बी ए - एम ए >> एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्यसरल प्रश्नोत्तर समूह
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एम ए सेमेस्टर-1 समाजशास्त्र द्वितीय प्रश्नपत्र - भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य
प्रश्न- मार्क्स और हीगल के द्वन्द्ववाद की तुलना कीजिए।
उत्तर -
हीगल का द्वन्द्ववाद (Dialecticism of Hegel) हीगल जर्मनी के एक प्रमुख दार्शनिक के रूप में प्रसिद्ध हैं। उन्होंने प्राकृतिक घटनाओं को समझने के लिये विचारों के विकास को सबसे अधिक महत्व दिया तथा विचारों के विकास को द्वन्द्वात्मक पद्धति के आधार पर स्पष्ट किया। हीगल ने अंग्रेजी भाषा के 'डायलैक्टिक' शब्द को ग्रीक भाषा के 'डायलेगो' (Dialego) शब्द से ग्रहण किया। ईसा से पहले यूनान के राज दरबार में किसी भी घटना की वास्तविकता को जानने के लिए तर्क-वितर्क या वाद-विवाद की सहायता ली जाती थी। तर्क-वितर्क की इसी प्रक्रिया को 'डायलेगो' कहा जाता था। हीगल ने यह स्पष्ट किया कि प्राकृतिक घटनाओं में भी निरन्तर परिवर्तन होता रहता है जिन्हें द्वन्द्वात्मक पद्धति के द्वारा समझा जा सकता है। हीगल ने द्वन्द्ववाद को जिस रूप में स्पष्ट किया, उसे निम्नांकित विशेषताओं के आधार पर समझा जा सकता है
(1) द्वन्द्व या अन्तर्विरोध एक सार्वभौमिक घटना है।
(2) प्रकृति के प्रत्येक अंग में द्वन्द्व की प्रक्रिया सदैव विद्यमान रहती है।
( 3 ) द्वन्द्व की प्रक्रिया को वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय के रूप में देखा जा सकता है।
(4) प्राकृतिक घटनाओं के समान समाज का विकास भी विचारों के द्वन्द्व का परिणाम है।
(5) वैचारिक द्वन्द्व समाज में धीरे-धीरे परिमाणात्मक परिवर्तन पैदा करता है।
हीगल से पहले अनेक विद्वानों का यह मत था कि विभिन्न जड़ पदार्थों में होने वाला परिवर्तन कुछ बाह्य दशाओं के फलस्वरूप होता है। इसके विपरीत, हीगल ने द्वन्द्व के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए यह बताया कि विश्व के सभी जड़ और चेतन पदार्थों में सदैव कुछ अन्तर्विरोध पाया जाता है। इसका तात्पर्य है कि किसी वस्तु की आन्तरिक संरचना का निर्माण जिन अंगों से होता है, उनके बीच हमेशा एक द्वन्द्व चलता रहता है। इसी के फलस्वरूपं उस वस्तु के बाहरी स्वरूप में परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार आरम्भ में हीगल ने भौतिक जगत में होने वाले परिवर्तन को स्पष्ट करने के लिये द्वन्द्व को एक सार्वभौमिक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया। कुछ समय बाद हीगल का चिन्तन तात्विक अथवा वैचारिक दिशा में आगे बढ़ने लगा। फलस्वरूप हीगल ने पदार्थों की तुलना में विचारों को अधिक महत्व देना आरम्भ कर लिया। हीगल ने विश्व की समस्त घटनाओं को विकास की एक निश्चित प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया। उनके अनुसार विकास की यह प्रक्रिया कुछ तार्किक नियमों से प्रभावित होती है। विचारों में होने वाला परिवर्तन ही वह तार्किक नियम है जिसकी सहायता से मानव समाज में होने वाले परिवर्तनों को भी समझा जा सकता है। इस तार्किक नियम को वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय के रूप में देखा जा सकता है। वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय की अवधारणा को हीगल ने फिक्टे से ग्रहण किया था जिसमें फिक्टे ने वाद, प्रतिवाद और समन्वय को तर्क की तीन अवस्थाओं के रूप में स्पष्ट किया था। अपने द्वन्द्ववाद को स्पष्ट करते हुये हीगल ने बताया कि प्रत्येक घटना अथवा वस्तु का आरम्भ एक विशेष विचार से होता है जिसे हम 'वाद' कहते हैं। इस विचार या वाद में कुछ कमियाँ होने के फलस्वरूप अनेक विरोधी विचार जन्म लेने लगते हैं। यही 'प्रतिवाद' की दशा है। जब वाद और प्रतिवाद के रूप में विचारों में द्वन्द्व आरम्भ हो जाता है तो इसके समाधान के रूप में एक नयी दशा उत्पन्न होती है जिसे 'समन्वय' की दशा कहा जाता है। समन्वय की इस दशा में वाद और प्रतिवाद के तत्वों का भी कुछ सीमा तक समावेश रहता है लेकिन फिर भी समन्वय की यह दशा स्थायी नहीं होती। इसका कारण यह है कि कुछ समय बाद समन्वय की दशा वाद का रूप ले लेती है तथा इसका पुनः प्रतिवाद होने लगता है।
इस नये वाद और प्रतिवाद के बीच पुनः द्वन्द्व होने से समन्वय की एक नयी दशा उत्पन्न हो जाती है। यह नया समन्वय अपने से पहले के समन्वय से कुछ उन्नत प्रकृति का होता है। हीगल के इस विचार को सरल शब्दो में समझने के लिए यह कहा जा सकता है कि विश्व की विभिन्न घटनाओं को संचालित करने के लिए जो कार्यक्रम सबसे पहले प्रस्तुत किया जाता है, उसे हम वाद कहते हैं। यह कार्यक्रम सभी के लिए अनुकूल न होने के कारण धीरे-धीरे उसका विरोध होने लगता है यह प्रतिवाद की दशा होती है। इस वाद और प्रतिवाद के बीच द्वन्द्व होने से किसी नये कार्यक्रम को स्वीकार कर लिया जाता है जो समन्वय की दशा होती है। कुछ समय बाद समन्वय की दशा में भी प्रतिवाद आरम्भ हो जाने के कारण एक नया समन्वय अस्तित्व में आता है जो अपने से पहले के समन्वय से उच्च कोटि का होता है। वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय की यह प्रक्रिया सदैव चलती रहती है तथा इसी के फलस्वरूप मानव समाज में प्रगति का क्रम चलता रहता है।
हीगल ने स्पष्ट किया कि विचारों से ही वास्तविक जगत का निर्माण होता है। इसका तात्पर्य है कि मानव जाति का विकास विचारों के द्वन्द्व का ही परिणाम है। हीगल ने इस बात पर भी बल दिया कि विचारों ने वाला द्वन्द्व समाज में धीरे-धीरे परिमाणात्मक परिवर्तन उत्पन्न करता है। इसका अर्थ है 1द और प्रतिवाद के द्वन्द्व के फलस्वरूप समन्वय के रूप में स्थापित होने वाली दशा एक लम्बा समय लेती है। जैसे-जैसे समन्वय की एक विशेष दशा के बाद समन्वय की आगामी नयी दशाएँ स्थापित होती जाती हैं, समाज में परिमाणात्मक विकास स्पष्ट होता जाता है। अपने इस द्वन्द्ववाद के आधार पर हीगल ने यह बताया कि हमारा सम्पूर्ण विश्व विचारों का ही प्रतिबिम्ब है। उनके शब्दों में, "इतिहास तर्क से लेकर स्वयं अपनी चेतना की ओर होने वाला विकास है"। इससे 'स्पष्ट होता है कि सभ्यता का प्रत्येक चरण वाद और प्रतिवाद के द्वन्द्व से बनने वाली समन्वय की एक नयी दशा होती है। इस प्रकार विचारों में होने वाली द्वन्द्वात्मकता के आधार पर ही सामाजिक विकास को समझा जा सकता है।
मार्क्स का द्वन्द्ववाद (Dialectical of Marx ) - मार्क्स ने लिखा है, "मेरी द्वन्द्वात्मक पद्धति हीगलवादी विचारों से भिन्न ही नहीं है बल्कि उसके पूर्णतया विपरीत है। हीगल के अनुसार चिन्तन की प्रक्रिया जिसे वह 'विचार' कहते हैं वास्तविक संसार को बनाने वाली एक स्वतन्त्र सत्ता है तथा वास्तविक संसार विचारों का ही एक बाह्य तथा दृश्य स्वरूप है। इसके विपरीत, मेरे लिए मानव मस्तिष्क में विचारों का जन्म भौतिक जगत के प्रतिबिम्ब के रूप में होता है जो बाद में एक विचारधारा के रूप में बदल जाते हैं।" इस कथन से स्पष्ट होता है कि हीगल के अनुसार मनुष्य का भौतिक जगत द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अनुसार, विकसित होने वाले विचारों ही परिणाम होता है। इसके विपरीत, मार्क्स का यह मानना है कि स्वयं विचारों का विकास भौतिक दशाओं के आधार पर होता है। यह भौतिक जगत ही मानवीय मस्तिष्क में प्रतिबिम्बित होकर विचारों के रूप में हमारे सामने आता है। दूसरे शब्दों में, विचार कभी भी स्वतन्त्र या निरपेक्ष नहीं होते बल्कि इनका विकास भौतिक दशाओं के अनुसार ही होता है। मार्क्स ने विचारों को भौतिक शक्तियों के परिणाम के रूप में स्पष्ट किया। वास्तव में विचारों को न देखा जा सकता है और न ही विचारों में होने वाले परिवर्तन का कोई वैज्ञानिक आधार होता है। विचारों का रूप रहस्यवादी है जिसके आधार पर वास्तविक जगत को नहीं समझा जा सकता। दूसरी ओर, भौतिक पदार्थों का अस्तित्व सदैव से रहा है तथा उनके स्वरूप को वैज्ञानिक आधार पर समझा और देखा जा सकता है। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रणाली को भौतिक आधार पर स्पष्ट करने के लिये यह तर्क दिया कि पदार्थ अथवा भौतिक शक्तियाँ ही एक ऐसी वास्तविकता है जिसका एक मूर्त और वस्तुनिष्ठ रूपं होता है। पदार्थ की प्रकृति के अनुसार ही हमारी चेतना और विचारों का निर्माण होता है। इस प्रकार जगत में परस्पर विरोधी शक्तियों के प्रभाव को पदार्थ के आधार पर ही समझा जा सकता है, विचारों के आधार पर नहीं। भौतिक पदार्थों का रूप एक जैसा नहीं रहता बल्कि उसमें सदैव परिवर्तन होता रहता है। यह परिवर्तन भौतिक पदार्थों में ही विद्यमान अनेक आन्तरिक विरोधों के कारण होता है। मार्क्स ने स्पष्ट किया कि हमारे भौतिक जगत में वाद, प्रतिवाद तथा समन्वयं की प्रक्रिया सदैव चलती रहती है जिसके फलस्वरूप नयी दशाएँ उत्पन्न होती रहती हैं।
(Comparison of Hegelian and Marxian Views)
तुलनात्मक दृष्टिकोण से इन दोनों विद्वानों के विचारों के अन्तर को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है -
(1) हीगल मूल रूप से एक तात्विक विचारक थे। दूसरी ओर मार्क्स को एक भौतिकवादी विचारक माना जाता है। यही कारण है कि हीगल ने अपने द्वन्द्ववाद का आधार विचारों को मानते हुए यह निष्कर्ष दिया कि वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय के रूप में विचारों में होने वाला परिवर्तन ही प्रकृति और जगत में होने वाले सभी परिवर्तनों का वास्तविक कारण है। इसके विपरीत मार्क्स ने यह स्पष्ट किया कि भौतिक पदार्थ अथवा बाह्य विश्व की दशाओं से ही विचारों का निर्माण होता है। इस प्रकार भौतिक दशाओं के बीच होने वाला द्वन्द्व ही लोगों के विचारों में परिवर्तन लाकर समाज में परिवर्तन उत्पन्न करता है।
(2) हीगल की विचारधारा में आत्मवादी और भाववादी विचारों की प्रधानता है। ऐसे विचार एक-दूसरे से स्वतन्त्र प्रकृति के भी हो सकते हैं। दूसरी ओर, मार्क्स की द्वन्द्वात्मक प्रणाली में सम्पूर्ण प्रकृति और जगत को एक ऐसी समग्रता के रूप में स्पष्ट किया गया है जिसके सभी अंग परस्पर निर्भर और एक-दूसरे की प्रभावित करते हैं।
( 3 ) हीगल के विचार आध्यात्मिक प्रकृति के होने के साथ ही काल्पनिक भी हैं। वे न तो ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित हैं और न ही प्रयोगसिद्ध हो सकते हैं। मार्क्स ने भौतिक आधार पर द्वन्द्ववाद की विवेचना करके एक व्यावहारिक सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न किया।
(4) हीगल के द्वन्द्ववाद का उद्देश्य अन्तिम चरण के रूप में उन निरपेक्ष विचारों के विकास को स्पष्ट करना था जो मानव प्रगति का वास्तविक आधार हो सकते हैं। मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धान्त को इसलिये प्रस्तुत किया कि वह तार्किक आधार पर श्रमिक वर्ग को संगठित करके एक वर्गरहित समाज की स्थापना करना चाहते थे
(5) हीगल के विचार इस दृष्टिकोण से भी तात्विक दर्शन के निकट हैं कि उन्होंने विकास की प्रक्रिया को बहुत सरल रूप में प्रस्तुत किया है। इसका अर्थ है कि हीगल ने वाद, प्रतिवाद तथा समन्वय को एक सरल और स्वाभाविक प्रक्रिया के रूप में स्पष्ट किया। मार्क्स ने भौतिक पदार्थों अथवा शक्तियों के बीच वाद, प्रतिवाद और समन्वय को महत्वपूर्ण मानने के साथ ही इस बात पर भी बल दिया कि द्वन्द्व से परिमाणात्मक परिवर्तन के साथ एकाएक गुणात्मक परिवर्तन भी उत्पन्न होने लगते हैं।
( 6 ) हीगल ने वाद, प्रतिवाद और समन्वय के रूप में जिस परिवर्तन का उल्लेख किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि विचारों में होने वाला परिवर्तन चक्रीय गति से होता है। इसका अर्थ है कि समन्वय के रूप में एक नयी दशा अवश्य उत्पन्न होती है लेकिन कालान्तर में हम जहाँ से चले थे, आगे बढ़ते हुए फिर उसी जगह पहुँच सकते हैं। इसके विपरीत, मार्क्स ने द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अनुसार होने वाले परिवर्तन को आगे की ओर, ऊपर उठती हुई रेखा के रूप में स्पष्ट किया है। इसका अर्थ है कि प्रतिवाद के कारण प्रत्येक आगामी स्तर पर जिस नये समन्वय की स्थापना होती है, उसका रूप पहले की तुलना में अधिक अच्छा और उन्नत होता है।
(7) उपयुक्त अन्तर से स्पष्ट होता है कि हीगल ने जहाँ द्वन्द्व के फलस्वरूप परिवर्तन की एक क्रमिक प्रक्रिया का उल्लेख किया, वहीं मार्क्स ने एकाएक होने वाले गुणात्मक परिवर्तन के रूप में क्रान्ति जैसे तीव्र परिवर्तन की अनिवार्यता पर भी बल दिया।
अब्राहम तथा मॉर्गन ने हीगल तथा मार्क्स की द्वन्द्वात्मक प्रणाली के अन्तर को सारगर्भित रूप से स्पष्ट करते हुये लिखा है, "एक जोर जहाँ हीगल के विचारों को "द्वन्द्वात्मक आदर्शवाद" कहा जाता है, वहीं मार्क्स के विचार वास्तविक अर्थों में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का आधार हैं। हीगल के समान मार्क्स की रुचि भी प्रकृति का विश्लेषण करने तथा सत्य तक पहुँचने में थी लेकिन हीगल से असहमत होते हुए भी उनका यह विश्वास था कि सत्य तक पहुँचने के लिये इतिहास की व्याख्या भौतिकवादी आधार पर करना आवश्यक है, पूर्णतया वैचारिक या आदर्शवादी आधार पर नहीं।"
मार्क्स तथा हीगल के द्वन्द्ववाद की तुलना
मार्क्स व हीगल के द्वन्द्ववाद के विचारों की तुलना से यह पता चलता है कि प्रथम दोनों ही बात स्वीकार करते हैं कि वास्तविक जगत का क्षेत्र स्थायी नहीं है अपितु अमूर्त जगत स्थायी है जो कि यह वास्तविक नहीं है। व्यक्ति का मस्तिष्क स्थायी धारणाओं का निर्माण कर सकता है परन्तु ऐसी धारणाएँ कभी भी प्रर्याप्त रूप से वास्तविकता को अभिव्यक्त नहीं करती। प्रत्येक वह वस्तु जो वास्तविक है निरन्तर परिवर्तन की ओर अग्रसर होती है तथा निरन्तर इसके रूप में परिवर्तन होता रहता है। वास्तविकता भी स्थायी नहीं होती और न ही व्यक्ति इसको नियंत्रित कर सकता है। वह केवल इतना ही कर सकता है कि अपने मस्तिष्क में वास्तविकता का अमूर्त रूप बना ले। मार्क्स तथा हीगल के द्वन्द्ववाद में दूसरी समानता यह है कि दोनों ही विकास प्रक्रिया में तीन बातों - वाद, प्रतिवाद तथा सम्वाद को निहित मानते हैं।
मार्क्स व हीगल के विचारों में कुछ समानता यह है कि दोनों एक-दूसरे से पूर्णयः भिन्न है। दोनों के विचारों में निम्नलिखित प्रमुख अन्तर पाए जाते हैं -
1. हीगल के द्वन्द्ववाद का आधार विचार है तथा इसका सार यह है कि "बाह्य विश्व आन्तरिक विचारों का ही प्रतिरूप होता है। जबकि मार्क्स के द्वन्द्ववाद का आधार भौतिक पदार्थ है तथा मार्क्स इस बात पर बल देते हैं कि बाह्य विश्व का प्रभाव ही आन्तरिक विचारों का निर्माण करता है। वास्तव में मार्क्स ने स्वयं अपने प्रमुख ग्रन्थ दास कैपिटल में यह लिखा है कि मैने हीगल के द्वन्द्ववाद को सिर के बल खड़ा पाया। इसलिए मैने उसे सीधा कर पैरों के बल खड़ा कर दिया। ".
2. हीगल के सामाजिक दर्शन में प्रेरक शक्ति एक स्व-विकासशील आध्यात्मिक सिद्धान्त है जबकि इसके विपरीत मार्क्स के दर्शन में ये प्रेरक शक्तियाँ उत्पादन के साधन है जो आर्थिक सम्बन्धों को निर्धारित करके सामाजिक व राजनीतिक सम्बन्धों का निर्माण करते हैं।
3. हीगल प्रगति का तत्त्व शब्दों के संघर्ष में मानते हैं जबकि मार्क्स वर्ण संघर्ष को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हैं। अन्तर होते हुए भी दोनों इतिहास के प्रवाह को तर्कसम्मत ढंग से आवश्यक मानते हैं।
4. मार्क्स ने हीगल की अपेक्षा विकास प्रक्रिया को अधिक जटिल प्रक्रिया बताया है। हीगल वाद प्रतिवाद व साम्यवाद की प्रक्रिया के अन्त को निरपेक्ष आत्म चेतन की संज्ञा देते हैं जबकि मार्क्स उसे साम्यवाद का नाम देते हैं।
5. हीगल का द्वन्द्वात्मक काल्पनिक तथा आदर्शवादी है जबकि मार्क्स का द्वन्द्ववाद भौतिकवादी है हीगल के लिए जगत का मूल तत्त्व आत्मा है जबकि मार्क्स के लिए भौतिकवादी। हीगल के लिए अन्तिम लक्ष्य आध्यात्मिक व्यक्ति है, जबकि मार्क्स के लिए यह वर्गविहीन समाज की स्थापना है। यद्यपि वर्ग ही समाज का निर्माण भी अपने आप में काल्पनिक लगता है फिर भी हगल की अपेक्षा अधिक व्यवहारिक है मार्क्स का कहना है कि हीगल अपने द्वन्द्ववाद में वास्तविक तथा प्रयोग सिद्ध तथ्यों पर बिल्कुल ध्यान नही देते हैं।
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- प्रश्न- दलितोत्थान हेतु डॉ. भीमराव अम्बेडकर द्वारा किए गए शैक्षिक कार्यों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कीजिये।
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- प्रश्न- डॉ. अम्बेडर की दलितोद्धार के प्रति यथार्थवाद दृष्टिकोण को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- डेविड हार्डीमैन का आधीनस्थ या दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के वैचारिक स्वरूप एवं पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
- प्रश्न- हार्डीमैन द्वारा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के माध्यम से अध्ययन किए गए देवी आन्दोलन का स्वरूप स्पष्ट करें।
- प्रश्न- हार्डीमैन द्वारा दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य से अपने अध्ययन का विषय बनाये गए देवी 'आन्दोलन के परिणामों पर प्रकाश डालें।
- प्रश्न- डेविड हार्डीमैन के दलितोद्धार परिप्रेक्ष्य के योगदान पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
- प्रश्न- अम्बेडकर के सामाजिक चिन्तन के मुख्य विषय को समझाइये।
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