बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य
प्रश्न- हार्डीमैन द्वारा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के माध्यम से अध्ययन किए गए देवी आन्दोलन का स्वरूप स्पष्ट करें।
उत्तर -
देवी आन्दोलन
हार्डीमैन ने लगभग पाँच वर्षों तक दक्षिण गुजरात के आदिवासियों के बीच रहकर स्वतंत्रता- पूर्व 1922 ई. में तत्कालीन बोम्बे प्रजीडेन्सी के जिले सूरत के खानपुर नामक गाँव से चले देवी आन्दोलन का अध्ययन दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के माध्यम से किया। स्वयं हार्डीमैन के शब्दों में, "मेरा यह अध्ययन ' अधीनस्थ अध्ययन समूह' द्वारा किए जाने वाले अध्ययनों की ही तरह का है, जिसमें मेरा उद्देश्य आदिवासियों में विकसित होने वाली उस चेतना को समझना है जिसने बगैर बाह्य अभिजनों की सहायता के उनकी स्थिति को उनके स्वयं के प्रयासों द्वारा सुधारा है।"
उन्होने इस बात पर भी बल दिया कि आदिवासियों के लिए आधुनिक काल में प्रयोग किया जाने वाला प्रर्यायवाची शब्द जनजाति आदिवासियों को पूरी तरह से व्यक्त कर पाने में असमर्थ है अतः कबीलाई मूल निवासियों के लिए आदिवासी शब्द ही अधिक उपयोगी एवं सार्थक है। हार्डीमैन द्वारा अध्ययन किए गए देवी आंदोलन के स्परूप को निम्न प्रकार से समझा जा सकता है -
देवी आंदोलन का स्वरूप
आसपास के अनेकों गाँवों के आदिवासी एक अप्रत्याशित घटना से साक्षातकार कर रहे थे। यह घटना थी पहाड़ों से अवतरित हुई देवी 'सालाबाई' जो उस स्थान पर इकत्रित आदिवासियों 'के सिर आती थी अर्थात् आदिवासियों के माध्यम से बोलती थी एवं उनकी समस्याओं का हल करती थी। देवी के आह्वान के लिए चन्द आदिवासी लकड़ी कीं एक चौकी पर ताजा विछाये गए पेड़ों के पत्तों पर लाल रंग का कपडा ओढकर ध्यान मग्न हो कर बैठ जाते थे। जिसके कुछ देर बाद देवी किसी एक को अपने प्रभाव में ले लेती थी। प्रभावित व्यक्ति सुधबुध खोकर झूमने लगता था तथा अपने सिर को हिलाले लगता था। यह देवी के आ जाने का संकेत था।
इसके बाद उपस्थित आदिवासी देवी की जयजयकार करते थे और देवी दो प्रकार से आदिवासियों से संप्रेक्षण करती थी -
(1) आदिवासियों को उनके सवालों के जवाब देकर
(2) आदिवसियों के उद्धार के लिए आदेश देकर।
पहले प्रकार का सम्प्रेक्षण आदिवासियों के व्यक्तिगत हित में था क्योंकि इसके द्वारा वे अपनी इस प्रकार की निजि अथवा पारिवारिक समस्याओं का समाधान पाते थे जैसे खोई गई वस्तु का मिलने की संभावना, गाय-भैंस इत्यादि की बीमारी इत्यादि। दूसरे प्रकार का सम्प्रेक्षण सामूहिक हित में था जिसमें देवी आदिवासियों को सामाजिक मूल्यों का पाठ पढ़ाती थी अर्थात् इस प्रकार के आदेश देती थी जैसे- शराब मत पीयो, माँस मत खाओ, पशुओं से बहुत कठोरता से काम न लो, बनियो से उधार मत लो, बनियो के घरों से दूर रहो, फिजूल खर्ची मत करो, प्रतिदिन स्नान करो, सफाई से रहो, धर्म मत बदलो इत्यादि।
पहाड़ों की देवी सालाबाई के इस दरबार में आदिवासी एक कुँवारी कन्या को देवी की वेश-भूषा पहनाकर बैठा देते थे जिसके सामने वे वापस घरों को लौटने से पहले चढ़ावा चढ़ाते थे और सामूहिक रूप से प्रसाद ग्रहण करते थे। जैसे-जैसे देवी सालाबाई की ख्याति गुजरात के अन्य क्षेत्र में फैली तो दूरस्त क्षेत्र से भी आदिवासी देवी के प्रवचनों को सुनने के लिए आने लगे। देवी सालाबाई भी अपने प्रवचनों के माध्यम से आदिवासियों को नए-नए आदेश देने लगी जैसे गाँधी जी का अनुसरण करो, खादी पहनो, अहिंसा का पालन करो और राष्ट्रवादियों द्वारा चलाये जा रहे स्कूलों में शिक्षा ग्रहण करो इत्यादि।
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