बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाजसरल प्रश्नोत्तर समूह
|
5 पाठक हैं |
बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-C - लिंग, विद्यालय एवं समाज
प्रश्न- पुरुष एवं महिला प्रधान समाज की अन्तःक्रिया एवं पहचान
लघु उत्तरीय प्रश्न
- पुरुष प्रधान समाज से आप क्या समझते हैं?
- पुरुष प्रधान समाज में महिला के अधिकारों का हनन होता है? अपना उत्तर तर्क सहित दीजिए।
उत्तर-
पुरुष एवं महिला प्रधान समाज की अन्तःक्रिया एवं पहचान
पुरुष हमेशा से समाज में अपने लिये अधिक स्पेस चाहता है वहीं स्त्री थोड़े से ही खुद को सन्तुष्ट पाती है क्योंकि उसे ऐसी सामाजिक निर्मिति दी जाती है कि वह बड़ा न सोच सके।
हमारी संस्कृति में स्त्री शरीर का कोई भाग ऐसा नहीं है, जो स्पर्श न किया गया हो, बल्कि उसके लिए एक आदर्श और सुंदर शरीर की छवि निर्मित की गयी है। जिसके अनुकूल उसे बनाये रखने का प्रयास समाज करता है। प्रारंभिक समय में जहां लड़कियों के कंधों को बांधकर रखा तो इतिहास काल में महिलाओं का अपने हाथों से शरीर के प्रत्येक भाग को ढककर रखना सामाजिक पहचान माना गया। जिसका उद्देश्य पुरुष समाज द्वारा आदर्श व सुंदर महिला निर्मित था। जिसमें सिर से पैर तक उसके शरीर को एक ऑब्जेक्ट के रूप में देखा जा सके और जिसमें सुधार किया जा सके। यह प्रक्रिया आज भी दोहराई जा रही है तो एक ओर होने का शारीरिक अर्थ, मानवीयता वास्तविकता भी है।
जिस प्रकार मानव शरीर में अपने आसपास के सामाजिक वातावरण के अनुकूल परिवर्तन होता रहता है, उसी प्रकार सेक्स और जेंडर भी। अमेरिकन विचारक व जेंडर सिद्धान्तकार जूडिथ बटलर के अनुसार, "जेंडर का सम्बन्ध समाज द्वारा निर्धारित संकेतों, स्वरों को समझने का मुख्य उत्पन्न करता है व प्राकृतिक लिंग से अलग सामाजिक गतिविधियों व क्रियाओं के रूप में सामने आता है। यह सामाजिक क्रियाएं कार्यक्रम और गतिविधियां स्वयं भी जेंडर को निर्मित करते हैं।"
नारीवादी विचारक के अनुसार इंसान का हाथ श्रम का औजार ही नहीं श्रम की उत्पत्ति भी है। अतः मानवीय हस्तक्षेप बाहरी वातावरण को परिवर्तित करता है और साथ ही उसमें होने वाले परिवर्तनों में मानव शरीर में परिवर्तन और उसका स्वरूप निर्धारित होता है। इसका सन्दर्भ है कि सेक्स व जेंडर दोनों ही "न्यूट्रल" नहीं हैं। बल्कि परिवर्तनशील हैं। जेंडर संस्कृति द्वारा पहले ही निर्धारित स्त्री-पुरुष शारीरिक संरचना के आधार पर किया गया विभाजन है। स्त्रीत्व व पुरुषत्व के सामाजिक विचार को रेखांकित करता है। जिससे यह समाजशास्त्रीय कारक से भी विचार का विषय बनता है। जैविक पहचान अलग तरीके जेंडर को भी इंटरलिंक है। वह भी जेंडर पहचान के प्रश्न से जुड़ता रहता है। जैविक बनावट तथा संस्कृति के अन्तर्सम्बन्धों की समझ को अगर हम जेंडर पर लागू करें तो निष्कर्ष निकलता है कि महिलाओं के शरीर को बनावट से बच्चो तथा सौन्दर्य के मानकों द्वारा निर्धारित की गयी है। पुरुष का शरीर बाहरी प्रकृति से निर्धारित हुआ है। संस्कृति के संदर्भ में विनियोजन हुआ है। इस प्रकार महिलाओं की मौजूदा अशक्तता, जैविक असमानता नहीं पैदा होती बल्कि ऐसे सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों तथा संस्थाओं के देने हैं।
|