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बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2733
आईएसबीएन :0

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बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर

अध्याय 16 - व्यापार चक्र : अर्थ, अवस्थायें एवं कारण

(Business Cycle : Meaning, Phases and Causes)

व्यापार चक्र से आशय आर्थिक क्रियाओं के उन उतार-चढ़ावों से है जो स्पष्ट नियमित अवधि के बाद बार-बार होते रहते हैं। "जब समृद्धि के उपरान्त मंदीकाल आता है, तो इसे व्यापार चक्र कहा जाता है।" इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि आर्थिक प्रक्रिया में अनियमितता पाई जाती है, व्यापार में कभी तेजी और कभी मंदी आती है।

 

किसी भी देश के व्यावसायिक वातावरण में यह देखा जाता है कि किसी अवधि में व्यावसायिक गतिविधियाँ बहुत अधिक होती हैं तथा उसके पश्चात उसमें कमी आने लगती है। यदि व्यावसायिक निर्णय उचित स्तर पर लिये जाते हैं तो व्यापार में विनियोजन होता है अर्थात् पूँजी की उपलब्धता बढ़ती है उत्पादन की मात्रा बढ़ने से रोजगार के अवसर बढ़ते हैं लाभ में बढ़ोत्तरी होती है तथा देश में एक व्यावसायिक वातावरण बनता है। किन्तु किसी न किसी बिन्दु के बाद अनिवार्य है।

 

नियोजित एवं नियंत्रित अर्थव्यवस्था में आर्थिक उतार-चढ़ाव की दशाएँ भी उपस्थित नगण्य रूप से समायोजित होती हैं। व्यापार चक्र भी एक स्वतः परिवर्तन की शक्ति विद्यमान रहती है जिससे एक समृद्धि काल स्वयं मंदीकाल में परिवर्तित होता है और पुनः अवसाद काल पुनःफिर एक मंदी अनुप्रयुक्त समृद्धि के स्वरूप प्राप्त करता है। व्यापार चक्र की इस परिवर्तन की शक्ति के कारण ही समृद्धि एवं मंदी का स्वतः पोषित परिवर्तन क्रम चलता रहता है।

 

मंदी अवस्था व्यापार चक्र की पहली अवस्था है। इस अवस्था में देश की व्यावसायिक क्रियाओं का स्तर में गिरावट आ जाती है। इस अवस्था में उत्पादन में कमी, व्यापार बेरोजगारी, निम्न रोजगार, गिरते हुए लाभ, क्रय-शक्ति की कमी, सम्पत्ति, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की ह्रासमान प्रवृत्ति आदि देखी को मिलती है। मंदी की निम्नतम बिन्दु के बाद वह व्यवसाय की क्रियाओं में बढ़ोत्तरी होने लगती है तब इस अवस्था को पुनरुत्थान अवस्था कहा जाता है। सरकार के द्वारा मंदी की स्थिति से निपटने के लिए विनियोग का प्रारम्भ किया जाता है। व्यापार चक्र की इस स्थिति में विभिन्न आर्थिक क्रियायें में लगातार समृद्धि होती है। इस स्थिति में आर्थिक क्रियायें अनुकूल स्तर पर क्रियाशील रहती हैं। अर्नैतिक बेरोजगारी की समाप्ति होती है, रोजगार के इच्छुक अधिकांश लोगों को काम मिलता है। मूल्यों में स्थिरता आ जाती है। अधिक लाभ के कारण विनियोग बढ़ता है। कंपनियों में काफी वृद्धि होती है, और रोजगार की स्थिति उच्चतम होती है जिससे व्यापार का पर्याप्त विस्तार होता है। व्यापार चक्र की इस अवस्था में व्यवसाय का काफी तेजी के साथ विस्तार होता है। इस स्थिति में वस्तुओं की कीमतों, शेयरों के दाम, रोजगार, लाभ की दरों में तेजी से वृद्धि होती है। अर्थव्यवस्था के विभिन्न भागों में तेजी से व्यापार विनियोजन किया जाता है। उत्पादक के साधनों पर अधिक दबाव पड़ता है। इस स्थिति में उत्पादन करने वालों को अपेक्षा काम करने के अवसरों में अधिक वृद्धि होती है। लाभ सामान्य उच्च सीमा पर पहुँच जाता है। व्यापार चक्र की इस अवस्था में विनिमय छिपा रहता है। चारों तरफ हर्ष निराशा का वातावरण छाया रहता है इस अवस्था में मजदूरी की बढ़ती दर, कच्चे माल की कीमतों में वृद्धि, ब्याज दर की बढ़ती दर आदि परेशानियाँ आती हैं जिससे माँग पूरी माँग से ज्यादा हो जाती है, माल के भण्डार समाप्त हो जाते हैं एवं विनिमय की स्थिति बन जाती है।

 

“पूँजी की सीमांत उत्पादकता के उदाहरणों के कारण विनियोग में होने वाले परिवर्तन ही व्यापारिक चक्र उत्पन्न करता है।” प्रो. कीन्स ने इस सिद्धान्त की विस्तृत व्याख्या अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The General Theory of Employment, Interest and Money, 1936 में की है।

 

व्यय की दर न्यूनाधिक रहने के कारण पूँजी की सीमांत उत्पादकता ही एक ऐसा तत्व है जो निजी विधियों की मात्रा को प्रभावित करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, निजी विधियों के कारण पूँजी की सीमांत उत्पादकता में उतारचढ़ाव होते हैं। किसी विशेष प्रकार की पूँजी परिसंपत्ति की सीमांत उत्पादकता दो तत्वों पर निर्भर करती है –

(i) सामयिक लाभ    (ii) पूँजी परिसंपत्तियों की पूर्ति कीमत

अर्थात् इन सामयिक लाभ के उदाहरण ही पूँजी की सीमांत उत्पादकता को निर्धारित करते हैं। चूँकि पूँजी परिसंपत्ति की पूर्ति कीमत को स्थिर माना लिया गया है। पूँजी की सीमांत उत्पादकता में वृद्धि होने से निजी निवेश की मात्रा में भी वृद्धि होगी। इससे देश की अर्थव्यवस्था में मंदी का दौर प्रारम्भ हो जाता है।

अमौद्रिकसिद्धान्त
1. जलवायु अथवा सूर्य-चिन सिद्धान्त
2. उपाद-उत्पादन सिद्धान्त
3. मौसमीकरण सिद्धान्त
4. अति-स्वल्प सिद्धान्त
5. मकडजाल सिद्धान्त

प्रो. हिक्स का व्यापार चक्र सिद्धान्त – हिक्स द्वारा प्रतिपादित किया गया व्यापार चक्रों की व्याख्या करने वाला सिद्धान्त आधुनिक सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। प्रो. हिक्स के अनुसार, “चक्रीय उच्चावचनों के कारण व्यापार प्रक्रिया एवं तत्वक प्रभाव का सम्मिलित परिणाम है।” प्रो. हिक्स ने लिखा है “गुणक तथा तत्वक सिद्धान्त उच्चावचनों के सिद्धान्त की दो धुरियाँ हैं।”
हिक्स ने कुल निवेश को निम्नलिखित दो भागों में विभाजित किया है –
1. स्वाभाविक विनियोग, व  2. प्रेरित विनियोग।

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