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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :172
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2694
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र

अध्याय -5

भारत की परम्परागत कढ़ाईयों का परिचय

(Introduction to Traditional Indian Embroideries)

प्रश्न- भारत की परम्परागत कढ़ाई कला के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।

उत्तर -

भारतीय संस्कृति में जो स्थान वास्तुकला, मूर्तिकला और चित्रकला का है, वही स्थान परिधान रचना, सज्जा एवं कढ़ाई (Embroidery) का है। मानव की अनिवार्य आवश्यकताओं में भोजन, निवास स्थान, वस्त्र ( परिधान), शिक्षा आदि है। परिधान से मानव शरीर को ढकता है और मौसम से शरीर की रक्षा हेतु भी इनका प्रयोग करता है।

आदिकाल से ही मानव परिधान का प्रयोग करता आ रहा है। जंगली अवस्था में वह पेड़ों की पत्तियों व डालों से अपने शरीर को ढकता था परन्तु जैसे-जैसे वह सभ्य होता गया वैसे-वैसे वह परिधान का उपयोग करना सीख गया।

प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष अपने सुन्दर व आकर्षक परिधानों के लिए विश्व-प्रसिद्ध रहा है। महीन मलमल व जरी के परिधान अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक बनाए जाते थे तथा इन्हें कढ़ाई के माध्यम से सजाया भी जाता था। वैदिक काल में वस्त्रों को आकर्षक बनाने का उल्लेख मिलता है।

आज से चार-पाँच हजार वर्ष पहले मोहनजोदड़ों की खुदाई से प्राप्त खिलौनों व मूर्तियों के परिधानों के नमूनों से ज्ञात होता है कि परिधान रचना उस समय अपनी चरम सीमा पर थी।

वेदों और प्राचीन ग्रन्थों में जिस सूची कर्म का उल्लेख है वह है कढ़ाई कला। मैगस्थनीज के अनुसार "भारतीय परिधानों पर सोने के तारों और रत्नों से जड़ाऊ काम होता है। " कालिदास और बाणभट्ट के साहित्य में भी भारतीय परिधान रचना एवं सज्जा के बारे में ज्ञान प्राप्त होता है, जैसे कालिदास ने पार्बती जी के परिधान पर हंस के नमूने वाली रचना एवं सज्जा का वर्णन किया है जो कढ़ाई द्वारा ही संभव था।

अजंता के चित्रों में भी परिधान के जाकेट के गले पर बनी सूक्ष्म सज्जा से ही भारतीय परिधान रचना एवं सज्जा में की गई कढ़ाई की उत्कृष्टता का प्रमाण प्राप्त होता है।

मुगल काल को परिधान एवं सज्जा का विकास काल कहा जा सकता है। मुगलों के साथ फारसी व ईरानियों ने भी इस कला को संवारा तथा निखारा।

मनोवैज्ञानिक फ्रायड के अनुसार, “कला दमित वासनाओं का उन्नयन है" अतः गृहिणी तथा बालिकाएँ परिधान रचना एवं सज्जा के द्वारा ही अवकाश के समय का सदुपयोग कर अपनी इच्छाओं व रुचियों को स्पष्ट करती हैं।

प्रगतिशील एवं परिवर्तनशील वर्तमान युग में परिधान रचना एवं सज्जा का भी विकास हुआ। भारतीय परिवार की नारी सिलाई, कढ़ाई आदि विभिन्न कलाओं के माध्यम से अपना जीविकोपार्जन कर रही है।

कारलाइल के इस कथन में अत्ययुक्ति नहीं है कि नौ दर्जी मिलकर एक मनुष्य को बना देते हैं। कुरूप मनुष्य अच्छा परिधान पहन कर सुन्दर व प्रभावशाली दिखाई देने लगता है। रूपवान मानव परिधान की कमी के कारण रूपहीन तथा प्रभावहीन दिखाई देने लगता है। परिधान रचना एवं सज्जा का इतिहास

परिधान रचना एवं सज्जा का इतिहास या विकास काल

परिधान रचना एवं सज्जा का इतिहास पाँच कालों में विभाजित किया जा सकता है। ये पाँच काल निम्न हैं-

(1) आर्य काल ( Aryan Period) – आर्य काल में मानव ने रेशम के कीड़े पालकर रेशम बनाया तथा कपड़ा बुनकर तैयार किया। इसी काल में मोहनजोदड़ों और हड़प्पा की खुदाई से पता चला कि उस समय धोती पहनने का रिवाज था और अंगिया भी प्रयोग की जाती थी। यही कारण है कि इस काल को सिन्धु घाटी की सभ्यता का युग कहा जाता है। इस काल में सिलाई का प्रचार नहीं हुआ अर्थात् धोती और अंगिया बिना सिलाई के पहनी जाती थीं।

(2) गुप्त काल (Gupta Period) — गुप्त काल को स्वर्ण युग भी कहते हैं। इस युग चोला या चोगे व अंगरखा पहनते थे जो आज भी राजस्थान के लोग पहनते हैं। इस काल में चोला हाथ से कच्चा करके जोड़ते थे। कढ़ाई भी इस काल में होने लगी, परन्तु फिटिंग नहीं होती थी। महाराज चन्द्रगुप्त के काल में परिधान रचना तथा सज्जा का विकास होने के कारण इस काल को स्वर्ण युग कहा गया है।

(3) मुगल काल (Mughal Period) — इस काल का आरम्भ लगभग 1527 ई० में मुगलों के आगमन से हुआ। मुगल ईरान और इराक से पंजाब पहुँचें। वे चूड़ीदार पायजामा, - बन्द गले का कुर्ता आदि पहनते थे जिसका उदाहरण अब भी पंजाब में देखने को मिलता है। अनुमान से फिंटिंग वस्त्रों में रखी जाती थी। मुगलों ने कपड़े के ऊपर सोने के बटन, सोने व चाँदी के तारों से कढ़ाई व सलमें और तिल्ले का प्रयोग भी किया। ढाका में मलमल का विकास हुआ। इस काल में कढ़ाई की गई- बन्दगले की शेरवानी का प्रचार हुआ जो आज भी मुस्लिम देशों में पहनने का रिवाज है।

(4) अंग्रेजों का काल (British Period)- ब्रिटिश काल का आरम्भ 1600 ई० में लार्ड क्लाइव के ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना से हुआ। इस युग में वर्दी का प्रचार हुआ। हाथ के स्थान पर मशीन द्वारा सिलाई होने लगी। अंग्रेजों के द्वारा ही मशीन भारत में लाई गई। मशीन द्वारा सिलाई से अंग्रेजों को दो लाभ हुए- प्रथम मशीनों की बिक्री तथा द्वितीय समय की बचत।

इस काल में कोट, पैन्ट, कमीज, हॉफ कोट और हाफ पैन्ट का प्रचार हुआ। गिरह और इन्चीटेप का प्रयोग करने लगे। कटाई, सिलाई और फिटिंग की फैशन में बहुत उन्नति हुई जो अन्य कालों में नहीं हुई। फैशन बुक इंग्लैण्ड से मंगवायी जाती थी। वस्त्रों पर विभिन्न प्रकार की कढ़ाई का प्रचलन था।
(5) आधुनिक काल (Present Period) — इस काल का आरम्भ 1947 में स्वतन्त्रता के पश्चात् हुआ। खद्दर को सबसे पहले और अधिक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर खद्दर का परिधान ही पहना जाने लगा। खद्दर से बने रेडीमेड परिधानों का अधिक प्रचार. हुआ। खद्दर की गाँधी टोपी तथा जवाहर जाकेट भी राष्ट्रीय पहनावा था। वर्तमान समय में सिलाई व कटाई आदि ऑटोमेटिक मशीनों के प्रयोग से की जाती हैं।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भारत के घरेलू उद्योग-धन्धों तथा हस्त कलाओं की ओर पुन: रुचि जाग्रत की जा रही है। कढ़ाई कला सीखने हेतु स्कूल स्थापित किए गए हैं।

राज्य सरकार जनता को कुटीर उद्योगों के लिए तथा महिलाओं के घर पर काम करने के लिए राज्य अनुदान तथा ऋणं दोनों देकर सहायता करती है। जगह-जगह ऐसे केन्द्र और विद्यालय खोले जा रहे हैं।

देवल बालिकाएँ ही नहीं बल्कि अधिक आयु की अशिक्षित महिलाएँ भी काम सीखती हैं और स्वयं आत्मनिर्भर बनने का प्रयास कर रही हैं। जिन महिलाओं और बालिकाओं को दूसरों का काम न करना हो तो वह अपने परिवार के अन्य सदस्यों का काम कर सकती हैं। इस प्रकार मनोरंजन के अलावा ज्ञान वृद्धि और बचत भी होती है। यह सब कुछ तभी सम्भव है जबकि महिलाओं और बालिकाओं की कुछ न कुछ सिलाई आदि करते रहने की आदत, अपने वस्त्रादि वस्तुओं को सुन्दर बनाने की इच्छा, अपने धन एवं समय के सदुपयोग की भावना और जिज्ञासा के साथ ही सिलाई कला के प्रति रुचि हो।

परिधान रचना एवं सज्जा में दक्षता प्राप्त करने के विभिन्न लाभ

परिधान रचना तथा सज्जा में दक्ष होने से निम्न लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं-

(1) संस्कार तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की अभिव्यक्ति सरलता से की जा सकती है।
(2) व्यक्तिगत रुचि का ज्ञान होना।
(3) रहन-सहन के स्तर का ज्ञान होना।
(4) परिधान के विभिन्न डिजाइन व उनके गुणों का ज्ञान होना।
(5) सिलाई कार्य के विभिन्न सुझावों तथा आवश्यक क्रियाओं का ज्ञान होना।
(6) कला के पाँच सिद्धान्तों, जैसे- अनुरूपता, सन्तुलन, अनुपात, लय, दबाव का हस्त कला, औद्योगिक कला, व्यापारिक कला आदि की परख के लिए सामान्य रूप से प्रयोग किया जाता है। ये सज्जा की अच्छाइयों या बुराइयों को निर्धारित करने में मानदण्ड का कार्य करते हैं।
(7) गृहिणी अपनी इच्छाओं की पूर्ति परिधान रचना एवं सज्जा द्वारा प्रकट करती है।
(8) अवकाश के क्षणों का सदुपयोग होता है।
(9) दक्षता जोविकोपार्जन का साधन बन सकती है।
(10) दक्षता के साथ-साथ मनोरंजन की भी प्राप्ति होती है।
(11) सामाजिक जीवन में बहुमुखी उपयोगिता होती है।
(12) दर्जी पर निर्भर न होकर समय व धन की बचत की जा सकती है।
(13) फैशन का परिधान रचना एवं सज्जा पर अधिक प्रभाव पड़ता है। अतः परिधान रचना एवं सज्जा में नित्य नये परिवर्तन पाये गये हैं। प्रायः आत्म-प्रदर्शन की भावना से प्रेरित होकर बालक एवं बालिकाएँ विभिन्न परिधान पहनते हैं।

फैशन की उत्पत्ति व अनुकरण के कारण ही बालिकाएँ पतली मोहरी के सलवार तथा बालक चुस्त पतलून एक-दूसरे को देखकर पहनने लगते हैं।

परिधान रचना एवं सज्जा के फैशन में चक्रीय परिवर्तन होते रहते हैं, जैसे- बहुत 'समय पहले चुस्त पैन्टों के पहनने का प्रचलन तथा कुछ दिनों के बाद चौड़ी मोहरी की पैन्टों का पहनना प्रारम्भ हो गया। कुछ दिनों बाद पुनः संकरी मोहरी की पैन्टों का प्रचलन बढ़ गया है।

किम्बाल यंग के अनुसार, "चक्रीय परिवर्तन का कारण यह है कि मानव शरीर की रचना केवल सीमित परिवर्तनों की आज्ञा देती है, इस प्रकार यह आवश्यक है कि नवीनता की इच्छा पुराने फैशन को पुनः प्रचलित करें। "

(14) परिधान रचना एवं सज्जा मनुष्य की अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति तथा जीविकोपार्जन का माध्यम होने के साथ-साथ आनन्ददायक तथा अवकाश के क्षणों का सदुपयोग भी है।

क्षेत्रीय तथा स्थानीय उपयोगिता - परिधान का इतिहास बहुत प्राचीन है। वैदिक काल में स्त्रियाँ तीन प्रकार के वस्त्र पहनती थीं-

(i) बीबनें जिससे लंगोट, जाँघिया, कच्छा आदि का विकास हुआ।
(ii) 'अहिवास' जिससे घाघरे, लहँगे, पेटीकोट, गरारे, सलवार आदि का विकास हुआ।

(iii) 'आतक' जिससे चोली, कुरते, कमीज, जमफर या जम्पर आदि का विकास हुआ। अहिवास और 'आतक' के मेल से पीताम्बर नामक साड़ी का विकास हुआ। स्थानीय व क्षेत्रीय रहन-सहन, मौसम प्रचलित परिधान, जलवायु तथा विभिन्न रीति-रिवाजों के अनुसार परिधान रचना एवं सज्जा का ज्ञान छात्राओं को करना चाहिये; जैसे - पंजाब में सलवार व कुर्ता, बंगाल में सूती परिधान, सूती धोती का प्रचलन है। राजस्थान में घाघरा, चुनरी, अलीगढ़ में अलीगढ़ी पायजामा व शेरवानी का प्रचलन है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- डिजाइन के तत्वों से आप क्या समझते हैं? ड्रेस डिजाइनिंग में इसका महत्व बताएँ।
  2. प्रश्न- डिजाइन के सिद्धान्तों से क्या तात्पर्य है? गारमेण्ट निर्माण में ये कैसे सहायक हैं? चित्रों सहित समझाइए।
  3. प्रश्न- परिधान को डिजाइन करते समय डिजाइन के सिद्धान्तों को किस प्रकार प्रयोग में लाना चाहिए? उदाहरण देकर समझाइए।
  4. प्रश्न- "वस्त्र तथा वस्त्र-विज्ञान के अध्ययन का दैनिक जीवन में महत्व" इस विषय पर एक लघु निबन्ध लिखिए।
  5. प्रश्न- वस्त्रों का मानव जीवन में क्या महत्व है? इसके सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गृहोपयोगी वस्त्र कौन-कौन से हैं? सभी का विवरण दीजिए।
  7. प्रश्न- अच्छे डिजायन की विशेषताएँ क्या हैं ?
  8. प्रश्न- डिजाइन का अर्थ बताते हुए संरचनात्मक, सजावटी और सार डिजाइन का उल्लेख कीजिए।
  9. प्रश्न- डिजाइन के तत्व बताइए।
  10. प्रश्न- डिजाइन के सिद्धान्त बताइए।
  11. प्रश्न- अनुपात से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- आकर्षण का केन्द्र पर टिप्पणी लिखिए।
  13. प्रश्न- अनुरूपता से आप क्या समझते हैं?
  14. प्रश्न- परिधान कला में संतुलन क्या हैं?
  15. प्रश्न- संरचनात्मक और सजावटी डिजाइन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  16. प्रश्न- फैशन क्या है? इसकी प्रकृति या विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  17. प्रश्न- फैशन के प्रेरक एवं बाधक तत्वों पर प्रकाश डालिये।
  18. प्रश्न- फैशन चक्र से आप क्या समझते हैं? फैशन के सिद्धान्त समझाइये।
  19. प्रश्न- परिधान सम्बन्धी निर्णयों को कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं?
  20. प्रश्न- फैशन के परिप्रेक्ष्य में कला के सिद्धान्तों की चर्चा कीजिए।
  21. प्रश्न- ट्रेंड और स्टाइल को परिभाषित कीजिए।
  22. प्रश्न- फैशन शब्दावली को विस्तृत रूप में वर्णित कीजिए।
  23. प्रश्न- फैशन का अर्थ, विशेषताएँ तथा रीति-रिवाजों के विपरीत आधुनिक समाज में भूमिका बताइए।
  24. प्रश्न- फैशन अपनाने के सिद्धान्त बताइए।
  25. प्रश्न- फैशन को प्रभावित करने वाले कारक कौन-कौन से हैं ?
  26. प्रश्न- वस्त्रों के चयन को प्रभावित करने वाला कारक फैशन भी है। स्पष्ट कीजिए।
  27. प्रश्न- प्रोत / सतही प्रभाव का फैशन डिजाइनिंग में क्या महत्व है ?
  28. प्रश्न- फैशन साइकिल क्या है ?
  29. प्रश्न- फैड और क्लासिक को परिभाषित कीजिए।
  30. प्रश्न- "भारत में सुन्दर वस्त्रों का निर्माण प्राचीनकाल से होता रहा है। " विवेचना कीजिए।
  31. प्रश्न- भारत के परम्परागत वस्त्रों का उनकी कला तथा स्थानों के संदर्भ में वर्णन कीजिए।
  32. प्रश्न- मलमल किस प्रकार का वस्त्र है? इसके इतिहास तथा बुनाई प्रक्रिया को समझाइए।
  33. प्रश्न- चन्देरी साड़ी का इतिहास व इसको बनाने की तकनीक बताइए।
  34. प्रश्न- कश्मीरी शॉल की क्या विशेषताएँ हैं? इसको बनाने की तकनीक का वर्णन कीजिए।.
  35. प्रश्न- कश्मीरी शॉल के विभिन्न प्रकार बताइए। इनका क्या उपयोग है?
  36. प्रश्न- हैदराबाद, बनारस और गुजरात के ब्रोकेड वस्त्रों की विवेचना कीजिए।
  37. प्रश्न- ब्रोकेड के अन्तर्गत 'बनारसी साड़ी' पर प्रकाश डालिए।
  38. प्रश्न- बाँधनी (टाई एण्ड डाई) का इतिहास, महत्व बताइए।
  39. प्रश्न- बाँधनी के प्रमुख प्रकारों को बताइए।
  40. प्रश्न- टाई एण्ड डाई को विस्तार से समझाइए।
  41. प्रश्न- गुजरात के प्रसिद्ध 'पटोला' वस्त्र पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  42. प्रश्न- राजस्थान के परम्परागत वस्त्रों और कढ़ाइयों को विस्तार से समझाइये।
  43. प्रश्न- पोचमपल्ली पर संक्षिप्त प्रकाश डालिये।
  44. प्रश्न- पटोला वस्त्र से आप क्या समझते हैं ?
  45. प्रश्न- औरंगाबाद के ब्रोकेड वस्त्रों पर टिप्पणी लिखिए।
  46. प्रश्न- बांधनी से आप क्या समझते हैं ?
  47. प्रश्न- ढाका की साड़ियों के विषय में आप क्या जानते हैं?
  48. प्रश्न- चंदेरी की साड़ियाँ क्यों प्रसिद्ध हैं?
  49. प्रश्न- उड़ीसा के बंधास वस्त्र के बारे में लिखिए।
  50. प्रश्न- ढाका की मलमल पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  51. प्रश्न- उड़ीसा के इकत वस्त्र पर टिप्पणी लिखें।
  52. प्रश्न- भारत में वस्त्रों की भारतीय पारंपरिक या मुद्रित वस्त्र छपाई का विस्तृत वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- भारत के पारम्परिक चित्रित वस्त्रों का वर्णन कीजिए।
  54. प्रश्न- गर्म एवं ठण्डे रंग समझाइए।
  55. प्रश्न- प्रांग रंग चक्र को समझाइए।
  56. प्रश्न- परिधानों में बल उत्पन्न करने की विधियाँ लिखिए।
  57. प्रश्न- भारत की परम्परागत कढ़ाई कला के इतिहास पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- कढ़ाई कला के लिए प्रसिद्ध नगरों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  59. प्रश्न- सिंध, कच्छ, काठियावाड़ और उत्तर प्रदेश की चिकन कढ़ाई पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  60. प्रश्न- कर्नाटक की 'कसूती' कढ़ाई पर विस्तार से प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- पंजाब की फुलकारी कशीदाकारी एवं बाग पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
  62. प्रश्न- टिप्पणी लिखिए: (i) बंगाल की कांथा कढ़ाई (ii) कश्मीर की कशीदाकारी।
  63. प्रश्न- कश्मीर की कशीदाकारी के अन्तर्गत शॉल, ढाका की मलमल व साड़ी और चंदेरी की साड़ी पर टिप्पणी लिखिए।
  64. प्रश्न- कच्छ, काठियावाड़ की कढ़ाई की क्या-क्या विशेषताएँ हैं? समझाइए।
  65. प्रश्न- "मणिपुर का कशीदा" पर संक्षिप्त लेख लिखिए।
  66. प्रश्न- हिमाचल प्रदेश की चम्बा कढ़ाई का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- भारतवर्ष की प्रसिद्ध परम्परागत कढ़ाइयाँ कौन-सी हैं?
  68. प्रश्न- सुजानी कढ़ाई के इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  69. प्रश्न- बिहार की खटवा कढ़ाई पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  70. प्रश्न- फुलकारी किसे कहते हैं?
  71. प्रश्न- शीशेदार फुलकारी क्या हैं?
  72. प्रश्न- कांथा कढ़ाई के विषय में आप क्या जानते हैं?
  73. प्रश्न- कढ़ाई में प्रयुक्त होने वाले टाँकों का महत्व लिखिए।
  74. प्रश्न- कढ़ाई हेतु ध्यान रखने योग्य पाँच तथ्य लिखिए।
  75. प्रश्न- उत्तर प्रदेश की चिकन कढ़ाई का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  76. प्रश्न- जरदोजी पर टिप्पणी लिखिये।
  77. प्रश्न- बिहार की सुजानी कढ़ाई पर प्रकाश डालिये।
  78. प्रश्न- सुजानी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।
  79. प्रश्न- खटवा पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये।

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