अनुवादक कोरा अनुवादक नहीं होना चाहिए।

 

वह मूल रचना के अर्थ को संपूर्णता में वहन कर सकता हो, शैली की भंगिमाओं को समझ सकता हो और इन सब को लक्ष्य भाषा में सुरक्षित रख सकता है।

 

अतः कलात्मक अनुवाद वैज्ञानिक अनुवाद से सर्वथा भिन्न होता है क्योंकि, वैज्ञानिक अनुवाद में व्यवस्थित ज्ञान होता है ज्ञान तर्कसम्मत, सुसम्बद्ध एवं वस्तुनिष्ठ होता है। इसमें केवल अर्थ ही महत्त्वपूर्ण होता है, भाषा अर्थ के साथ जुड़ी हुई नहीं होती इसलिए इसका अनुवाद आसानी से किया जा सकता है। किन्तु कलात्मक अनुवाद में स्थिति इसके विपरीत होती है । अतः अनुवाद न तो पूर्णतया विद्वान है और न ही पूर्णतया कला। एक सीमा तक वह विज्ञान भी है और कला भी।

 

सृजनात्मक साहित्य की विभिन्न विधाओं में कविता का अनुवाद अत्यधिक कठिन होता है। कुछ विद्वान तो इसे असंभव भी मानते हैं और कुछ का कहना है कि काव्यानुवाद उस सुन्दर स्त्री के समान है जो बेवफा होती हैं और यदि वह वफादार हो तो वह सुंदर नहीं होती।

 

डॉ. सुरेश सिंहल के शब्दों में - “वस्तुतः काव्यानुवाद की प्रक्रिया में अनुवादक को मूल रचना के भाव को लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप ही प्रस्तुत करना होता है। किन्तु यह प्रक्रिया विडम्बनापूर्ण होती है, क्योंकि पद्य के बंधन के कारण अनुवादक न तो मूल भावों की रक्षा कर पाता है और न अनूदित रचना में शैलीगत सौंदर्य ही बचा पाता है। “भाषा अथवा संरचना पर ध्यान देने से भाव नहीं आ पाते और भावों का अनुवाद करने पर व्याकरण साथ छोड़ जाता है।" काव्यानुवाद की प्रमुख समस्या यह है कि काव्य में भाषा के कई स्तर होते हैं। कवि के भाषिक संस्कार कवि की अपनी मातृभाषा और उसके क्षेत्र की सामान्य क्षेत्रीय भाषा के आधार पर ही बने होते हैं।

 

कवि का सामान्य प्रेषण- व्यापार इन्हीं संस्कारों पर आधारित रहता है । कवि की उत्तेजित उद्वेलित चेतना और उद्दीप्त अनुभूति अपनी व्यंजना के लिए उचित सामग्री की खोज और उसके चुनाव और प्रयोग की जटिल प्रक्रियाओं में प्रवृत्त होती है।

 

अतः अनुवादक का भाषा प्रयोग सम्बन्धी दायित्व ऐसे में बहुस्तरीय हो जाता है। एक ओर तो उसे अपनी रचना को मात्र उक्ति से बचाना होता है और दूसरी ओर अपनी अनुभूति और सृजन - प्रेरणा के संदर्भ में भाषा प्रयोग प्रमाणित करना होता है। एक ओर उसे परम्परा जनभाषा के प्रति प्रतिबद्ध होना होता है और दूसरी ओर लीक से हटकर नवीन भाषा भूमियों की खोज भी उसके लिए अनिवार्यता बन जाती है।

 

ऐसी स्थिति में अनुवादक को ध्वनि-योजना, छंद-योजना, रस योजना, अलंकार-योजना, बिम्ब योजना, प्रतीक योजना आदि समस्याओं से जूझना पड़ता है जो निःसन्देह काव्यानुवाद को यदि एक असंभव कार्य नहीं तो एक कठिन कार्य अवश्य ही प्रमाणित करती है।

 

नाटकानुवाद भी काव्यानुवाद की तरह उतना ही कठिन है जितना कि नाटक लेखन का काम। दरअसल नाटक से जुड़ा हुआ व्यक्ति ही नाटक का अनुवाद कर सकता है।

 

नाटक के अनुवादक के लिए रंगमंच का व्यावहारिक ज्ञान होना अत्यन्त आवश्यक है। नाटक बहुत सारी तकनीकी बातें होती हैं जिन्हें अनुवादक को जानना जरूरी हो जाता है, अन्यथा वह अनुवाद कर ही नहीं सकेगा।

 

नाटक में रंगमंच, टी. वी., रेडियो आदि के लिए अनुवाद अलग-अलग होगा। इन सबकी तकनीकी जरूरतें अलग-अलग होने के कारण नाटक की अनुवाद प्रक्रिया भी अलग हो जाती है। नाटक की अनुवाद प्रक्रिया निश्चित रूप से साहित्य की अन्य विधाओं से भिन्न होती है, क्योंकि नाटक तो देखा जाता है और अन्य विधाएँ पढ़ी जाती हैं। नाटकानुवाद में मूल समस्या नाटक के बिम्ब को दूसरी भाषा में उसी तरह या नज़दीकी बिम्ब के द्वारा सुरक्षित रखने की है।

 

एक प्रकार से अनुवादक को मूल नाटक की संपूर्ण अर्थवत्ता को सुरक्षित रखना होता है। अन्य विधाओं में लिखित पक्ष पर जोर दिया जाता है, किन्तु नाटक में अभिनय -पक्ष पर, अन्य विधाओं में वर्णनात्मकता की प्रधानता होती है, किन्तु नाटक में संवादात्मकता की ।

 

नाटकानुवाद की समस्या का मूल कारण स्रोत भाषा का भावगत और शिल्पगत विशेषताएँ हैं। सामान्यतः अनुवाद में स्रोत भाषा ही रचना को लक्ष्य भाषा में उतारना होता है, जबकि नाटकानुवाद में भाषायी तत्त्वों के अतिरिक्त अन्य कई प्रकार के नाटकीय तत्त्व भी सम्मिलित होते हैं।

 

नाटकानुवाद में लिखित और अभिनयमूलक पक्षों में अंतर्द्वन्द्व की स्थिति में इन दोनों पक्षों को एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। पहले पक्ष को पकड़ने की कोशिश में दूसरा छूट जाता है तो दूसरे को पकड़ने की कोशिश में पहला । यही समस्या नाटक के अनुवादक लिए चुनौती के रूप में प्रस्तुत होती है।

 

नाटक के लिखित पक्ष में नाटकीय संकेत, तत्त्व और गति - सम्बन्धी तत्त्व निहित होते हैं। अनुवादक के लिए समस्या यह है कि उसे लिखित कृति का केवल पढ़कर ही उसका लख्यभाषी रूप तैयार करना पड़ता है।

 

यदि अनुवाद मूल कृति को पढ़ने के साथ-साथ रंगमंच पर भी अभिनीत होते देखकर अनुवाद करता है तो उसकी समस्या सरल हो जाती है, किन्तु ऐसा प्रायः नहीं होता है। और उसे केवल लिखित पक्ष को पढ़कर ही अनुवाद करना पड़ता है। इस प्रक्रिया में उसे उस कृति में निहित नाटकीय संकेतों की ओर ध्यान दिये बिना ही अनुवाद करना पड़ता है।

 

नाट्य कृति अन्य गद्य व पद्य कृतियों की अपेक्षा समयबद्ध होती है, इसलिए अनुवादक को मूल कृति के संवादों को लक्ष्य भाषा की उच्चारण पद्धति के अनुरूप समयबद्ध करना पड़ता है। नाटक के अनुवादक को संवादों की निरन्तर प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है।

 

कुल मिलाकर नाटकानुवाद की समस्या रंगमंच की व्यवहारिकता की समस्या ही है। इसकी कुछ समस्याएँ रूपांतरण के स्तर पर होती हैं और कुछ भाषांतरण के स्तर पर । अनुवादक को नाटकानुवाद में आने वाली ऐसी अनेक समस्याओं से जूझना पड़ता है, जैसे नाटक का अनुवाद किया जाए अथवा रूपांतर, अनुवाद मूलनिष्ठ हो अथवा स्वतंत्र, कथावस्तु आँचलित है अथवा सार्वभौमिक, कथावस्तु किस सीमा तक प्रासंगिक है, सांस्कृतिक परिवेश का पुनः सृजन कैसे किया जाए, नाटकीय भाषा के तेवरों को कैसे वश में किया जाए आदि। यही वे तत्त्व हैं जो नाटक के अनुवाद के लिए चुनौती का काम करते हैं।

 

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