बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्व बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - कला के मूल तत्वसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 चित्रकला - सरल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 9
संयोजन के सिद्धान्त
(Principals of Composition)
प्रश्न- "संयोजन के सिद्धान्त का चित्र में महत्वपूर्ण स्थान है।" उदाहरण सहित समझाइये|
अथवा
संयोजन के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? संयोजन कितने प्रकार के होते है?
उत्तर -
संयोजन
कलाकार चित्रभूमि पर विभिन्न रूपों की व्यवस्था करता है। उसे संयोजन कहते है। संयोजन दो या दो से अधिक तत्वों को एक निश्चित व्यवस्था में जोड़ता है। जैसे Staure Purser के अनुसार " संयोजन चित्रोपम तत्वों को एक सूत्र में बांधने की प्रक्रिया है।'
"Composition is the process of organising the part of a work of art."
जिस प्रकार संगीतकार विभिन्न स्वरों को संयोजित करके एक धुन में बाँधता है उसी प्रकार कलाकार चित्र के विभिन्न तत्वों जैसे- रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत आदि को नियोजित करके व्यवस्थित करता है व संयोजित करता है। यदि चित्र में विभिन्न तत्वों की उचित व्यवस्था नहीं है तो चित्र सुन्दर रेखांकन एवं आर्कषक रंगों से आहूत होते हुए भी दर्शक को आकृष्ट नहीं कर पायेगा। चित्र एक शरीर के समान है और उसके अंग तत्वों के समान है। जब अंग व्यवस्थित होते है तभी शरीर सुन्दर लगता है। चित्र में प्रस्तुत सौन्दर्य उसकी उपयोगिता में नहीं बल्कि उसके प्रस्तुतीकरण में होती है। कला के तत्वों की व्यवस्था के दो मुख्य उद्देश्य है-
सार्थकता एवं रुचि - सार्थकता के हेतु कलाकार संयोजन करके समय विभिन्न तत्वों को व्यवस्थित करने के लिए पूर्ण योजना तैयार करता है। जिसमें सुन्दर प्रभाव उत्पन्न करने के लिए एक जैसे तत्वों का प्रयोग करता है और संघर्ष उत्पन्न करने के लिए विरोधी तत्वों का प्रयोग करके इसके साथ ही अन्य तत्वों जैसे- रेखा, रूप, वर्ण, तान, पोत एवं धरातल आदि को सूत्रबद्ध करता है। इन तत्वों के सूत्रबद्ध संयोजन से ही उत्तम चित्र का निर्माण होता है।
वस्तुओं को परस्पर सूत्रबद्ध करने की केवल तीन विधियाँ ही हो सकती है-
1. एक समान वस्तुओं को परस्पर सूत्रबद्ध करना अर्थात् पुनरावृत्ति।
2. किंचित् विभिन्नता वाली वस्तुओं को सम्बन्धित करना अर्थात् सामन्जस्य।
3. पूर्णतः विरोधी वस्तुओं को सम्बन्धित करना अर्थात् विसम्वादित्व अथवा विरोध।
कला के समस्त रचना विधान के ये ही तीन मुख्य आधार है। इनसे सम्बन्धित चित्र संयोजन के मुख्य सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. अनुपात (Proporation)
2. सन्तुलन (Balance)
3. विरोध (Contrast)
4. प्रभावित (Dominance)
5. सामंजस्य (Harmony)
6. लय (Rhythm)
7. एकता (Unity)
संयोजन के प्रकार - संयोजन मुख्य रूप से तीन प्रकार के होते हैं-
1. संवेगात्मक संयोजन - इसके अर्न्तगत कलाकार अपने अचेतन मन की भावनाओं के उद्देश्यों से आवेशित होकर एवं अत्यन्त भाव-विभोर होकर चित्र का सृजन करता है। कलाकार कलात्मक तत्वों को अधिक महत्व न देकर भावनाओं को अधिक महत्व देता हैं। ऐसे संयोजनों में कलाकार तत्वों का अभाव रहता है। अधिकतर आदिम कलाकार एवं बाल चित्रकारों के चित्र प्रायः इस प्रकार के होते है।
2. बौद्धिक संयोजन - कभी-कभी बौद्धिकता के आवेश में अचेत मन की अभिव्यक्ति के रूप में इस प्रकार के संयोजन बनाये जाते हैं। जिसमें में कलाकार के मस्तिष्क पर पड़े हुए अन्य कलाकारों के प्रभाव अनायासा ही उभर आते है और कलाकार शैलीगत मौलिकता से दूर हो जाता है।
3. नन्दतिक संयोजन - इस प्रकार के संयोजन वे होते है जिनमें संवेदनाओं को बौद्धिक निर्देशन के द्वारा सौन्दर्याभिव्यक्ति के लिए चित्रित किया जाता है। अर्थात् चित्र की रचना सौन्दर्य के लिए की जाती, संवेदनशीलता व संयोजन नियमों के सन्तुलित समीकरण है चित्र और रचना में इस प्रकार के चित्र सर्वोत्तम माने गये है। इसमें कलाकार के अनुभवों के साथ-साथ में सौन्दर्य में वृद्धि होती जाती हैं। चित्र में आदर्शपरक रूपात्मक गुणों का सुन्दर समन्वय होता है।
निष्कर्ष - यह है कि संयोजन रूपप्रद तत्वों का एक ऐसा अभिव्यक्तिपरक आयोजन है जो दर्शक के नेत्रों को आनन्द प्रदान करता है तथा कलाकार की सूक्ष्म अनुभुतियों को अभिव्यक्ति प्रदान करता है। संयोजन के सिद्धांत एक ओर से चित्र सृजन का निर्देशन करते है और दूसरी ओर चित्र के मूल्यांकन की कसौटी होते हैं।
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