बी काम - एम काम >> बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय 21 - लाभ : अवधारणा तथा सिद्धान्त
(Profit : Concept and Theories)
कुल उत्पादन का वह अवशेष जो भूमि, श्रम तथा पूँजी के पारिश्रमिक के बाद साहसी को उत्पादन प्रक्रिया में प्राप्त होता है, वहीं लाभ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि लाभ एक गैर सुनिश्चित शेषात्मक आय है जो भूमिपति को, श्रमिक को तथा पूँजीपति को प्रतिफल के अनन्तर आय देने के बाद साहसी को प्राप्त होता है। साहसी उत्पादन का एक ऐसा साधन है जो निरन्तर सम्भावित एवं प्रतिवर्ष के अनुसार श्रम, भूमि तथा पूँजी को उत्पादन क्रिया में लगाता है तथा उन्हें उत्पादित वस्तु के बिकने के पहले ही भुगतान करता है। चूँकि साहसी द्वारा उत्पादन के अन्य साधनों की बागडोर सम्भाली हुआ रहता है इसलिए उन्हें भुगतान के बाद जो आय बच जाती है, वहीं साहसी का लाभ के रूप में प्राप्त होती है। अन्य शब्दों में मिलने वाली सुनिश्चित आय-निश्चित रूप से धनात्मक होगी पर अवशिष्ट आय धनात्मक, ऋणात्मक तथा शून्य भी हो सकती है। ये धनात्मक आय तथा शून्यता लाभ कहलाती है। अर्थशास्त्र में इस सन्दर्भ में महत्त्व यह है कि लाभ क्यों उत्पन्न होते हैं और इसी प्रश्न के उत्तर के लिए अलग-अलग अर्थशास्त्रियों ने अलग-अलग सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं। कुछ अर्थशास्त्री साहसी को विशेष प्रकार का श्रम मानते हैं जिसका प्रमुख कार्य उत्पादन के विविध साधनों का संयोजन करना तथा उनमें समन्वय स्थापित करना है। इसी के लिए उसे एक विशेष प्रकार की मजदूरी मिलती है जिसे लाभ कहते हैं।
लाभ का गतिशील सिद्धान्त (Dynamic theory of profit) — लाभ का गतिशील सिद्धान्त का प्रतिपादन अमेरिकी अर्थशास्त्री जे.बी. क्लार्क (J.B. Clark) ने 1900 में किया। इस सिद्धान्त के अनुसार, लाभ परिवर्तन का परिणाम हैं, जो केवल गतिशील अर्थव्यवस्था में ही प्राप्त होता है, स्थिर अर्थव्यवस्था में नहीं। क्लार्क ने अर्थव्यवस्था को दो भागों में बाँटा है (i) स्थिर तथा (ii) गतिशील अर्थव्यवस्था।
गतिशील अवस्था के अन्तर्गत अर्थव्यवस्था में समय-समय पर, परिवर्तन होते रहते हैं। प्रायः वे परिवर्तन जनसंख्या, उत्पादन, उपयोग, पूँजी तथा संगठन आदि में होते हैं इन परिवर्तनों के कारण उत्पादन के क्षेत्र में अकुशल उत्पादक हट जाते हैं जबकि कुशल उत्पादक कार्य करते रहते हैं। प्रौद्योगिक समाज के परिवर्तन मूल्य में अन्तर कर देते हैं और इस प्रकार लाभ का जन्म लेते हैं, जबकि स्थिर अर्थव्यवस्था में पूर्ति प्रतिस्पर्धा के कारण लाभ समाप्त हो जाती है। स्थिर स्थिति में प्रायः लाभ का जन्य लगान और मूल्य के अन्तर से होता है। यदि स्थिर दशा में यह अपेक्षित कर रहे हों कि पूर्ति प्रतिस्पर्धा के कारण वस्तु का मूल्य गिर जाएगा। एक सीमा ऐसी हो जायेगी जबकि वस्तु का मूल्य उत्पादन लगान के बराबर रह जायेगा और लाभ समाप्त हो जायेगा। चूँकि स्थिर अर्थव्यवस्था में लाभ सम्भव नहीं होता है, अतः वस्तु का मूल्य उसकी इकाई औसत लगान (Average total unit cost) के बराबर होता है।
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