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एम ए सेमेस्टर-1 शिक्षाशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र - शैक्षिक चिन्तन : भारतीय दार्शनिक परम्परायें

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :180
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2685
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 शिक्षाशास्त्र प्रथम प्रश्नपत्र - शैक्षिक चिन्तन : भारतीय दार्शनिक परम्परायें

प्रश्न- दयानन्द के शिक्षा दर्शन के विषय में सविस्तार लिखिए।

अथवा
दयानन्द द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्य पाठ्यचर्या और शिक्षण विधियों की विवेचना कीजिए।
अथवा
दयानन्द सरस्वती के शैक्षिक विचार बताइए।
सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. दयानन्द के शिक्षा दर्शन पर प्रकाश डालिए।
2. दयानन्द के द्वारा दी गयी शिक्षा की अवधारणा बताइए।
3. दयानन्द के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य बताइए।
4. दयानन्द द्वारा दिये गये पाठ्यचर्या की विवेचना कीजिए।

उत्तर -

दयानन्द का शिक्षा दर्शन
(Educational Philosophy of Dayanand)

महर्षि दयानन्द सरस्वती धर्म, मर्मज्ञ, आर्य समाज के संस्थापक, समाज सुधारक और राष्ट्रभाषा न्दिी के प्रचारक के रूप में अधिक प्रसिद्ध हैं परन्तु इस सब कार्य के लिये इन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन किये थे इसलिए ये शिक्षाशास्त्री के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। दयानन्द जी प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के सबसे बड़े समर्थक थे। इन्होंने अंग्रेजी के माध्यम से दी जाने वाली अंग्रेजी शिक्षा का विरोध किया और प्राचीन परम्परानुसार वेद, उपनिषद् और स्मृतियों की शिक्षा की आवश्यकता पर बल दिया। ये माता-पिता का यह कर्त्तव्य समझते थे कि वे अपने बच्चों की शिक्षा का प्रबन्ध करें जो माता-पिता ऐसा नहीं करते उन्हें ये अपने बच्चों का शत्रु मानते थे।

शिक्षा की अवधारणा

 

महर्षि दयानन्द ने शिक्षा शब्द का प्रयोग ज्ञान अथवा विद्या और ज्ञान आवा विद्या पिपासु बाने वाले साधन रूपों में किया है। इनके अनुसार वह ज्ञान जिससे ब्रह्म, जीवात्मा और पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है और मनुष्य का लौकिक एवं पारलौकिक दृष्टि से शुभ एवं कल्याण होता है, वही शिक्षा है। सत्यार्थ प्रकाश में इन्होंने शिक्षा शब्द का प्रयोग ऐसी प्रक्रिया के रूप में किया है जिसके द्वारा मनुष्य को ज्ञान पिपासु बनाया जाता है। इनके अपने शब्दों में विद्या में विलास करने वाले मन का निर्माण करना ही शिक्षा है (विद्या विलास मनसो घृतशील शिक्षा) स्वामी जी के अनुसार ब्रह्म, जीवात्माओं और पदार्थों के सत्य स्वरूप का जानना विद्या है और इनके स्वरूप का न जानना अविद्या है। इन्होंने स्पष्ट किया कि विद्या से मनुष्य का कल्याण होता है और अविद्या से उसका नाश होता है। स्वामी जी ने इसी बात को व्यवहारभानु में इस प्रकार कहा है जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति करता है और अविद्या आदि दोषों को छोड़कर सदा आनन्द लाभ करता है, वह शिक्षा है।

 

शिक्षा के उद्देश्य

 

दयानन्द्र जी मनुष्य के जीवन के चारों पुरुषार्थो धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष के समर्थक थे। ये मनुष्य को पहले लौकिक जीवन के लिये तैयार करने की बात करते थे और उसके बाद उसे पारलौकिक जीवन के लिये तैयार होने की सलाह देते थे। इनकी दृष्टि से शिक्षा को ये दोनों कार्य करने चाहिए। शिक्षा के उद्देश्यों सम्बन्धी इनके विचारों को हम निम्नलिखित शीर्षकों में क्रमबद्ध कर सकते हैं

 

1. शारीरिक विकास - हम जानते हैं कि शरीर सब धर्मो का साधन है (शरीर माध्यं खलुधर्म साधन) यह बात स्वामी जी भी स्वीकार करते थे और मनुष्य का शारीरिक विकास करना शिक्षा का एक उद्देश्य मानते थे। इसके लिये इन्होंने ब्रह्मचर्य पालन, व्यायाम, खेल-कूद और यौगिक क्रियाओं पर विशेष बल दिया है। भारतीय परम्परा के अनुसार पूर्ण ब्रह्मचारी वह कहलाता है जो जितेन्द्रिय होता है आठों प्रकार के मैथुन से दूर रहता है और मन, वाणी और विचार से शुद्ध होता है।

2. मानसिक विकास - एवं यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति स्वामी जी इस भौतिक संसार की यथार्थता स्वीकार करते थे। इनके विचारानुसार मनुष्य को पहले वस्तु जगत का ज्ञान करना चाहिए। इस ज्ञान की सीमा में पदार्थों का वास्तविक ज्ञान एवं उनका मानव कल्याण की दृष्टि से प्रयोग, आचरण की शिक्षा और आनन्दकारी क्रियाएँ आती हैं।

 

3. समाज सुधार की शक्ति का विकास - दयानन्द जी ने मनुष्य के वैयष्टिक और सामाजिक दोनों विकास पर समान बल दिया है। इनके अनुसार मनुष्य को अपने वैयष्टिक कल्याण के साथ-साथ समाज कल्याण के उद्देश्य को भी सामने रखना चाहिए। इनके युग में चूँकि समाज में अनेक अन्धविश्वास एवं कुरीतियाँ घर कर गई थीं इसलिए ये शिक्षा द्वारा मनुष्य में ऐसी शक्ति के विकास करने पर बल देते थे जिससे वह समाज सुधार कर सकें। इसे दूसरे शब्दों में हम सामाजिक विकास का उद्देश्य भी कह सकते हैं। दयानन्द जी ने स्वयं अपना जीवन समाज सुधार में लगाया था।

 

4. सद्ज्ञान का विकास - स्वामी जी ज्ञान को दो वर्गों में बाँटते थे एक यथार्थ ज्ञान और दूसरा सद्ज्ञान। इनकी दृष्टि से यथार्थ ज्ञान वह है जिससे वस्तु जगत का बोध होता है और सद्ज्ञान वह ज्ञान है जिसके द्वारा ईश्वर की प्राप्ति अथवा मोक्ष प्राप्त होता है। सद्ज्ञान की आवश्यकता तो भौतिक और आध्यात्मिक दोनों जीवनों के लिये होती है। इसके बिना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष किसी की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिए शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य में सद्ज्ञान का विकास करना होना चाहिए। स्वामी जी के अनुसार यह शिक्षा का सबसे प्रमुख उद्देश्य है। इसे आज भी भाषा में आध्यात्मिक विकास का उद्देश्य कहते हैं।

5. सद्गुणों का विकास - स्वामी जी के अनुसार कोरा ज्ञान व्यर्थ होता है, जब तक इस सद्ज्ञान के प्रभाव से मनुष्य में सद्गुणों (सत्यता, कर्मशीलता, सदाचार और परोपकार आदि) का विकास नहीं होता, तब तक इस ज्ञान से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष किसी की भी प्राप्ति नहीं हो सकती। सद्गुणों से युक्त मनुष्य अपना तथा समाज का कल्याण कर सकता है। इनके अनुसार यह कार्य भी शिक्षा द्वारा किया जाना चाहिए। इसे आज की भाषा में नैतिक विकास का उद्देश्य कहते हैं।

शिक्षा की पाठ्यचर्या

स्वामी जी प्राचीन आश्रम व्यवस्था में विश्वास करते थे, इसलिए इन्होंने बच्चों को पच्चीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करने एवं अध्ययन करने का सुझाव दिया है। स्वामी जी के अनुसार बच्चे की शिक्षा गर्भ से प्रारम्भ हो जाती है इसलिए जब बच्चा गर्भ में आए तभी से उसकी शिक्षा प्रारम्भ कर देना चाहिए। इन्होंने बच्चे को गर्भकाल से लेकर उसकी पच्चीस वर्ष की आयु तक की शिक्षा की पाठ्यचर्या तैयार की है।

गर्भकाल की पाठ्यचर्या - जब बच्चा गर्भ में हो तब माता को सात्विक भोजन करना चाहिए शुद्ध आचरण करना चाहिए, धार्मिक कृत्यों में लीन रहना चाहिए और किसी प्रकार के कुत्सित विचारों को मन में नहीं आने देना चाहिए। इससे बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर बड़ा धनात्मक प्रभाव पड़ता है। यह वह काल है जब बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य और स्थिर चित्त की नींव रखी जाती है। नींव ही कमजोर रही तो फिर जीवन भर मनुष्य शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से दुर्बल रहेगा।

जन्म से 5 वर्ष तक की पाठ्यचर्या - जन्म से पाँच वर्ष की आयु तक माता को अपने बच्चों का लालन-पालन के साथ-साथ उनकी शिक्षा की व्यवस्था भी करनी चाहिए। इस काल में स्वामी जी के आदतों के निर्माण, आचरण की शिक्षा और भाषायी विकास को स्थान देते थे। इनका कहना है कि इस आयु स्तर पर बच्चों को खेल-कूद की क्रियाएँ करानी चाहिए और उन्हें ऐसा पर्यावरण देना चाहिए कि वे जानने के लिये इच्छा प्रकट करने लगें।

 

5 से 8 वर्ष तक की पाठ्यचर्या - पाँच वर्ष से आठ वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा का भार स्वामी जी के अनुसार उनके पिताओं पर होना चाहिए। इस काल को स्वामी जी शिक्षारम्भ काल कहते थे। इनके विचार से इस काल में साधारण ज्ञान की बातें आरम्भ कर देनी चाहिए। इस काल में स्वामी जी बच्चों को वर्णों के उच्चारण का स्पष्ट ज्ञान कराने, बच्चों को आचरण की शिक्षा देने ओर कुछ श्लोक आदि रटाने की बात कहते थे। खेल-कूद और शुद्ध आचरण का अभ्यास इस स्तर पर भी कराया जाए।

 

8 से 11 वर्ष तक की पाठ्यचर्या - आठ से पच्चीस वर्ष तक बच्चों को गुरुकुल अथवा विद्वानों की शरण में रहकर विद्या प्राप्त करनी चाहिए। इस काल में उन्हें कब क्या पढ़ना है? इसकी स्वामी जी ने विस्तृत रूपरेखा तैयार की है। इससे पहली बात तो यह है कि सभी बच्चों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। आठ वर्ष से ग्यारह वर्ष तक बच्चों को माता-पिता द्वारा प्राप्त ज्ञान को शुद्ध एवं दृढ़ कराया जाये। इस काल में व्याकरण की शिक्षा भी दी जानी चाहिए, पहले अष्टाध्यायी पढ़ाई जाये और उसके बाद महाभाष्य।

12 से 15 वर्ष तक की पाठ्यचर्या - ग्यारह वर्ष की आयु पूरी करने के बाद फिर निघण्टु और निरुक्त को पढ़ाया जाए। इसी समय पिंगलाचार्य द्वारा लिखे छन्द ग्रन्थ को पढ़ाया जाए और ब्रह्मचारियों को छन्दों का ज्ञान और श्लोक रचना की विधि सिखाई जाए। बारह वर्ष की आयु में स्वामी जी ने मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण आदि धार्मिक ग्रन्थों की शिक्षा का विधान किया है। तेरह से पन्द्रह वर्ष की आयु के बीच पट्टदर्शनों (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, वेदान्त और मीमांसा) का अध्ययन कराना चाहिए। इनके विचार से वेदान्त को पढ़ने से पहले मुख्य उपनिषदों (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तरीय, छन्दोज्ञ और बृहदारण्यक को अवश्य पढ़ाया जाए)।

 

15 से 25 वर्ष तक की पाठ्यचर्या - पन्द्रह से इक्कीस वर्ष तक के बच्चों की पाठ्यचर्या में स्वामी जी ने वेदों का अध्ययन रखा है और इक्कीस वर्ष के बाद भौतिक दृष्टि से उपयोगी विषयों वैद्यशास्त्र, धनुर्विद्या, सैन्य शिक्षा, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून, गायन, शिल्पकला, विज्ञान, भूगोल और खगोल आदि को स्थान दिया है।

 

विशेष - हमारा ज्ञान साहित्य असीमित है। स्वामी जी के अनुसार जो कुछ साहित्य उपलब्ध है वह सारा उपयोगी नहीं है। इसलिए इन्होंने पठनीय और अपठनीय साहित्य की अलग-अलग सूचियाँ तैयार की हैं। उदाहरण के लिये इन्होंने बाल्मीकि रामायण को पठनीय और अपठनीय की सूची में रखा है और तुलसीकृत रामचरितमानस को अपठनीय ग्रन्थों की सूची में। इनका कहना है कि तुलसीकृत रामचरितमानस कपोल कल्पित ग्रन्थ है।

शिक्षण विधि - स्वामी जी ने शिक्षण विधि और अध्ययन विधि में कोई अन्तर नहीं किया है और प्राय: वैदिक विधियों का ही समर्थन किया है। सत्यार्थ प्रकाश के तृतीय समुल्लास में स्वामी जी ने लिखा है कि सन्ध्योपासना एवं यज्ञ-हवन आदि के द्वारा मन, वाणी, शरीर और वातावरण को शुद्ध करके शिक्षा कार्य आरम्भ करना चाहिए। शिक्षण के लिये इन्होंने जिन विधियों की उपयोगिता स्वीकार की है, वे हैं उपदेश अथवा व्याख्यान विधि, स्वाध्याय विधि, प्रत्याक्षानुभव विधि, तर्क विधि और व्यावहारिक विधि। दयानन्द जी ने इन विधियों को अपने एक विशेष रूप में स्वीकार किया है अतः यहाँ उनकी चर्चा करना आवश्यक है।

 

उपदेश अथवा व्याख्यान विधि - हमारी प्राचीन भारतीय परम्परा के अनुसार ज्ञान प्राप्ति के लिये मार्ग दर्शन करना ही शिक्षण है। इस दृष्टि से उपदेश का अर्थ शिक्षक ही उस क्रिया से है जिसके द्वारा वह बच्चों को यह बताता है कि ऐसा करो और ऐसा मत करो, ऐसा करना उचित है और ऐसा करना अनुचित है, यह सत्य है और यह असत्य है। कभी-कभी वह अपने कथनों के पक्ष अथवा विपक्ष में प्रमाण भी देता चलता है। दयानन्द जो इस विधि को शिक्षा की प्रमुख विधि मानते थे। इनका कहना था कि 8 वर्ष की आयु पर माता-पिता को अपने बच्चों को गुरु आश्रमों में भेज देना चाहिए जहाँ गुरू अपने शिष्यों को उपदेश दें।

स्वाध्याय विधि - इस विधि के भी दो रूप हैं एक तो गुरू आज्ञा से ग्रन्थों का अध्ययन करना और दूसरा अपनी इच्छा से अध्ययन करना। स्वामी जी दोनों प्रकार के अध्ययन को आवश्यक समझते थे। इनका मत था कि ब्रह्मचारी को पठनीय ग्रन्थों को स्वयं अध्ययन करना चाहिए। इन्होंने स्वयं इस प्रकार बहुत कुछ सीखा था।

प्रत्यक्षानुभव विधि - स्वामी जी इन्द्रियों द्वारा अनुभव करके सीखने पर भी बल देते थे। इनका स्पष्टीकरण था कि इन्द्रियों का सम्बन्ध मन से होता है और मन का सम्बन्ध आत्मा से होता है अत: हमें प्रत्याक्षानुभव द्वारा भी सीखना चाहिए। इस विधि में अवलोकन और परीक्षण दोनों के अवसर मिलते हैं आज के शिक्षाशास्त्री भी इस विधि को स्वीकार करते हैं।

तर्क विधि - हमारे यहाँ तर्क का बड़ा महत्त्व है। हमारे धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र, राजनीतिशास्त्र और अन्यान्यशास्त्र, सभी तर्क के आधार पर विकसित हुए हैं। न्याय प्रणाली तर्क विधि ही है। अध्यापन के क्षेत्र में भी हम तर्कयुक्त चिन्तन और मनन को स्थान देते आये हैं। स्वामी जी ने इस शिक्षण विधि का समर्थन किया है। तर्क की भी हमारी अपनी शैली हैं। जब आठ प्रकार के प्रमाण (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द एति, अर्थापति सम्भव और अभाव) पर निर्भर करती है। स्वामी जी इसी तर्क विधि के समर्थक थे। तर्क की इस विधि में विश्लेषण और संश्लेषण दोनों की आवश्यकता पड़ती है।

व्यावहारिक विधि - स्वामी जी इस बात को स्वीकार करते थे कि आचरण, गुरू सेवा, खेल-कूद, व्यायाम, गृह कार्य, संगीत, धनुर्विद्या, आयुर्वेद और शिल्पों की शिक्षा प्रायोगिक विधि से ही दी जा सकती है। इसे व्यावहारिक विधि कहते थे। इस प्रकार स्वामी जी केवल सैद्धान्तिक ज्ञान पर ही बल नहीं देते थे अपितु प्रायोगिक पक्ष पर भी इनका ध्यान गया था और इसके लिये इन्होंने व्यावहारिक विधि को अपनाने की बात कही थी। इसे ही आज प्रयोग विधि कहते हैं।

अनुशासन - स्वामी जी प्राचीन भारतीय परम्परा के समर्थक थे। इनके अनुसार विद्यार्थी को ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करना चाहिए। ब्रह्मचर्य जीवन का अर्थ इन्द्रियों पर नियंत्रण और मन, वचन तथा कर्म से शुद्ध होना है। शिष्य इस प्रकार का आचरण तभी करेंगे जब गुरू उनके सामने उचित आचरण करें। इस प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी अनुशासन के महत्त्व को स्वीकार करते थे और गुरू और शिष्य दोनों से अनुशासन में रहने की अपेक्षा करते थे। इनके अनुसार जो बच्चे संयमित जीवन व्यतीत न करें, उन्हें दण्ड द्वारा उचित मार्ग पर लाना चाहिए। स्वामी जी के शब्दों में दण्ड न देने और लाड़-प्यार करने के कारण जो बच्चे गलत रास्ते पर चले जाते हैं उनके माँ-बाप और आचार्य उनके शत्रु होते हैं ये दण्ड को अमृत और व्यर्थ के लाड़ को विष मानते थे। इनके अनुसार हमें सदैव दूरदृष्टि से काम लेना चाहिए। इस प्रकार स्वामी जी कठोर अनुशासन के समर्थक थे और इसके लिये कठोर दण्ड व्यवस्था को स्वीकार करते थे।

 

शिक्षक - स्वामी जी के अनुसार शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करना चाहिए। इनके अनुसार शिक्षक सत्य ज्ञान की दृष्टि से होता है, उसके अभाव में शिक्षार्थी को सत्य का ज्ञान नहीं हो सकता। यह बात सब प्रकार के ज्ञान से प्रदीप्त व्यक्तित्व वाले शिक्षक पर ही चरितार्थ होती है। अतः शिक्षक को गुणों की खान, सत्य आचरण करने वाला और सतय ज्ञान का दृष्टा होना चाहिए। इसके साथ-साथ स्वामी जी इस बात पर बल देते थे कि शिक्षकों को अपने के साथ पिता तुल्य व्यवहार करना चाहिए। इनके अनुसार शिक्षक और शिक्षार्थी में निकट का सम्बन्ध होना चाहिए, शिक्षक को शिष्यों से और शिष्यों को शिक्षकों से कुछ छिपाना नहीं चाहिए।

शिक्षार्थी - स्वामी जी शिष्य को गुरू के चरणों में बैठकर विद्याध्ययन का उपदेश देते थे। इनका कहना था कि शिष्य किसी गुरू से तभी कुछ सीख सकता है जब वह सीखने के लिये जिज्ञासु हो, सतय का पालन करता हो, शुद्धाचरण करने वाला हो और एकाग्रचित से अध्ययन की ओर प्रवृत्त हो। स्वामी जी के अनुसार शिष्य को गुरू के अनुशासन में रहना चाहिए और नियमित, संयमित और ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत ★ करना चाहिए। ये शिष्यों से तैतिरीय उपनिषद् के उपदेश के पालन की अपेक्षा करते थे। यथा सत्य बोलो, धर्म का आचरण करो, स्वाध्याय में प्रमाद न करो, माता-पिता, आचार्य और अतिथि की उपासना करो और अनिन्दनीय कर्मों का अनुसरण करो, अन्य का नहीं।

विद्यालय - विद्यालयों के सम्बन्ध में स्वामी जी के विचार परम्परावादी थे। प्रारम्भि शिक्षा के लिये ये पारिवारिक शिक्षा के महत्त्व को स्वीकार करते थे। इसके लिये इन्होंने माता-पिता के कर्त्तव्यों का वर्णन भी किया है। इसके बाद (आठ वर्ष की आयु पूरी करने पर) बच्चों का उपनयन संस्कार हो और फिर वे गुरुकुल में प्रवेश करें। स्वामी जी के अनुसार गुरुकुल शहर से कम से कम 8 मील की दूरी पर प्रकृति की गोद में स्थित होने चाहिए और लड़के-लड़कियों के लिये अलग-अलग होने चाहिए और लड़के तथा लड़कियों के गुरुकुलों में कम से कम 8 मील की दूरी होनी चाहिए। उस स्थिति में ही वे ब्रह्मचर्य का पालन कर सकेंगे। अपने आदर्शो के आधार पर इन्होंने अनेक गुरुकुलों की स्थापना भी की थी। राष्ट्रीय शिक्षा के सम्बन्ध में भी दयानन्द जी सचेत थे। इन्होंने शिक्षा की एक राष्ट्रीय योजना भी तैयार की और स्थान-स्थान पर हिन्दी माध्यम से शिक्षा की व्यवस्था करने वाले विद्यालयों की स्थापना की और ये विद्यालय ग्रामों एवं नगरों में ही स्थापित किए। इन विद्यालयों में साक्षरता और व्यावहारिक जीवन की शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था। इस प्रकार हम देखते हैं कि सैद्धान्तिक रूप में प्राचीन परम्परा के पोषक होते हुए भी ये आधुनिक युग की आवश्यकताओं से आँख नहीं मींचे थे।

शिक्षा के अन्य पक्ष

जन शिक्षा - स्वामी जी ने द्विजों के अतिरिक्त शूद्रादि को भी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार दिया है और इसे वेद सम्मत विचार बताया है। इस सम्बन्ध में इन्होंने इस बात पर बल दिया कि प्रत्येक जाति को अपने नियमों में से एक नियम बच्चों की अनिवार्य शिक्षा को बनाना चाहिए। राज्य से भी ये यह अपेक्षा करते थे कि वह ऐसा राज नियम बनाए कि सब बच्चों को विद्यालय भेजना अनिवार्य हो। स्वामी जी के इस विचार से जन शिक्षा को बड़ा बढ़ावा मिला। इस जन शिक्षा के प्रचार और प्रसार में दयानन्द जी ने स्वयं बड़ा कार्य किया था।

स्त्री शिक्षा - भारतीय संस्कृति में नारी को उच्च स्थान प्राप्त है पर पता नहीं क्यों, ब्राह्मण काल में उन्हें उच्च शिक्षा से वंचित कर दिया गया था। स्वामी जी ने हमें इस बात को पुन: बताया कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। (यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवताः) इन्होंने स्पष्ट किया कि मातृशक्ति के अभाव में कोई भी समाज अथवा राष्ट्र नहीं बढ़ सकता, ऊँचा नहीं उठ सकता, अत: स्त्रियों को पुरुषों की भाँति ही शिक्षा देनी चाहिए। स्वामी जी स्त्री शिक्षा के बहुत बड़े समर्थक थे।

 

सह शिक्षा - सह शिक्षा के स्वामी जी कट्टर विरोधी थे। इनके अनुसार लड़के और लड़कियों के लिये अलग-अलग गुरुकुल होने चाहिए और वे गुरुकुल नगर से कम से कम 8 मील की दूरी पर होने चाहिए। इनके अनुसार लड़कों के विद्यालयों में केवल पुरुष शिक्षकों को और लड़कियों के विद्यालयों में केवल स्त्री शिक्षिकाओं की नियुक्ति होनी चाहिए। स्वामी जी का विश्वास था कि इसी स्थिति में विद्यार्थी ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकते हैं।

 

 

 

व्यावसायिक शिक्षा - स्वामी जी व्यावसायिक शिक्षा के महत्त्व को भी स्वीकार करते थे पर इन्होंने इसका क्षेत्र बड़ा संकुचित रखा है। सम्भवतः ये आधुनिक विज्ञान और उसकी देन से परिचित नहीं थे।

धार्मिक शिक्षा - स्वामी जी धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे। धर्म शिक्षा के अभाव में ये शिक्षा को अधूरी मानते थे। इनके अनुसार आचरण ही धर्म होता है (आचार: परमो धर्मः) इसलिए इन्होंने आचरण की शिक्षा पर सबसे अधिक बल दिया है। इनके अपने प्रयासों से धर्म शिक्षा को बहुत बढ़ावा मिला।

राष्ट्रीय शिक्षा - स्वामी जी तत्कालीन अंग्रेजी शिक्षा के कट्टर विरोधी थे। इन्होंने एक ओर तो प्राचीन गुरुकुल प्रणाली के महत्त्व को स्वीकार किया और उस आधार पर नगरों से 8 मील की दूरी पर गुरुकुलों की स्थापना की जिनमें भारतीय परम्परावादी शिक्षा की व्यवस्था की और दूसरी ओर राष्ट्रीय शिक्षा की पूरी योजना प्रस्तुत की जिसमें प्रत्येक गाँव और नगर में मातृभाषा माध्यम के विद्यालयों की स्थापना पर बल था। इन्होंने स्वयं अपने जीवन काल में इस प्रकार के अनेक वैदिक विद्यालयों की स्थापना की थी। इनमें उस समय मातृभाषा के साथ-साथ संस्कृत भाषा और वेद साहित्य के अध्ययन को अनिवार्य किया गया था।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- दर्शन का क्या अर्थ है? इसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  2. प्रश्न- दर्शन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  3. प्रश्न- दर्शन के सम्बन्ध में शिक्षा के उद्देश्य बताइये।
  4. प्रश्न- शिक्षा दर्शन का क्या अर्थ है तथा परिभाषा भी निर्धारित कीजिए। शिक्षा दर्शन के क्षेत्र को स्पष्ट कीजिए।
  5. प्रश्न- शिक्षा दर्शन की परिभाषाएँ स्पष्ट कीजिए।
  6. प्रश्न- शिक्षा दर्शन के क्षेत्र को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- दर्शन के अध्ययन क्षेत्र एवं विषय-वस्तु का वर्णन कीजिए। दर्शन और शिक्षा में क्या सम्बन्ध है?
  8. प्रश्न- भारतीय दर्शन के आधारभूत तत्व कौन कौन से हैं? विवेचना कीजिए।
  9. प्रश्न- भारतीय दर्शन जगत में षडदर्शन का क्या महत्त्व है?
  10. प्रश्न- सांख्य और योग दर्शन के शिक्षण विधि संबंधी विचारों की तुलना कीजिए।
  11. प्रश्न- भारतीय दर्शन में जैन व चार्वाक का उल्लेख कीजिए।
  12. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के मुख्य तत्वों पर प्रकाश डालिए।
  13. प्रश्न- धर्म तथा विज्ञान की दृष्टि से शिक्षा तथा दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट कीजिए।उप
  14. प्रश्न- विज्ञान की शिक्षा तथा दर्शन से सम्बद्धता स्पष्ट कीजिए।
  15. प्रश्न- शिक्षा दर्शन से क्या अभिप्राय है? इसके स्वरूप का उल्लेख कीजिए।
  16. प्रश्न- शिक्षा दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
  17. प्रश्न- "शिक्षा सम्बन्धी समस्त प्रश्न अन्ततः दर्शन से सम्बन्धित हैं।" विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- दर्शन तथा शिक्षण पद्धति के सम्बन्ध की विवेचना कीजिए।
  19. प्रश्न- आधुनिक भारत में शिक्षा के उद्देश्य क्या होने चाहिए?
  20. प्रश्न- सामाजिक विज्ञान के रूप में शिक्षा की विवेचना कीजिए।
  21. प्रश्न- दर्शनशास्त्र में अनुशासन का क्या महत्त्व है?
  22. प्रश्न- दर्शन शिक्षा पर किस प्रकार आश्रित है?
  23. प्रश्न- शिक्षा दर्शन पर किस प्रकार निर्भर करती है?
  24. प्रश्न- शिक्षा दर्शन के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।‌
  25. प्रश्न- शिक्षा-दर्शन के अध्ययन की आवश्यकता एवं महत्त्व पर प्रकाश डालिए।
  26. प्रश्न- शिक्षा मनोविज्ञान के अर्थ एवं परिभाषा की विवेचना कीजिए। शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र की भी विवेचना कीजिए।
  27. प्रश्न- शिक्षा एवं मनोविज्ञान में क्या सम्बन्ध है?
  28. प्रश्न- शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र की विवेचना कीजिए।
  29. प्रश्न- "शिक्षा मनोविज्ञान शिक्षक के लिए कुंजी है, जिससे वह प्रत्येक जिज्ञासा एवं समस्या का उचित समाधान प्रस्तुत करता है।' विवेचना कीजिए।
  30. प्रश्न- वर्तमान शिक्षा की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  31. प्रश्न- शिक्षा के व्यापक एवं संकुचित अर्थ बताइये।
  32. प्रश्न- शिक्षा मनोविज्ञान का महत्व बताइये।
  33. प्रश्न- शिक्षक प्रशिक्षण में शिक्षा मनोविज्ञान की सम्बद्धता एवं उपयोगिता का वर्णन कीजिए।
  34. प्रश्न- मनोविज्ञान शिक्षा को विभिन्न समस्याओं का समाधान करने में किस प्रकार सहायता देता है?
  35. प्रश्न- सांख्य दर्शन के शैक्षिक अर्थ क्या हैं? सविस्तार वर्णन कीजिए।
  36. प्रश्न- सांख्य दर्शन में पाठ्यक्रम की अवधारणा को शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में समझाइये।
  37. प्रश्न- सांख्य दर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में शिक्षण विधियों का वर्णन करो।
  38. प्रश्न- सांख्य दर्शन के शैक्षिक परिप्रेक्ष्य में अनुशासन, शिक्षण, छात्र व स्कूल का उल्लेख कीजिए।
  39. प्रश्न- सांख्य दर्शन के मूल सिद्धान्तों का क्या प्रभाव शिक्षा पद्धति पर हुआ है? व्याख्या कीजिए।
  40. प्रश्न- वेदान्त काल की शिक्षा के स्वरूप को उल्लेखित करते हुए विवेचना कीजिए।
  41. प्रश्न- वेदान्त दर्शन के शैक्षिक स्वरूप की व्याख्या कीजिए।
  42. प्रश्न- उपनिषद् काल की शिक्षा की वर्तमान समय में प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
  43. प्रश्न- वेदान्त दर्शन की तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा तथा मूल्य एवं आचार मीमांसा का वर्णन कीजिए।
  44. प्रश्न- वेदान्त दर्शन की मुख्य विशेषताओं की विवेचना कीजिए। वेदान्त दर्शन के अनुसार शिक्षा के उद्देश्यों व पाठ्यक्रम की व्याख्या कीजिए।
  45. प्रश्न- न्याय दर्शन में ईश्वर विचार तथा ईश्वर के अस्तित्व के लिए प्रमाण बताइये।
  46. प्रश्न- न्याय दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण लिखिए।
  47. प्रश्न- न्याय दर्शन की भूमिका प्रस्तुत कीजिए तथा न्यायशास्त्र का महत्त्व बताइये। न्यायशास्त्र के अन्तर्गत प्रमाण शास्त्र का वर्णन कीजिए।
  48. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की व्याख्या कीजिये।
  49. प्रश्न- वैशेषिक द्रव्यों की व्याख्या कीजिए।
  50. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में कितने गुण होते हैं?
  51. प्रश्न- कर्म किसे कहते हैं? व्याख्या कीजिए।
  52. प्रश्न- सामान्य की व्याख्या कीजिए।
  53. प्रश्न- विशेष किसे कहते हैं? लिखिए।
  54. प्रश्न- समवाय किसे कहते हैं?
  55. प्रश्न- वैशेषिक दर्शन में अभाव क्या है?
  56. प्रश्न- सांख्य दर्शन के मूल सिद्धान्तों का उल्लेख कीजिए।
  57. प्रश्न- सांख्य दर्शन के गुण-दोष लिखिए।
  58. प्रश्न- सांख्य दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं?
  59. प्रश्न- सांख्य दर्शन के प्रमुख बिन्दु क्या हैं?
  60. प्रश्न- न्याय दर्शन से आप क्या समझते हैं?
  61. प्रश्न- योग दर्शन के बारे में अपने विचार प्रकट कीजिए।
  62. प्रश्न- वेदान्त दर्शन में ईश्वर अर्थात् ब्रह्म के स्वरूप का वर्णन कीजिए।
  63. प्रश्न- अद्वैत वेदान्त के तीन प्रमुख सिद्धान्तों को बताइये।
  64. प्रश्न- उपनिषदों के बारे में बताइये।
  65. प्रश्न- उपनिषदों अर्थात् वेदान्त के अनुसार विद्या, अविद्या तथा परमतत्व का उल्लेख कीजिए।
  66. प्रश्न- शिक्षा में वेदान्त का महत्व बताइए।
  67. प्रश्न- बौद्ध धर्म के प्रमुख दार्शनिक सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  68. प्रश्न- बौद्ध धर्म के क्षणिकवाद तथा अनात्मवाद दार्शनिक सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं?
  69. प्रश्न- बौद्ध दर्शन में पंच स्कन्ध तथा कर्मवाद सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  70. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के परिप्रेक्ष्य में बोधिसत्व से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- बौद्ध दर्शन माध्यमिक शून्यवाद के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं?
  72. प्रश्न- बौद्ध दर्शन में निहित मूल शैक्षिक विचारों का वर्णन कीजिए।
  73. प्रश्न- बौद्ध दर्शन में प्रतीत्य समुत्पाद, कर्मवाद तथा बोधिसत्व के सिद्धान्तों के शैक्षिक विचारों का वर्णन कीजिए।
  74. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के शैक्षिक स्वरूप को स्पष्ट कीजिए।
  75. प्रश्न- शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम एवं अनुशासन पर महात्मा बुद्ध के विचारों की विवेचना कीजिए।
  76. प्रश्न- बौद्ध दर्शन के अष्टांगिक मार्ग के शैक्षिक निहितार्थ का उल्लेख कीजिए।
  77. प्रश्न- बौद्ध धर्म के हीनयान तथा महायान सम्प्रदाय के मूलभूत भेद क्या हैं? उल्लेख कीजिए।
  78. प्रश्न- बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्यों का उल्लेख करते हुए उनके शैक्षिक निहितार्थ का विश्लेषण कीजिए?
  79. प्रश्न- जैन दर्शन से क्या तात्पर्य है? जैन दर्शन के मूल सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  80. प्रश्न- जैन दर्शन के अनुसार 'द्रव्य' संप्रत्यय की विस्तृत विवेचना कीजिए।
  81. प्रश्न- जैन दर्शन द्वारा प्रतिपादित शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों का उल्लेख कीजिए।
  82. प्रश्न- इस्लाम दर्शन का परिचय दीजिए। इस्लाम दर्शन के शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए इसमें निहित शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम तथा शिक्षण विधियों का उल्लेख कीजिए।
  83. प्रश्न- इस्लाम धर्म एवं दर्शन की प्रमुख विशेषताएँ क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  84. प्रश्न- जैन दर्शन का मूल्यांकन कीजिए।
  85. प्रश्न- मूल्य निर्माण में जैन दर्शन का क्या योगदान है?
  86. प्रश्न- अनेकान्तवाद (स्याद्वाद) को समझाइए।
  87. प्रश्न- जैन दर्शन और छात्र पर टिप्पणी लिखिए।
  88. प्रश्न- इस्लाम दर्शन के अनुसार शिक्षा व शिक्षार्थी के विषय में बताइए।
  89. प्रश्न- संसार को इस्लाम धर्म की देन का उल्लेख कीजिए।
  90. प्रश्न- गीता में नीतिशास्त्र की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- गीता में भक्ति मार्ग की महत्ता क्या है?
  92. प्रश्न- श्रीमद्भगवत गीता के विषय विस्तार को संक्षेप में समझाइये।
  93. प्रश्न- गीता के अनुसार कर्म मार्ग क्या है?
  94. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षा का क्या अर्थ है?
  95. प्रश्न- गीता दर्शन के अन्तर्गत शिक्षा के सिद्धान्तों को बताइए।
  96. प्रश्न- गीता दर्शन में शिक्षालयों का स्वरूप क्या था?
  97. प्रश्न- गीता दर्शन तथा मूल्य मीमांसा को संक्षेप में बताइए।
  98. प्रश्न- गीता में गुरू-शिष्य के सम्बन्ध कैसे थे?
  99. प्रश्न- वैदिक परम्परा व उपनिषदों के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य लिखिए।
  100. प्रश्न- नास्तिक सम्प्रदायों का शैक्षिक अभ्यास में योगदान बताइए।
  101. प्रश्न- आस्तिक एवं नास्तिक पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  102. प्रश्न- रूढ़िवाद किसे कहते हैं? रूढ़िवाद की परिभाषा बताइए।
  103. प्रश्न- भारतीय वेद के सामान्य सिद्धान्त बताइए।
  104. प्रश्न- भारतीय दर्शन के नास्तिक स्कूलों का परिचय दीजिए।
  105. प्रश्न- आस्तिक दर्शन के प्रमुख स्कूलों का परिचय दीजिए।
  106. प्रश्न- भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिये।
  107. प्रश्न- शिक्षा के उद्देश्य, पाठ्यक्रम और शिक्षण विधि पर श्री अरविन्द घोष के विचारों की विवेचना कीजिए।
  108. प्रश्न- श्री अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्र का वर्णन कीजिए।
  109. प्रश्न- शिक्षा के क्षेत्र में अरविन्द घोष के योगदान का वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- श्री अरविन्द के किन शैक्षिक विचारों ने आपको अपेक्षाकृत अधिक प्रभावित किया और क्यों?
  111. प्रश्न- श्री अरविन्द के शैक्षिक विचारों का वर्णन कीजिए।
  112. प्रश्न- टैगोर के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन कीजिए तथा शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण पद्धति, पाठ्यक्रम एवं शिक्षक के स्थान के सम्बन्ध में उनके विचारों को स्पष्ट कीजिए।
  113. प्रश्न- टैगोर का शिक्षा में योगदान बताइए।
  114. प्रश्न- विश्व भारती का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  115. प्रश्न- शान्ति निकेतन की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? आप कैसे कह सकते हैं कि यह शिक्षा में एक प्रयोग है?
  116. प्रश्न- टैगोर का मानवतावादी प्रकृतिवाद पर टिप्पणी लिखिए।
  117. प्रश्न- डॉ. राधाकृष्णन के बारे में प्रकाश डालिए।
  118. प्रश्न- शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य तथा शिक्षण विधि सम्बन्धी विचारों पर प्रकाश डालते हुए गाँधी जी के शिक्षा दर्शन का मूल्यांकन कीजिए।
  119. प्रश्न- गाँधी जी के शिक्षा दर्शन तथा शिक्षा की अवधारणा के विचारों को स्पष्ट कीजिए। उनके शैक्षिक सिद्धान्त वर्तमान भारत की प्रमुख समस्याओं का समाधान कहाँ तक कर सकते हैं?
  120. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा क्या है?
  121. प्रश्न- बुनियादी शिक्षा का वर्तमान सन्दर्भ में महत्व बताइए।
  122. प्रश्न- "बुनियादी शिक्षा महात्मा गाँधी की महानतम् देन है"। समीक्षा कीजिए।
  123. प्रश्न- गाँधी जी की शिक्षा की परिभाषा की विवेचना कीजिए।
  124. प्रश्न- शारीरिक श्रम का क्या महत्त्व है?
  125. प्रश्न- गाँधी जी की शिल्प आधारित शिक्षा क्या है? शिल्प शिक्षा की आवश्यकता बताते हुए.इसकी वर्तमान प्रासंगिकता बताइए।
  126. प्रश्न- वर्धा शिक्षा योजना पर टिप्पणी लिखिए।
  127. प्रश्न- महर्षि दयानन्द के जीवन एवं उनके योगदान को समझाइए।
  128. प्रश्न- दयानन्द के शिक्षा दर्शन के विषय में सविस्तार लिखिए।
  129. प्रश्न- स्वामी दयानन्द का शिक्षा में योगदान बताइए।
  130. प्रश्न- शिक्षा का अर्थ एवं उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण-विधि, शिक्षक का स्थान, शिक्षार्थी को स्पष्ट करते हुए जे. कृष्णामूर्ति के शैक्षिक विचारों की व्याख्या कीजिए।
  131. प्रश्न- जे. कृष्णमूर्ति के जीवन दर्शन पर टिप्पणी लिखिए।
  132. प्रश्न- जे. कृष्णामूर्ति के विद्यालय की संकल्पना पर प्रकाश डालिए।
  133. प्रश्न- मानवाधिकार आयोग के सार्वभौमिक घोषणा पत्र में मानव मूल्यों के सन्दर्भ में क्या घोषणाएँ की गई।
  134. प्रश्न- मूल्यों के संवैधानिक स्रोतों का उल्लेख कीजिए।
  135. प्रश्न- राष्ट्रीय मूल्य की अवधारणा क्या है?
  136. प्रश्न- जनतंत्र का अर्थ स्पष्ट कीजिए जनतन्त्रीय शिक्षा का वर्णन कीजिए?
  137. प्रश्न- लोकतन्त्र में शिक्षा के उद्देश्य क्या हैं?
  138. प्रश्न- आधुनिकीकरण के गुण-दोषों की व्याख्या करते हुए इसमें शिक्षा की भूमिका का भी वर्णन कीजिए।
  139. प्रश्न- आधुनिकीकरण का अर्थ एवं परिभाषएँ बताइए।
  140. प्रश्न- आधुनिकीकरण की विशेषताएँ बताइये।
  141. प्रश्न- आधुनिकीकरण के लक्षण बताइये।
  142. प्रश्न- आधुनिकीकरण में शिक्षा की भूमिका बताइये।
  143. प्रश्न- राष्ट्रीय एकता में शिक्षा की भूमिका क्या है? विवेचना कीजिए।
  144. प्रश्न- शैक्षिक अवसरों में समानता से आप क्या समझते हैं?
  145. प्रश्न- लोकतन्त्रीय शिक्षा के पाठ्यक्रम और शिक्षण विधियों की विवेचना कीजिए।
  146. प्रश्न- जनतन्त्रीय शिक्षा के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
  147. प्रश्न- शिक्षा में लोकतंत्रीय धारणा से आप क्या समझते हैं?
  148. प्रश्न- राष्ट्रीय एकता की समस्या पर प्रकाश डालिए?
  149. प्रश्न- भारत में शैक्षिक अवसरों की असमानता के विभिन्न स्वरूपों पर प्रकाश डालिए।
  150. प्रश्न- प्रजातन्त्र में शिक्षा की भूमिका बताइये।
  151. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन में शिक्षा की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए।
  152. प्रश्न- लोकतन्त्र में शिक्षा के उद्देश्य बताइये।
  153. प्रश्न- जनतंत्र के मूल सिद्धान्तों का वर्णन कीजिए।
  154. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? शिक्षा सामाजिक परिवर्तन किस प्रकार लाती है?

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