बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृतिसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 प्राचीन भारतीय इतिहात एवं संस्कृति - सरल प्रश्नोत्तर
प्रश्न- गुप्तों के काल को प्राचीन भारत का 'स्वर्ण युग' क्यों कहते हैं? विवेचना कीजिए।
अथवा
" सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में गुप्तकाल में अभूतपूर्व प्रगति हुई।' इस कथन से आप कहाँ तक सहमत हैं?
उत्तर-
गुप्तकाल : भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग
गुप्तकाल में सभ्यता और संस्कृति के प्रत्येक क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई तथा हिन्दू संस्कृति अपने उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुँच गई। गुप्तकाल की चहुँमुखी प्रगति को ध्यान में रखकर ही इतिहासकारों ने इस काल को स्वर्ण युग' (Golden Age) की संज्ञा से अभिहित किया है।
अपनी जिन विशेषताओं के कारण गुप्तकाल भारतीय इतिहास के पृष्ठों में स्वर्ण युग का स्थान हुए है, वे इस प्रकार हैं-
1. राजनैतिक एकता का काल - गुप्त युग राजनैतिक एकता का काल था। अपने उत्कर्ष काल में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्य पर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल से लेकर पश्चिम में सुराष्ट्र तक फैला हुआ था। यह भाग गुप्त राजाओं के प्रत्यक्ष शासन में था जबकि सुदूर दक्षिण तक उनका यश फैला हुआ था। गुप्त सम्राट सम्पूर्ण देश में एकछत्र शासन स्थापित करना चाहते थे। अपने पराक्रम एवं वीरता के बल पर उन्होंने प्रायः समस्त भारतवर्ष को एकता के सूत्र में आबद्ध कर दिया था।
2. महान सम्राटों का काल - गुप्त युग में अनेक महान एवं यशस्वी सम्राटों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी विजयों द्वारा एकछत्र शासन की स्थापना की। समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य, स्कन्दगुप्त आदि इस काल के योग्य तथा प्रतापी सम्राट थे। गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने न केवल आर्यावर्त के राजाओं का उन्मूलन किया, अपितु सुदूर दक्षिण तक अपनी विजय वैजन्ती फहराई। उसके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने भी गुजरात और कठियावाड़ के शकों का उन्मूलन किया। इसी प्रकार स्कन्दगुप्त ने हूण जैसी बर्बर एवं भयानक जाति को परास्त कर अपनी वीरता का परिचय दिया। हूणों के साथ उसने इतना भीषण युद्ध किया कि उसकी भुंजाओं के प्रताप से पृथ्वी कम्पित हो उठी। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्तकाल महान सम्राटों का काल रहा।
3. श्रेष्ठ शासन व्यवस्था का काल - गुप्त नरेशों ने जिस शासन व्यवस्था का निर्माण किया वह न केवल प्राचीन अपितु आधुनिक युग के लिये भी आदर्श शासन व्यवस्था कही जा सकती है। यह व्यवस्था प्रत्येक दृष्टि से उदार एवं लोकोपकारी थी। सम्पूर्ण गुप्त साम्राज्य में भौतिक एवं नैतिक समृद्धि का वातावरण व्याप्त था। शान्ति एवं व्यवस्था का राज्य था जहाँ आवागमन पूर्णतया सुरक्षित था। फाहियान और कालिदास ने भी गुप्तकाल की शासन व्यवस्था की प्रशंसा की है। ऐसी उत्कृष्ट शासन व्यवस्था प्राचीन इतिहास के अन्य किसी युग में नहीं दिखाई देती।
4. आर्थिक समृद्धि का काल - आर्थिक दृष्टि से भी गुप्त सम्राटों का शासनकाल समृद्धि का काल रहा। इस समय लोगों की जीविका का प्रमुख स्रोत कृषि - कर्म था। प्रायः सभी प्रकार के फलों व अन्नों का उत्पादन होता था। सिंचाई की बहुत ही उत्तम व्यवस्था की गई थी। कृषि के साथ ही साथ व्यापार और व्यवसाय भी उन्नति पर थे। सम्पूर्ण राज्य में अनेक व्यापारिक श्रेणियाँ तथा निगम होते थे। पाटलिपुत्र, वैशाली, उज्जयिनी, दशपुर, भड़ौच आदि इस काल के प्रसिद्ध व्यापारिक नगर थे। इस समय भारत का व्यापार अरब, फारस, मिस्र, रोम, चीन तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया से होता था। इस प्रकार गुप्तयुगीन भारत आर्थिक सम्पन्नता का काल रहा।
5. धार्मिक सहिष्णुता का काल - गुप्तकाल धार्मिक सहिष्णुता का काल रहा। यद्यपि गुप्त राजाओं का शासनकाल वैष्णव धर्म की उन्नति के लिये प्रख्यात है और वे 'परमभागवत' की उपाधि ग्रहण करते थे फिर भी इस काल में सभी धर्मों को समान रूप से विकास का अवसर मिला था। इस युग में ब्राह्मण, बौद्ध, जैन आदि विभिन्न मतानुयायी परस्पर प्रेम एवं सौहार्दपूर्वक निवास करते थे तथा किसी भी प्रकार का साम्प्रदायिक भेदभाव नहीं था। हिन्दू मन्दिर के पास ही बौद्ध मठ थे तथा बुद्ध प्रतिमा के समीप जैनों की मूर्तियाँ थीं। गुप्त सम्राटों के विशाल हृदय तथा उदार चित्त में वैष्णव, जैन, बौद्ध आदि सभी धर्मों के लिये समान श्रद्धा विद्यमान थी।
6. साहित्य, विज्ञान एवं कला के चरमोत्कर्ष का काल - गुप्त युग में साहित्य, विज्ञान एवं कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस काल में संस्कृत राजभाषा के पद पर आसीन हुई तथा संस्कृत साहित्य का पर्याप्त विकास हुआ। गुप्त सम्राट स्वयं संस्कृत के अच्छे ज्ञाता थे जिन्होंने अपनी राजसभा में उच्च कोटि के विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। महान कवि एवं नाटककार कालिदास इसी युग की विभूति हैं जिसकी रचनाएँ संस्कृत साहित्य में सर्वथा बेजोड़ हैं। गुप्तकाल में ही आर्यभट्ट तथा वाराहमिहिर जैसे गणितज्ञ एवं ज्योतिषाचार्य उत्पन्न हुए जिनकी रचनाएँ आज भी प्राचीन विश्व के विज्ञान को भारत की महानतम देन स्वीकार की जाती हैं।
साहित्य तथा विज्ञान के समान कला एवं स्थापत्य के क्षेत्र में भी इस समय उल्लेखनीय प्रगति हुई। कला के विविध पक्षों, जैसे- वास्तु, तक्षण, चित्र आदि का सम्यक् विकास हुआ। भूमरा तथा नचना के शिव-पार्वती मन्दिर, सारनाथ तथा मथुरा की बुद्ध एवं विष्णु मूर्तियाँ तथा अजन्ता की चित्रकारियाँ निश्चित रूप से भारतीय कला के इतिहास में अपनी समकक्षता नहीं रखतीं। इस काल के तक्षण तथा चित्रकला ने. वह मानदण्ड प्रस्तुत किया जो बाद में युगों के लिये आदर्श की वस्तु बना रहा।
7. भारतीय संस्कृति के प्रचार का काल - गुप्तकाल भारतीय संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिये प्रसिद्ध है। यद्यपि गुप्त युग के पहले से ही उत्साही भारतीयों ने मध्य तथा दक्षिणी-पूर्वी एशिया के विभिन्न भागों में अपने उपनिवेश स्थापित कर लिये थे तथापि इन उपनिवेशों में हिन्दू-संस्कृति का प्रचार विशेषतया गुप्त युग में ही हुआ। गुप्तकाल में अनेक भारतीय धर्म प्रचारक चीन गये तथा फाहियान नामक प्रसिद्ध चीनी यात्री भारत आया। इसके अतिरिक्त तिब्बत, कोरिया, जापान तथा पूर्व में फिलीपाइन्स द्वीप समूह तक भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ। इस सांस्कृतिक प्रचार के फलस्वरूप 'बृहत्तर भारत' का जन्म हुआ जो गुप्तकाल को गौरव प्रदान करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि गुप्तकाल में आर्थिक, धार्मिक, साहित्यिक एवं कला कौशल के क्षेत्रों में अभूतपूर्व प्रगति हुई। इस समय देश उन्नति की पराकाष्ठा पर पहुँच गया तथा उन परम्पराओं का निर्माण हुआ जो आगामी शताब्दियों के लिये आदर्शस्वरूप बनी रहीं। अतः गुप्तकाल को प्राचीन इतिहास में 'स्वर्ण युग' की संज्ञा से विभूषित करना सर्वथा उचित एवं तर्कसंगत प्रतीत होता है।
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