बी काम - एम काम >> बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीकाम सेमेस्टर-2 व्यावसायिक अर्थशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय 15 - एकाधिकृत प्रतियोगिता : आशय, विशेषताएँ, कीमत व उत्पादन निर्धारण
(Monopolistic Competition: Meaning Characteristics, Price and Output Determination)
मूल्य निर्धारण में अपूर्ण प्रतियोगिता का सबसे अधिक व्यावहारिक महत्व है। अपूर्ण प्रतियोगिता बाजार की एक विशेष अवस्था न होकर उन स्थितियों का समुच्चय है जो पूर्ण प्रतियोगिता तथा विशुद्ध एकाधिकार के बीच विद्यमान होती है। अपूर्ण प्रतियोगिता की अवस्था उस समय होती है जब किसी फर्म के लिए माँग वक्र पूर्णतः लोचदार नहीं होती। इसी कारण लार्ड ने इसे अपूर्ण प्रतियोगिता उस दशा से जोड़ी है जहाँ क्रेता वस्तु की गिरती हुई माँग रेखा का सामना करता है।
सर्वप्रथम 1926 में पियरो साराफ़ा (Pierro Saraffa) ने Economic Journal में प्रकाशित अपने एक लेख 'प्रतियोगी दशाओं में प्रतिलाभ के नियम' (The Laws of Returns under Competitive Conditions) में अपूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार की आलोचनाओं की तथा इस बात पर बल दिया कि व्यावहारिक जीवन में अपूर्ण प्रतियोगिता की ही स्थिति मिलती है, तत्पश्चात् पिगू, रॉबिन्सन, चेम्बरलिन, कॉर्न आदि अर्थशास्त्रियों ने इसके ऊपर बल दिया। पर अधिक प्रमुख रूप से इस समस्या का समाधान 1933 में हुआ जब श्रीमती जॉन रॉबिन्सन की इकोनॉमिक्स ऑफ इम्परफेक्ट कम्पटीशन (Economics of Imperfect Competition) तथा चेम्बरलिन की थीयरि ऑफ मोनोपो लिस्टिक कम्पटीशन (Theory of Monopolistic Competition) नामक पुस्तकें प्रकाशित हुई। दोनों में यह प्रतिपादित किया कि पूर्ण प्रतियोगिता तथा शुद्ध एकाधिकार की स्थितियाँ दो काल्पनिक स्थितियाँ हैं जो व्यावहारिक जीवन में नहीं पायी जाती हैं, व्यावहारिक जीवन में जो स्थितियाँ पायी जाती हैं वे इनके बीच की स्थितियाँ होती हैं जिन्हें अपूर्ण प्रतियोगिता कहा जाता है।
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