बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 - गृह विज्ञान - द्वितीय प्रश्नपत्र - फैशन डिजाइन एवं परम्परागत वस्त्र
प्रश्न- कश्मीरी शॉल की क्या विशेषताएँ हैं? इसको बनाने की तकनीक का वर्णन कीजिए।.
उत्तर -
कश्मीर का नाम आते ही जहन में एक ऐसी खूबसूरत धरती का दृश्य सामने आता है जिसके लिए बादशाह जहाँगीर ने एक शेर लिखा है-
हमीं अस्तो, हमीं अस्तो, हमीं अस्त ॥
महर्षि कश्यप के नाम पर इस भू-खण्ड को 'कश्यपमर' तथा बाद में कश्मीर कहा जाने लगा। पण्डित आनन्द कौल 'बानजाई' के अनुसार 'कश्मीर' शब्द मूलतः संस्कृत का है। इसका अर्थ का (पानी) + श्मीर (निकलना) अर्थात् वह भूखण्ड जो पानी निकलने पर लोगों के रहने- योग्य बन गया, कश्मीर कहलाया।
जम्मू-कश्मीर राज्य के अन्तर्गत कश्मीर घाटी और लद्दाख का भी कुछ भाग आता है। कश्मीर लद्दाख की घाटी श्रृंखला से घिरा हुआ क्षेत्र है। जम्मू के पूर्व में रावी और पश्चिम में झेलम नदी बहती है। यह खूबसूरत कश्मीर वैभवशाली वादियों से घिरा हुआ जितना अपनी खूबसूरती का रंग बिखेर रहा है उतना ही कला के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध है। कश्मीरी शॉल, बुनाई के लिए दुनिया भर में अपना अलग ही स्थान रखता है। ये इतनी कोमल एवं महीन तैयार की जाती हैं कि इन्हें.अंगूठी में से आसानी से निकाला जा सकता है। इसी कारण ये शॉल पूरे संसार में रिंग शॉल के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन शॉलों पर बुनाई के अलावा खूबसूरत कढ़ाई भी की जाती है।
इतिहास – ऊनी वस्त्रों का इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता के काल का माना जा सकता है। इसकी तकनीक में विशिष्टता हड़प्पा काल में आयी। 'शाल' (Shal) पर्शियन शब्द से उद्भव हुआ है। शॉल का अर्थ है- बारीक ऊन से बुना हुआ एक कपड़ा। पोशाक के रूप में उद्भव हुआ है। शॉल क यह मध्य एशिया से आया। भारत ऊनी वस्त्रों को उत्पादित करने में इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता था क्योंकि जानवरों के बालों से बने वस्त्रों को भारतीय परम्पराओं में शुद्ध नहीं माना गया। इसके प्रमाण अथर्ववेद, शिवि जातकस, जैन आदि प्राचीन सन्दर्भ ग्रन्थों में मिलते हैं।
पश्म शॉल का लोकप्रिय होना इस उल्लेख से भी साबित होता है कि सासानी बादशाह हुरभुज द्वितीय (302-310 ई०) ने काबुल के राजा की कन्या से जब विवाह किया तब उसके दहेज में कश्मीर के अच्छे से अच्छे पश्मीने के बने शॉल-दुशाले आये, जिनकी कारीगरी देखकर सब लोक चकित हो गये।
कश्मीरी शॉल उद्योग का श्रेय जैन-उल-अबिदिन (Zain UI Abidin) (1420-70) शासक को जाता है जिसे कश्मीर का अकबर भी कहा जाता है। इसके द्वारा बुनकरों को पर्शिया और समरकन्द से लाकर बसाया गया। जिससे इस तकनीक में पर्शिया और मध्य एशिया का प्रभाव दिखाई देता है।
शॉल जिस ऊन के बनाये जाते हैं, उसे पशमीना ऊन कहते हैं। यह ऊन हिमालय क्षेत्र में रहने वाली बकरी के रोएँ से प्राप्त की जाती है एवं मध्य एशिया में तिब्बत, चाइना, तुर्किस्तान से भी आयात होती है। पश्मीना दो प्रकार की होती है। एक तो बहुत महीन जिसे असली तूस कहते हैं। यह जंगली बकरी से प्राप्त होती है एवं दूसरे प्रकार की ऊन पालतू बकरी से प्राप्त की जाती है किन्तु जम्मू-कश्मीर क्षेत्र में इस प्रजाति की बकरी नहीं पाई जाती है।
भारतीय बुनकरों को हालांकि इसका मेहनताना कम मिलता था परन्तु वे इसे आनन्ददायक काम समझकर बड़ी मेहनत व लगन से करते थे। ये कश्मीरी शॉल यूरोप में बहुत महँगे बिकते थे। 18वीं शताब्दी तक इस तरह की शॉल की माँग बहुतायत में थी। इस कारण श्रीनगर में विश्व के अनेक भागों, जैसे-चाइना, तुर्किस्तान, उज्बेकिस्तान, यूरोप, काबुल, ईरान एवं भारत के अन्य क्षेत्रों से शॉलों के व्यापारी आने लगे। व्यापारियों की माँग के अनुसार डिजाइन व बुनाई करवाई जाने लगी जिसके कारण यहाँ के कश्मीरी शॉल में मौलिकता समाप्त होने लगी। व्यापारी यहाँ से बहुमूल्य खूबसूरत कालीन और शॉल खरीद कर ले जाने लगे।
जॉन इर्विन ने उल्लेख किया है कि सन् 1803 में आर्मेनियन (Armenian) ख्वाजा युसुफ (Khwaja-Usuf) को एजेंट के रूप में शॉल खरीदने हेतु कश्मीर भेजा गया तो उसने पाया कि कश्मीर में बने शॉल काफी महँगे थे तथा करघों एवं शॉलों के विक्रय मूल्य पर भारी टैक्स था इसलिए उसने रफूगर की सहायता से शॉलें बनवाने की सोची। इन रफूगरों से लूम के स्थान पर निडिल वर्क शॉल बनवाए। पहला शॉल जिस रफूगर ने बनाया था उसका नाम अलीबाबा था। इस प्रकार के शॉलों का नाम बाद में 'अमलीशॉल' पड़ा। ये शॉल बहुत ही लोकप्रिय हुए क्योंकि इनके उत्पादन में खर्चा भी कम आता था एवं इन पर टैक्स भी नहीं लगता था।
सेबस्ट्रीन सेन्टिक के अनुसार मुगलकाल में 1630 में सोने-चाँदी व सिल्क के तारों से बॉर्डर को सजाकर सुन्दर शॉल बनाये जाते थे। ऐडिनबर्ग (Edinburgh Scotland) में 1808 में कश्मीरी शॉल में 'पेजली' का नमूना आया और 1818 में फ्रांस के जैकार्ड लूम पर जटिल डिजाइन को सरलता से बुना जाने लगा।
कश्मीरी शॉल की तकनीक—कश्मीरी शॉल के लिए एशियन पर्वतीय जंगली बकरी से ऊन प्राप्त की जाती है जिसे कप्रा हिरकस (Capra Hircus) कहते हैं। लद्दाख की ऊँची पवर्तमाला वाले क्षेत्रों से बकरी के रोएँ को इकठ्ठा कर श्रीनगर लाया जाता है जहाँ महिलाएँ कताई कर बारीक धागा तैयार करती हैं, जो हल्का, गर्म और क्रीमी, भूरी सी आभा लिए होता है।
कश्मीरी शॉल को कानि शॉल भी कहते हैं। इसे जामावार के नाम से जानते हैं। इसकी बुनाई ट्वील टेपस्ट्री तकनीक से की जाती है। बाने के डिजाइन बुनते हैं। शटल का धागा पूरी चौड़ाई में नहीं जाता है अपितु डिजाइन के अनुसार चलता है। प्रत्येक रंग की अलग शटल होती है। शॉल की बुनाई बहुत धीमी गति से एवं लम्बाई में की जाती है।
शॉल की बुनाई प्रक्रिया को 6 विशेषज्ञों द्वारा पूर्ण किया जाता है। ये हैं-
(1) वार्ष मेकर (Warp Maker ) – यह आवश्यकतानुसार धागों को ऐंठन देकर ताना तैयार करते हैं।
(2) वार्प ड्रेसर (Warp Dresser ) - यह ताने को कसने का काम करता है।
(3) वार्प थ्रेडर (Warp Threader )– यह ताने के धागों को हिल्ड से निकालता है।
(4) पैटर्न ड्राइवर (Pattern Drawar ) - यह डिजाइन बनाने का महत्वपूर्ण कार्य करता है।
(5) कलर कॉलर (Colour, Caller ) - यह विभिन्न रंगों के ताने के धागों को गिनते हुए बोलता है, जैसे- तीन उठाओं, पीला काम लो, छः उठाओ, हरा काम लो आदि। बुनकर कलर कालर के निर्देशों को मानते हुए रंगों को डिजाइन के अनुसार बुनाई में बाने के धागों का प्रयोग करते हैं।
(6) पैटर्न मास्टर (Pattern Master ) – सम्पूर्ण शॉल की डिजाइन का संयोजन पैटर्न मास्टर की देख-रेख में पूर्ण होता है।
कभी-कभी एक शॉल को बुनने के लिए दो या दो से अधिक लूम का भी प्रयोग किया जाता है। बुने पीस को काटकर रफूगर के द्वारा बहुत ही करीने से रफू की जाती थी कि दोनों पीस का जोड़ दिखाई न दे। शॉल की सतह को चिकना करने के लिए सुलेमानी नग से रगड़ा जाता है। इसके बाद शॉल की सफाई की जाती है एवं धागों की गाँठ लगा दी जाती है। अन्त में ठण्डे पानी से धुलाई की जाती है। रंगीन शॉलों को छाया में सुखाया जाता है जिससे उनका रंग फीका न पड़े तथा रंगों को पक्का करने के लिए सल्फर की भाप दी जाती है।
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