बी एड - एम एड >> बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षासरल प्रश्नोत्तर समूह
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बी.एड. सेमेस्टर-1 प्रश्नपत्र- IV-B - मूल्य एवं शान्ति शिक्षा
प्रश्न- भारत के सांस्कृतिक मूल्यों के विकास में भौतिकता एवं सामाजिक कारकों को स्पष्ट कीजिए एवं इसकी प्रवृत्तियों को समझाइए।
उत्तर -
भारतीय संस्कृति के निर्माण हेतु जीवन एवं सामाजिक कारक - व्यक्ति समाज में अनेक प्रकार की क्रियाओं की पूर्ति करता है। यह पूर्ति उसकी जीवन, सामाजिक एवं व्यावहारिक प्रवृत्ति के रूप में हुआ करती है। इन सब क्रियाओं को वह व्यक्ति जिन-जिन माध्यमों को स्वीकार करता है, जिनके आधार पर सांस्कृतिक निर्माण होती है। इन विषयों में संस्कृति के तीन पक्ष बताए गए हैं।
भारतीय संस्कृति की प्रवृत्तियां
एफ.बी. टायलर ने संस्कृति की निम्न विशेषताएं गिनाई हैं-
(1) वास्तविकता - टायलर महोदय ने संस्कृति को एक वस्तुगत एवं वास्तविक प्रवृत्ति के रूप में अवलोकन किया है। इनके अनुसार भौतिक संस्कृति का हम अनुभव कर सकते हैं, इस कारण से यह वास्तविक है।
(2) भौतिक तत्व - संस्कृति का संबंध सिर्फ भावात्मक या मानसिक धरातल तक ही सीमित नहीं बल्कि वह एक दृश्य वस्तु भी है। जब हम संस्कृति में भवन, वस्त्राभूषण आदि को निहित करते हैं, तो संस्कृति एक भौतिक वस्तु रूप में हमारे समक्ष प्रकट होती है।
(3) व्यवहार स्वरूप - जब हम अभौतिक संस्कृति की चर्चा करते हैं तो उसमें रीति-रिवाज, परम्पराएं, मूल्य आदि को निहित करते हैं अर्थात संस्कृति हमें हमारे व्यवहार के तौर-तरीकों का ज्ञान कराती है एवं अपने अनुगामियों से यह अपेक्षा रखती है कि उनका व्यवहार उन प्रारूपों के अनुरूप हो।
(4) मनोवैज्ञानिक उपलब्धि - सभी विद्वान संस्कृति को मानसिक अवधारणा मानते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि संस्कृति केवल भावनाओं एवं मानसिक जीवन की अभिव्यक्ति है। इस कारण जो व्यक्ति संस्कृति से अपने आपको समरस रूप से जोड़ता है, वह मानसिक रूप से संस्कृति का अनुभव या निरूपण कभी भी सहज रूप से कर सकता है।
(5) गतिशीलता - मूल्यः संस्कृति के विकास क्रमिक प्रक्रिया द्वारा होती है। इसलिए इसमें बहुत-सी बातें निहित होती हैं। हम सभी को संस्कृति की विभिन्न विशेषताओं एवं अवधारणाओं के माध्यम से संस्कृति के वर्तमान स्वरूप को समझते हैं। यही कारण है कि संस्कृति का एक गतिशील प्रक्रिया के रूप में देखना। किसी संस्कृति अन्यत्र हेतु जरूरी है कि वह उसमें एकीकरण स्थापित करने का सरल एवं सहज बनाने का प्रयास करें। इस गतिशीलता को लेकर सरलता में प्रवाह स्थापित हो सकेगा।
(6) स्थितता - संस्कृति को स्थिरता एवं परिवर्तनशीलता दोनों में प्रवृत्ति होनी चाहिए। जिससे व्यक्ति उसे समझ सके एवं उसके अनुगामी उसमें समाहित हो सकें।
(7) समाज में रहकर प्राप्त करना - संस्कृति एक सामूहिक वस्तु है, जिसे व्यक्ति समाज में रहकर ग्रहण करता है।
(8) अवशेषगतता - संस्कृति एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में परिणत होती है। यह वंशानुगत नहीं होती बल्कि समाज द्वारा निर्धारित होती है।
(9) परिवर्तन - समाज के अनुरूप संस्कृति में भी परिवर्तन होता है, इसलिए यह एक परिवर्तनशील प्रक्रिया है।
(10) विशिष्ट प्रथाएं - सभी संस्कृतियों के एक विशेष तौर-तरीके होते हैं, जिसके आधार पर हम एक संस्कृति को दूसरी संस्कृति से भिन्न पाते हैं।
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