बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- सिंध, कच्छ, काठियावाड़ और उत्तर प्रदेश की चिकन कढ़ाई पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
बखिया
फंदा
खटऊ सिंध,
उत्तर -
(Embroidery of Sindh, Kutch, Kaathiawad and Uttar Pradesh)
सिंघ के कढ़े हुए वस्त्रों पर पंजाब और कच्छ का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। पंजाब की फुलकारी के रफ-टांकों तथा कच्छ- कढ़ाई के चेन टांकों के सम्मिश्रण से तैयार सिंध - कढ़ाई का अपना एक विशिष्ट सौंदर्य होता था। प्रायः घर के बुने कत्थई रंग के कपड़े पर नारंगी काले तथा बैंगनी रंग के धागों से कढ़ाई की जाती थी।
कच्छ की कढ़ाई को 'कान्वी' कहा जाता था। इसमें प्रायः चेन-टांकों का प्रयोग होता था। इनसे गरारे, लंहगे तथा चोली आदि वस्त्र काढ़े जाते थे। नमूनों की रचना कढ़ाई में स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी। कढ़ाई कच्चे सिल्क धागों तथा सूती धागों से होती थी।
काठियावाड़ की कढ़ाई में कच्छ एवं सिंध की कढ़ाई का सुन्दर सम्मिश्रण रहता था। इनमें शीशे के नन्हें टुकड़ों को भी लगाया जाता था। चेन तथा साटिन टांके अधिक लोकप्रिय थे। मद्धिम रंग तथा 'स्पष्ट नमूने' इनकी विशेषता होती थी। इस प्रकार की कढ़ाई से गरारा, चोली, लहंगे आदि सुसज्जित किये जाते थे। काठियावाड़ की कढ़ाई लुभावनी तथा दृष्टि को चकाचौंध करने वाली होती थी।
उत्तर प्रदेश का चिकनकारी
(Chikankari of Uttar Pradesh)
उत्तर प्रदेश में " लखनऊ" (Lucknow) “चिकनकारी" (Chikankari) कढ़ाई के लिए सदा से ही प्रसिद्ध रहा है। यहाँ के चिकनकारी वस्त्र विश्व भर में प्रसिद्ध हैं। चिकनकारी कढ़ाई में शैडो काम" (Shadow Work) किया जाता है।
चिकनकारी एक प्राचीन कढ़ाई कला है। इसके उद्गम एवं विकास से सम्बन्धित कई कथाएँ एवं किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार मुर्शिदाबाद की राजकुमारी सिलाई, बुनाई एवं कढ़ाई कला में अत्यन्त निपुण थीं। जब इस राजकुमारी की शादी ओथ (Oath ) के नवाब से हुई तो उसने अपने पति (नवाब) के लिए चिकनकारी कढ़ाई कला से एक टोपी बनाकर भेंट की। यह टोपी श्वेत मलमल के वस्त्र पर श्वेत रेशमी धागों से बनी हुई थी जो अत्यन्त सौन्दर्यमय एवं अलौकिक लगती थी। नवाब इस टोपी से अत्यन्त प्रसन्न हुआ और तभी से कहते हैं, चिकनकारी कला का विकास हुआ।
श्वेत मलमल के वस्त्र पर श्वेत रंग के धागों से की गई चिकनकारी इतनी आकर्षक एवं सुन्दर लगती थी मानो गंगा-यमुना की पवित्र जलधारा ही वस्त्र पर साकार हो गई हो। रंगों के अभाव होते हुए भी इसके सौन्दर्य की बराबरी और कोई वस्त्र नहीं कर सकता था।
दूसरी किवदंती के अनुसार फैयज खान (Faiz Khan) नामक एक बुनकर (Weaver) अपनी लम्बी यात्रा के दौरान लखनऊ के पास एक गाँव में ठहरना चाहा। उसे जोरों की प्यास लगी थी। अतः उसने मोहम्मद शैर खान (Mohammad Shar Khan) से पानी पिलाने का आग्रह किया साथ ही ठहरने के लिए व्यवस्था करने को कहा। मोहम्मद शैर खान ने उसे सम्मानपूर्वक ठहराया एवं पानी पिलाया। इससे फैयज खान अत्यन्त प्रसन्न हुआ और उसने मोहम्मद शैर खान को "चिकनकारी" की कला सिखायी। अतः मोहम्मद शैर खान को चिकनकारी का जन्मदाता मानते हैं। लखनऊ में आज भी उस्ताद मोहम्मद शैर खान की मजार पर चिकनकारी करने वाले कलाकार बड़ी श्रद्धा एवं भक्ति से दर्शन करने जाते हैं तथा नमन करते हैं।
कुछ लोगों का मानना है कि चिकनकारी कढ़ाई कला राजा हर्ष के समय से ही चली आ रही है। उन्हें भी श्वेत मलमल के वस्त्र पर श्वेत रेशमी धागे से की गयी चिकनकारी के वस्त्र अत्यन्त प्रिय थे। मुगलकाल में, जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ ने चिकनकारी कढ़ाई कला का काफी प्रचार-प्रसार किया। इस काल में इस कला का काफी विकास हुआ।
चिकनकारी कढ़ाई अत्यन्त सूक्ष्म, बारीक एवं कोमल होती है। पहले यह केवल श्वेत मलमल के वस्त्र पर श्वेत रेशमी धागों से ही बनायी जाती थी। परन्तु आजकल यह कढ़ाई अन्य वस्त्रों पर भी जैसे 2x 2 कैम्ब्रे, और गैन्डी, सिफॉन, जौरजेट, नेट, वायल आदि पर भी बनायी जाती हैं। . समें विभिन्न प्रकार के रंगों के सूती एवं रेशमी धागों का भी इस्तेमाल किया जाता है।
चिकनकारी करने से पूर्व वस्त्र पर नमूने ट्रेस (छाप) कर लिये जाते हैं। नमूने प्राकृतिक स्रोत एवं घरेलू उपयोग के दैनिक वस्तुओं पर आधारित होते हैं, जैसे- चावल का. दाना, गेहूँ की बाली, फूल, फल (आम), पशु, पक्षी, (मोर, तोता) इत्यादि।
चिकनकारी में मुख्यत: साटिन (Satin) स्टेम (Stem), मूरी (Murri) तथा हेरिंग बोन (Herring bone) टाँके का उपयोग किया जाता है। बखिया एवं विभिन्न टाँकों की मदद से नमूने के अलग-अलग भाग को दर्शाया जाता है। जाली टाँकों से चिकनकारी का काम अधिकतर साड़ियों पर किया जाता है। इसके अतिरिक्त पुरुषों के कुरते, टोपी, कफ, कॉलर, मेजपोश, दुपट्टे, रूमाल, सलवार कुर्त्ता, ब्लाउज आदि भी काढ़े जाते हैं। चिकनकारी की माँग विदेशों में अधिक है। इसलिए अब इसका व्यवसायीकरण (Commercial) हो गया है तथा वृहत स्तर पर इसे वहाँ के स्त्री-पुरुष दोनों ही बनाते हैं। श्वेत वस्त्र पर श्वेत रेशमी धागों से बने चिकनकारी का सौन्दर्य गंगा-यमुना के पवित्र जल के समान प्रतीत होता है। अतः इस वस्त्र की सौन्दर्य की बराबरी अन्य वस्त्र नहीं कर सकता है। हालांकि आजकल रंगीन वस्त्रों पर रंग-बिरंगे सूती एवं रेशमी धागों से चिकनकारी का काम किया जाता है।
चिकनकारी के प्रकार
(Types of Chikankari)
लखनऊ की प्रसिद्ध चिकनकारी में निम्नांकित प्रकार के टाँके लिये जाते हैं-
1. बखिया (Bukhia) - यह चिकनकारी का सबसे प्रचलित एवं लोकप्रिय टाँका है। शैडो कार्य (Shadow Work) में वस्त्र की उल्टी तरफ से हेरिंग बोन टाँके (Herring bone Stitch) द्वारा सिलाई की जाती है। यह चपटा टाँका (Flat Stitch) है। कोमल एवं महीन वस्त्रों में, सीधी तरफ से नीचे का टाँका स्पष्ट दिखाई देता है। नमूने की रूपरेखा (One line) पर सीधी तरफ से उल्टी बखिया (Back Stitch) के महीन टाँके द्वारा की जाती है। नमूने में मुख्यतः फूल, पत्तियाँ, पक्षियों आदि के चित्र बनाये जाते हैं।
2. मूरी (Murri ) - यह चिकनकारी का गाँठों वाला टाँका (Knot Stitch) है। यह भी एक प्रचलित एवं लोकप्रिय टाँका है। इसमें गाँठें (Knot) अत्यन्त महीन एवं सूक्ष्म बनाये जाते हैं। इन टाँकों के उपयोग से फूल के नमूने में बीच का भाग भरा जाता है जिससे फूल उभरा - उभरा नमूना दिखता है। मूरी टाँकों से चावल के दाने, गेहूं की बाली जैसे नमूने भी बनाये जाते हैं। इन टाँकों के साथ खटाऊ टाँकों (Khatau Stitch) के उपयोग करके नमूने में विविधताएँ लायी जाती हैं।
3. फंदा (Phanda) – यह भी मूरी टाँकों के समान ही है। परन्तु इसमें काजवाले टाँकों (Button Hole Stitch) से नमूनों में छोटे-छोटे छिद्र बना दिये जाते हैं। इस टाँके के उपयोग से चावल के दाने, गेहूँ की बाली एवं अन्य अनाजों के नमूने बनाये जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि यह फ्रेंच नॉट (French Knot) टाँके का ही दूसरा परिवर्तित रूप है। इसमें उभरे - उभरे नमूने बनते हैं।
4. टेपची (Taipichi) – यह साधारण कच्चा टाँका (Simple Running Stitch) अथवा डार्निंग टाँका (Darrning) है। यह चपटा टाँका (Flat Stitch) है। इसमें सीधी रेखाओं का उपयोग करके फूल-पत्तियों के नमूने बनाये जाते हैं। इसके द्वारा फूल-पत्तियों के नमूने में तिरछी रेखाओं को भरा जाता है। इस टाँके से नमूने बनाने में अत्यधिक समय लगता है। एक धागे से नमूने की बाहरी रूपरेखा पर टाँके डाले जाते हैं। इस टाँके से फूल-पत्तियाँ, कलियाँ आदि के नमूने बनाये जाते हैं।
5. जाली (Net) - चिकनकारी को जाली टाँकों के द्वारा अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाया जाता है। नमूने में जाली का प्रभाव विकसित करने के लिए धागे का खींचकर तथा कभी-कभी छोटे छिद्रों को चारों ओर से सिलाई करके कस दिया जाता है। इस प्रकार बड़े नमूनों के बीच में जाली बनाकर वस्त्र की सुन्दरता में अतिशय वृद्धि की जाती है।
6. खटाऊ (Khatau) - यह चपटा टाँका (Flat Stitch) है। इस कढ़ाई में शैडो कार्य (Shadow Work) किया जाता है। इसमें वस्त्र की उल्टी तरफ हेरिंग बोन टाँके द्वारा कढ़ाई की जाती है। इस कढ़ाई में सूक्ष्मता, बारीकी एवं महीनता होती है जिसके कारण यह देखने में अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक लगता है। केलिको वस्त्र पर केलिकों का एप्लीक कार्य (Applique Work) किया जाता है। इसमें मुख्यतः फूल-पत्तियों के नमूने बनाये जाते हैं।
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- प्रश्न- बांधनी से आप क्या समझते हैं ?
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- प्रश्न- उड़ीसा के इकत वस्त्र पर टिप्पणी लिखें।
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- प्रश्न- कर्नाटक की 'कसूती' कढ़ाई पर विस्तार से प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- पंजाब की फुलकारी कशीदाकारी एवं बाग पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
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- प्रश्न- बिहार की सुजानी कढ़ाई पर प्रकाश डालिये।
- प्रश्न- सुजानी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
- प्रश्न- खटवा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।